गुरुवार, 24 अप्रैल 2014

आश्वस्ति

मैं विश्वास करना चाहती हूँ 
कि तुम्हारी मुस्कान के पीछे 
नही है कोई दुरभि-सन्धि ।
कि तुम बातोंबात 
बैठे साथ-साथ
निर्वासित कर मुझे रातोंरात 
नही मनाओगे विजय का उत्सव 

मुझे सन्देह या अनुमान में 

रहने की आदत नही है 
असहज होजाती हूँ झूठ से । 
इसलिये..
मैं पूरी तरह आश्वस्त होना चाहती हूँ
थामकर सच का हाथ
निभाना चाहती हूँ रिश्तों को 
सहजता  और निश्चिन्तता के साथ ।
मुझे आश्वस्त करो ,  
कि तुमने जो मुझमें विश्वास दिखाया 
अपनत्त्व जताया 
एक पूरा सच है ।

अधूरा सच गले नही उतरता 
रूखी-सूखी रोटी की तरह ।
मैं जीना चाहती हूँ ,
विश्वास में---पूरे सच के साथ । 
विश्वास कि ,
'मैं तुम पर विश्वास कर सकती हूँ 
आँखें बन्द करके भी ।
या...विश्वास कि ,
मुझे तुम पर विश्वास नही करना चाहिये ,
खुली आँखों से भी..।

शुक्रवार, 18 अप्रैल 2014

'कुछ ठहरले और मेरी जिन्दगी '

बावज़ूद इसके कि हम जैसी चाहते हैं ज़िन्दगी अक्सर वैसी नही होती उसे बलात् ही खूबसूरत मानने , बनाए रखने या फिर वैसी कल्पना करने से पीछे नही हटते । मेरी कविताएं भी मेरे ऐसे ही कुछ प्रयासों का परिणाम रही हैं । यह गीत--संग्रह 'कुछ ठहरले और मेरी जिन्दगी' ऐसी ही कुछ रचनाओं का संकलन है जो अभी-अभी ज्योतिपर्व प्रकाशन से आया है । 
कहते हैं कि कविता के लिये संवेदना व भावों की तीव्रता ही पहला आधार है । जो लोग पीडा की नदी में डूब कर कविता लिखते है वे ही पूर्ण अभिव्यक्ति का किनारा पाते हैं । ऐसी नदी से गुजरते हुए ही अनेक कवियों ने कालजयी कविताएं लिखी हैं और लिख रहे हैं ,लेकिन अपने इन गीतों के लिये मेरा ऐसा दावा बिल्कुल नही है । विशेषकर जब आज की विसंगतियों व पीडाओं को प्रखरता से व्यक्त करने में मुक्त-छन्द अधिक सफल और प्रभावशाली सिद्ध हो रहा है । मैंने छन्दमुक्त रचनाएं भी लिखी हैं जिनमें से कुछ आपने यहाँ पढी भी हैं ( संग्रह के कुछ गीत भी )। इस संग्रह में केवल गीत व छन्दबद्ध कविताएं ही हैं । 
वैसे तो मेरे पास (बाल-कविताओं के अलावा) लगभग तीन सौ पचास गीत व कविताएं हैं ,लेकिन उनमें अधिकतर रचनाएं व्यक्तिगत प्रलाप मानी जा सकतीं हैं । 
प्रतिकूल हवाओं में जीने की विवशता ने सृजन का कक्ष तो तलाश लिया पर उसमें खिडकियाँ नहीं थीं । अपने ही अँधेरे में घिर कर, उजाले की कल्पनाएं करते-करते लिखी गईं कविताओं में से इन गीतों को मैंने प्रकाशन योग्य समझा , लेकिन मेरी मान्यता कितनी सही है इसे आप सुधी पाठक ही तय कर सकते हैं ।
मेरे विचार से कोई कवि या लेखक जन्म से इतना पटु नही होता । उसकी प्रतिभा को प्रेरणाएं निखारतीं हैं । अवसर तराशते हैं । काव्य-साहित्य का अध्ययन एक दिशा देता है । मेरे पास यह सब नही रहा । या कि मैंने इस दिशा में कभी सोचा ही नही । 
यही कारण है कि मेरे ये गीत मेरी संवेदना के साक्षी तो हैं जिनमें कुछ पाने की छटपटाहट है ,और न पा सकने की तिलमिलाहट भी , विरोध की आँच है और प्रेम की फुहार भी, लेकिन ये गीत हिन्दी कविता के इतिहास में कोई कीर्तिमान बनाएंगे, ऐसी सुन्दर कल्पना मैंने नही पाली है । हाँ कहीं न कहीं पाठकों के हदय का कोई कोना छू सकेंगे ऐसी आशा तो रखती ही हूँ । इतनी सी उपलब्धि की अपेक्षा भी । यहाँ शीर्षक गीत है ,जो मैंने 1994 में लिखा था---
कहीं तो कोई पुकारेगा हमें 
कुछ ठहरले और मेरी जिन्दगी 
कुछ सँवरले और मेरी जिन्दगी ।

बोझ ढोते सफर कितना तय किया 
भूल जा सब ,क्या मिला है क्या दिया 
याद रखने को बहुत है एक पल 
जो मधुर अहसास में तूने जिया ।
स्वप्न,संभ्रम आस में विश्वास में 
कुछ बहल ले और मेरी जिन्दगी ।

फिक्र क्या है हो न हो चाहे सबेरा ।
अजनबी है ,इसलिये बोझिल अँधेरा 
हौसला रखना पडेगा कुछ तुझे 
और कुछ देंगी हवाएं साथ तेरा ।
हार कर यूँ लौट जाना बुजदिली है 
सोच, करले गौर मेरी जिन्दगी ।

दर्द को मत बाँट यूँ मायूस होकर
यह मिला उम्मीद और अपनत्त्व खोकर 
ना चुभन से डर ,जरा अभ्यस्त हो ले 
निकलते हैं शूल अब तो आम बोकर 
मीत ही अब मुँह छुपाकर वार करते 
कुछ सबक ले और मेरी जिन्दगी । 

(संग्रह एक दो दिन बाद किताबघर जिन्सीपुल ग्वालियर पर देखा जा सकेगा । )

शनिवार, 5 अप्रैल 2014

यों मिलना जिन्दगी से


वक्त को काटना-- 
उस तरह नही जिस तरह 
किसान काटता है पकी फसल 
या दर्जी काटता है कपडा 
बल्कि ,जिस तरह काटता है चूहा 
कागज या लकडी को--
यकीनन ,जीना नही 
बस जीने का निर्वाह करना है 
व्यर्थ सा ।
जाने क्यों 
अपने लिये ,मुझे लगता है 
कुछ ऐसा ही ।

मिलती हूँ जिन्दगी से ,  
उस तरह नही ,
जिस तरह मिलती है 
ससुराल से आई बेटी ,
अपनी माँ से 
बहुत दिनों बाद । 
बल्कि ,जिस तरह 
अपरिचित चौराहे की भीड से 
निकल भागने के लिये 
रास्ता पूछता है कोई  
किसी दुकानदार से ।

मैं जल की गहराई पर 
लिखना चाहती हूँ
एक गहरी कविता 
नदी में उतरे बिना ही 
डरती हूँ डूबने से ।
देखती हूँ लहरों को 
उजाडते हुए अपना ही घर 
गैरों की तरह  
दूर पुल से गुजरते हुए 
यों अपने आप से 
बचकर निकलना तो
जीना है झूठ के साथ 
सिर्फ हवाओं में ।