सोमवार, 22 मार्च 2021

नदी का द्वीप

(1984 में लिखी गई एक कविता )

अजस्र , स्रोतस्विनी के बीच

एक निर्जन द्वीप 

सिरजा गया  ,

माँ के द्वारा ही .

उद्दाम उन्मत्त प्रवाह में

खरोंचे गए कगार

वक्ष पर प्रहार

धरती के .

जमा होता रहा मलबा

जब समतल में आकर धारा

हुई मन्थरगति .

साल दर साल चढ़ती गईं परते

यों साकार हुआ 

धारा के बीचों बीच

एक द्वीप अनचाहा सा

निर्जन, शुष्क उपे,क्षित .

निरन्तर प्रवाह में 

कण कण क्षरित तन

सतत चढ़ती परतों से बोझिल मन

टूटने –जुड़ने से संत्रस्त

स्थूल अचल 

देखता है धारा की

तरल मधुर गतिशीलता

साथ रहकर भी विलग है.

स्रोतस्विनी का अंग होकर भी

अलग है .  

12 टिप्‍पणियां:

  1. खरोंचे गए कगार
    वक्ष पर प्रहार
    क्या खूब लिखा है आपने सुंदर काव्य शिल्प और मुखरित भाव ..वाह।
    सादर।

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  2. द्वीप के सृजन की प्रक्रिया को बखूबी शब्दों में बाँधा है आपने दीदी। जीवन की बहती धारा में भी कुछ ऐसे ही द्वीप सृजित होते रहते हैं जो -
    साथ रहकर भी विलग और स्रोतस्विनी का अंग होकर भी अलग थलग ही रह जाते हैं....

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  3. एक द्वीप के निर्माण के सुंदर काव्यात्मक चित्रण के साथ ही निर्जन उस द्वीप की व्यथा का मार्मिक वर्णन !

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  4. एक पीड़ा प्रकृति के माध्यम से, प्राकृतिक बिम्बों से... किंतु इसके विपरीत भी मैंने देखा है दीदी और बहुत दु:खी हुआ हूँ! किंतु वह सब फिर कभी!!

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  5. नदी के द्वीप का उद्भव और उसकी व्यथा का मार्मिक अंकन । हृदयस्पर्शी सृजन ।

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  6. हमेशा ही तो नव स्रजन में पीड़ा होती है .. बिना वेदना के तो स्रजन संभव ही नहीं न ...सुन्दर रचना

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  7. ब्लाग पर आने का बहुत बहुत धन्यवाद . आप सबके कारण ही आबाद है यह .

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  8. द्वीप सृजन की।अनुपम।गाथा!--ब्रजेंद्रनाथ

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  9. अति सुन्दर सृजन एवं कथ्य ।

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  10. बहुत सुंदर चित्ररत।
    हृदय स्पर्शी रचना।

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