कैसी व्यस्तता है कि ,
अब फुरसत नही मिलती
यह देखने की कि
बुलबुल कैसे चुगा रही है दाना
अपने बच्चों को ।
कि नीम की टहनियों में फूटते पल्लव
कबकी सूचना दे चुके हैं
वसन्त के आने की ।
रसखान और घनानन्द
हो चुके हैं निरानन्द
अब हुसैन बन्धुओं के भजन
और गजलें गुलाम अली की
भरी रखीं हैं बैग में जाने कबसे ।
मेरा ध्यान उलझा रहता है अक्सर
कि वे नही सोचते मेरे लिये वैसा
जैसा मैं सोचती हूँ उनके लिये
नही होता अहसास
लाली के उल्लास का
नई साडी पहनकर
जो उसके पति ने खरीदी है
अपनी पहली कमाई से ,
और वह खिल उठी है
वसन्त सी ही..।
मेरी सोच अटकी रह जाती है
सूखी झरबेरियों में ।
कि बूढी माँ हताश है ,
अब बेटा पहचान नही पाता
उसकी आँखों की भाषा का
एक भी अक्षर
जैसे कोई निरक्षर ।
लेकिन आता है उसे जोडना
माँ की पेंशन के महीने
उँगलियों पर ही ।
वसन्त का स्वागत करने वाले पेड
अब हैं कहाँ ।
सभ्यता व उन्नति की भेंट चढे हैं
यहाँ--वहाँ ।
इससे पहले कि बूढे बरगद में
कोंपल बनकर आए वसन्त ,
चल पडता है लू का चलन ।
अखबार फैला देता है
सुबह-सुबह आँगन में
घोटालों ,व्यभिचार और स्वार्थ के परनालों का
कीचड ,मलबा..।
ढेर सारा खून....
रिश्तों का ,ईमान और आदर्शों का
उसे धोने के लिये
कहाँ से लाऊँ पानी
सूखे पडे है नदी, नहर, तालाब ।
नल में पानी नही आता आजकल..।
गलियों सडकों से उठते नारों के शोर में
दब जाता है चिडियों का कलरव
चाय को कडवी बना देता है
अपनों के बेगानेपन का अनुभव।
नही रहा भरोसा किसी के दावों पर
अपने ही भावों पर
वसन्त ,तुम आजाओ
गमले के गुलाब में ही
छा जाओ मन के कोने-कोने में
मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है ।
अब फुरसत नही मिलती
यह देखने की कि
बुलबुल कैसे चुगा रही है दाना

कि नीम की टहनियों में फूटते पल्लव
कबकी सूचना दे चुके हैं
वसन्त के आने की ।
रसखान और घनानन्द
हो चुके हैं निरानन्द
अब हुसैन बन्धुओं के भजन
और गजलें गुलाम अली की
भरी रखीं हैं बैग में जाने कबसे ।
मेरा ध्यान उलझा रहता है अक्सर
कि वे नही सोचते मेरे लिये वैसा
जैसा मैं सोचती हूँ उनके लिये
नही होता अहसास
नई साडी पहनकर
जो उसके पति ने खरीदी है
अपनी पहली कमाई से ,
और वह खिल उठी है
वसन्त सी ही..।
मेरी सोच अटकी रह जाती है
सूखी झरबेरियों में ।
कि बूढी माँ हताश है ,
अब बेटा पहचान नही पाता
उसकी आँखों की भाषा का
एक भी अक्षर
जैसे कोई निरक्षर ।
लेकिन आता है उसे जोडना
माँ की पेंशन के महीने
उँगलियों पर ही ।
वसन्त का स्वागत करने वाले पेड
अब हैं कहाँ ।
सभ्यता व उन्नति की भेंट चढे हैं
यहाँ--वहाँ ।
इससे पहले कि बूढे बरगद में
कोंपल बनकर आए वसन्त ,
चल पडता है लू का चलन ।
अखबार फैला देता है
सुबह-सुबह आँगन में
घोटालों ,व्यभिचार और स्वार्थ के परनालों का
कीचड ,मलबा..।
ढेर सारा खून....
उसे धोने के लिये
कहाँ से लाऊँ पानी
सूखे पडे है नदी, नहर, तालाब ।
नल में पानी नही आता आजकल..।
गलियों सडकों से उठते नारों के शोर में
दब जाता है चिडियों का कलरव
चाय को कडवी बना देता है
अपनों के बेगानेपन का अनुभव।
नही रहा भरोसा किसी के दावों पर
अपने ही भावों पर
वसन्त ,तुम आजाओ
गमले के गुलाब में ही
छा जाओ मन के कोने-कोने में
मुझे तुम्हारी बहुत जरूरत है ।