शनिवार, 5 अप्रैल 2014

यों मिलना जिन्दगी से


वक्त को काटना-- 
उस तरह नही जिस तरह 
किसान काटता है पकी फसल 
या दर्जी काटता है कपडा 
बल्कि ,जिस तरह काटता है चूहा 
कागज या लकडी को--
यकीनन ,जीना नही 
बस जीने का निर्वाह करना है 
व्यर्थ सा ।
जाने क्यों 
अपने लिये ,मुझे लगता है 
कुछ ऐसा ही ।

मिलती हूँ जिन्दगी से ,  
उस तरह नही ,
जिस तरह मिलती है 
ससुराल से आई बेटी ,
अपनी माँ से 
बहुत दिनों बाद । 
बल्कि ,जिस तरह 
अपरिचित चौराहे की भीड से 
निकल भागने के लिये 
रास्ता पूछता है कोई  
किसी दुकानदार से ।

मैं जल की गहराई पर 
लिखना चाहती हूँ
एक गहरी कविता 
नदी में उतरे बिना ही 
डरती हूँ डूबने से ।
देखती हूँ लहरों को 
उजाडते हुए अपना ही घर 
गैरों की तरह  
दूर पुल से गुजरते हुए 
यों अपने आप से 
बचकर निकलना तो
जीना है झूठ के साथ 
सिर्फ हवाओं में ।

10 टिप्‍पणियां:

  1. आज तो दार्शनिक हो गईं आप! साक्षी भाव की तरह स्वयम को देखना... मैं भी सोचता हूँ बीतते समय के साथ कि मैंने जीवन जिया है या घुन की तरह वक़्त काटा है... गुलज़ार साहब की तरह उस मोड़ पे बैठा हूँ और हर आते जाते मुसाफिर से पूछ रहा हूँ ज़िन्दगी का पता... कितना कुछ रह गया अनकहा. एक और मौका मिलता तो कितना कुछ बदल पाते हम.. क्या सचमुच बदल पाते??
    आज आपकी कविता ने मुझे ख़ुद से मिला दिया. विश्वास कीजिये, अभी-अभी मित्र चैतन्य से फ़ोन पर इसी तरह के ख्याल साझा किया और आपकी यह कविता मिली!! आभार आपका!

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    1. यकीनन बदल पाते भाई ।
      हालाँकि कुछ तो अब भी कर ही सकते हैं क्यों कि कुछ तो अभी शेष है । जो छूट गया ( बहुत कुछ) सो गया । उसका विचार करना बेकार ही है । आजकल यही कुछ सोच में है ।

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  2. प्रतीकों के माध्यम से बेहद प्रभावी अंदाज़ में लिखी लाजवाब रचना ...
    सलिल जी से पूरा इत्तेफाक रखता हुआ ... बधाई इस उम्दा काव्य के लिए ...

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  3. गहरा लिखने के लिये तो गहरे उतरना ही पड़ता है।

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  4. जीवन को उसकी गहराइयों में जीना ही संतोष देता है...

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  5. हर किसी के लिए सच्चाई है यह.. बिंब बहुत सुंदर हैं, मन में उतर जाने वाले। शुक्रिया..

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  6. गहरे उतर कर मोती निकाल रही हैं आप तो ,शब्दों में दमक है उसी आभा की !

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  7. वाह...! बेहद ख़ूबसूरत...!!
    आपकी कविता या पोस्ट को पढने के बाद उसपर सलिल चचा के कमेन्ट को पढ़ने का अपना अलग ही एक आनंद है..!

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