(1984 में लिखी गई एक कविता )
अजस्र , स्रोतस्विनी के बीच
एक निर्जन द्वीप
सिरजा गया ,
माँ के द्वारा ही .
उद्दाम उन्मत्त प्रवाह में
खरोंचे गए कगार
वक्ष पर प्रहार
धरती के .
जमा होता रहा मलबा
जब समतल में आकर
धारा
हुई मन्थरगति .
साल दर साल चढ़ती
गईं परते
यों साकार हुआ
धारा के बीचों बीच
एक द्वीप अनचाहा सा
निर्जन, शुष्क उपे,क्षित
.
निरन्तर प्रवाह में
कण कण क्षरित तन
सतत चढ़ती परतों
से बोझिल मन
टूटने –जुड़ने से
संत्रस्त
स्थूल अचल
देखता है धारा
की
तरल मधुर गतिशीलता
साथ रहकर भी विलग है.
स्रोतस्विनी का
अंग होकर भी
अलग है .