शनिवार, 13 जुलाई 2024

पलायन

 पलायन

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मैं कभी कभी सोचती हूँ कि

मुझे मिलना चाहिये कभी खुद से भी .

आमतौर पर मैं नहीं मिलती .

रहती हूँ दूर दूर ही .

खुद से मिलकर मुझे

खुशी नही होती जरा भी .

खेद होता है देखकर कि

मैं असल में जी रही हूँ हवाओं में

जबरन हँसती रहती हूँ

सुनकर बेमतलब के चुटकुले .

पाले हूँ खूबसूरती का अहसास

दूसरों के दर्पण में .

इन्तज़ार करती हूँ

बेवज़ह उसका

जिसने आज तक

तारीख तय नहीं की

अपने आने की .

भूली-भटकी सी मैं

वक्त गुज़ारती रहती हूँ

दूर आसमान में

किसी तारे को देखते हुए .

सुना था कभी कि खुद से मिलना

मिलना है जगत-जीवन की सच्चाई से ,

पर मैं घबराती हूँ

एक गहरी अँधेरी सुरंग में जाने से .

मोती पाने की उत्कट लालसा होने के बाबज़ूद

डरती हूँ डूबने से

और मुँह मोड़कर लौट जाती हूँ

खुद के पास आकर

अपने लिये ही परायी मैं

आज तक नहीं मिल सकी हूँ

गले लगकर खुद से  .

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गुरुवार, 6 जून 2024

पुस्तक विमोचन --मनमर्जी का आनन्द भी और संकट भी

फुनगियों पर डेरा से अब आप अपरिचित नहीं होंगे ,ऐसा मैंने मान लिया है फिर भी पुनः बता देती हूँ यह श्वेतवर्णा से सद्यप्रकाशित पुस्तक है जो अर्चना चावजी के विचार और वन्दना अवस्थी की प्रेरणा से साकार हुए समूह गाओ गुनगुनाओ शौक से की सात वर्षीय गतिविधियों का लेखा है . समूह का नाम बेशक गीत गाने गुनगुनाने को ही प्रस्तुत करता है लेकिन उसमें तमाम अन्य गतिविधियाँ ( चित्र ,कविता , गीत ,संस्मरण , पत्र लेखन लघुकथाएं आदि )भी चलती रही है इसलिये यह पुस्तक साधारण नहीं बल्कि विविध कलाओं में विशिष्टता पाई साहित्यकार व ब्लागर सखियों की रचनात्मकता का विशिष्ट उदाहरण है .

अर्चना की इच्छा व ऋता पूजा व सभी विदुषियों के सम्मिलित प्रयास से किताब प्रकाशित तो होगई . सबको भिजवा भी दी गई लेकिन अर्चना और हम सभी के मन में उसके विमोचन की प्रबल चाह अभी शेष थी . विचार तो यह था कि किसी ऐतिहासिक या ऐसी जगह जहाँ सभी जाना चाहें सब पहुँचकर इस कार्य को अंजाम दें पर वह संभव नहीं हो पाया . क्योंकि मैं , ऋता शेखर और अर्चना फिलहाल बैंगलोर में ही हैं इसलिये हमने तय किया कि तीनों ही सबको ऑनलाइन बुलाकर विमोचन सम्पन्न करें . उसके लिये जगह तय करने में एक सप्ताह लगा . तय हुआ कि क्यों न हम किसी पार्क के सुहाने वातावरण में इस कार्य को सम्पन्न करें . इसके लिये कब्बन पार्क को चुना . दिनांक 2 जून 2024 को हम पूरी तैयारी के साथ कब्बन पार्क में पहुँच गईं . रविवार होने के कारण पार्क  में बहुत भीड़ थी . एक बार तो लगा कि हमने जगह चुनने में गलती करदी . लेकिन एक जगह हमने अपना आसन लगा ही लिया . ऋता को ऐसी व्यवस्थाओं में बड़ी महारत हासिल है . विमोचन के लिये सारी आवश्यक वस्तुएं सरस्वती जी की तस्वीर फूल रोली चन्दन आदि ऋता ही लेकर आईँ . तीन बजे समूह की सभी विदुषी सखियाँ ऑनलाइन उपस्थित हुईं . कुछ सखियाँ कारण वश नहीं आ सकीं , निश्चित ही उनकी कमी बहुत अखरी . साढ़े चार बजे तक हम सबने पुस्तक विमोचन के साथ आवश्यक और तय कार्यक्रम के अनुसार अपने अपने विचार व्यक्त किये .पुस्तक विमोचन का यह आयोजन निश्चित ही बड़ा अनौखा व विशिष्ट था . हमारी मनमर्जी का यह एक बेहद खास और आनन्दभरा अनुभव था .


मन में उसी आनन्द को सहेजे लगभग छह बजे ऋताशेखऱ मैट्रो से अपने घर चली गईं . वहाँ से अर्चना का घर बहुत दूर था . आधी दूर तक वह मेरे साथ ही सन सिटी तक आने वाली थी फिर वहां से सरजापुर रोड स्थित घर . मैं टैक्सी बुक करने का प्रयास कर रही थी लेकिन मेरे मोबाइल फोन पर 'डेस्टीनेशन' नहीं आ रहा था .प्रशान्त ने कहा कि मम्मी आप वहीं खड़ी रहें .मैं कैब बुक कर देता हूँ ,लेकिन इस समय थोड़ा समय लग सकता है .ट्रैफिक बहुत ज्यादा है . उसी समय एक सीधा सज्जन दिखने वाला ऑटो-ड्राइवर हमसे चलने का आग्रह करने लगा . हमने उसे टालने के लिये कुछ कम किराया कहा तो वह उसी पर चलने तैयार होगया मानो उसे इसकी बहुत ज़रूरत थी . मालूम नहीं जल्दी निकलने का विचार था या उस ऑटो ड्राइवर का आग्रह या फिर तेज बारिश का खतरा , हमने जल्दी से वह ऑटो ही किराए पर ले लिया . ऑटो कुछ मीटर चला ही था कि प्रशान्त ने टैक्सी बुक करवा दी . लेकिन अब ऑटो से उतरना हमें उस ड्राइवर के साथ नाइन्साफी लगा . अस्तु प्रशान्त को कैब कैंसल करने को कह दिया . आप सोच रहे होंगे कि इतनी सी बात का इतना हंगामा क्यों , तो असल में इसके आगे जो हुआ वह आसानी से भुला दिया जाने वाला प्रसंग नहीं है . यह हमारी मनमर्जी का यह दूसरा उदाहरण था .लेकिन पहले से उलट बड़ा ही खतरनाक . 

प्रशान्त ने घर से चलते समय भी और बीच में भी फोन पर कहा कि जल्दी निकल आना मम्मी  शाम को बहुत तेज बारिश हो सकती है ..हमने इस बात को गंभीरता से नहीं लिया  लेकिन हुआ वही कि एक किमी भी न चले कि बारिश शुरु होगई . बारिश अच्छी लगती है लेकिन घर में ही . बाहर मुझे बहुत डर लगता है . भीगने का नहीं ,बादलों के कर्णविदारक तुमुल घोष और रोष दिखाती बिजली का .ऑटो में बौछारों से बचाव की कोई तैयारी नही थी . यानी हमें एक घंटे का रास्ता बूँदों के प्रहार सहते हुए ही तय करना था . हम इसी चिन्ता में थीं कि ऑटो वाले ने एक एक जगह सी एन जी के लिये ऑटो खड़ा किया और हमारे अधिक से अधिक तीस सेकण्ड बाद ही पीछे बड़ी जोर की आवाज व चीख पुकार सुनाई दी . ऑटो वाले ने घबराकर कहा—"हे वैंकटेश्वरा रक्षा करो। दो तीन तो गए .

भैया आप किसकी बात कर रहे हैं ?”--अर्चना ने पूछा . उसकी बातों से पता चला कि हमारे पीछे लगभग पचास साठ कदम पर खड़ा पेड़ एक ऑटो पर गिर पड़ा था . ऑटो पूरी तरह पिचक गया था . यह सचमुच भयानक था . अगर हम बीस-तीस सेकण्ड लेट होते तो वही हश्र हमारा होता यह सोचकर हृदय जोर से धड़क उठा . उस दर्घटना में लोग जान से नहीं गए होंगे तो गंभीर रूप से घायल ज़रूर हुए होंगे . उन लोगों के बारे में सोचना भी कम दुखद नहीं था .

इसके बाद बारिश बहुत ज्यादा तेज होगई . हमारे कपड़े पूरी तरह भीग गए . तेज हवा पसलियों तक चोट कर रही थी .लेकिन हमें घर पहुँचने की चिन्ता थी . बारिश मूसलाधार थी . सड़क पर पानी बढ़ता जा रहा था .पास से गुजरती कारें हमें सिर तक भिगोने का उपक्रम कर रही थीं . ड्राइवर सचमुच सज्जन था . फोन पर उसका बेटा मना करता रहा –- पापा गाड़ी मत चलाओ .” लेकिन वह गाड़ी को लगातार भगाता रहा . इधर प्रशान्त काफी परेशान था . लेकिन हम गीत गा गाकर जैसे जान बच जाने का जश्न मान रही थीं और ईश्वर के प्रति कृतज्ञता का अनुभव कर रही थीं .साथ ही अपनी तमाम आशंकाओं को परे झाड़ रहीं थीं .

जिस समय हमें सरजापुर क्रॉस वाला ब्रिज दिखा , हमने चैन की साँस ली . अर्चना का घर अभी बहुत दूर था . इसलिये वह मेरे साथ ही कुछ देर के लिये आगई . हमारे कपड़े तरबतर थे ., तुरन्त बदले . सुलक्षणा ने बढ़िया चाय बनाकर दी .

हम निश्चित ही एक बड़े संकट को पार कर आई थीं . तेज बारिश में ऑटो बन्द भी हो सकता था ,तेज हवा में पलट भी सकता था . और ड्राइवर हमें कहीं भी उतारकर भाग  सकता था या चलने से मना कर सकता था .

लेकिन जब कोई काम हम अपनी मर्जी व जिम्मेदारी के साथ करते हैं तब कोई और दोषी नहीं होता . इसलिये कठिनाई सहने और पार पाने की शक्ति भी स्वतः ही आती है . हमने ड्राइवर को धन्यवाद कहा . उसे पूरा उचित किराया दिया . तब तक बारिश का आवेश भी कम होगया .

खैर यह सब छोड़ तस्वीरों से आप भी हमारे आनन्द का अनुभव कर सकते हैं .











 

गुरुवार, 30 मई 2024

अपने हिस्से की धूप

 कल फेसबुक पर अनायास ही एक समाचार सामने आया –

राहुलराज विश्वकर्मा संगीत के क्षेत्र में 2024 के शिखर-सम्मान से सम्मानित .”हृदय पुलक और विस्मय से भर गया. लगन ,अविराम परिश्रम और अभ्यास कहाँ से कहाँ पहुँचा देता है किसी को . एक सीधे सादे ,अपने वज़ूद के लिये संघर्षरत राहुल को आत्मविश्वास के साथ सम्मान लिये देखना कितना सुखद है . 

राहुल विश्वकर्मा ! शासकीय जीवाजीराव उ.मा.वि. में केवल दो वर्ष रहा मेरी कक्षा का छात्र . छात्र सभी प्रिय होते हैं लेकिन कुछ छात्र अपनी जिज्ञासा ,उत्कण्ठा और विनम्रता के कारण सदा के लिये हृदय पर की अमिट छाप छोड़ जाते हैं . राहुल उन्ही में से एक था (है) 

2013 के जुलाई में एक सौम्य और सीधा-सादा छात्र मेरी कक्षा में इस परिचय के साथ प्रविष्ट हुआ कि वह विदिशा के एक गाँव मथुरापुर से यहाँ पढ़ाई के साथ संगीत की शिक्षा लेने के उद्देश्य से आया है एक गीत पर मुख्यमंत्री जी से पुरस्कृत भी हो चुका है. वहाँ के जिलाधिकारी और एक पत्रकार के सहयोग से यहाँ पहुँचा है .मेरे लिये सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात थी उसका संगीत से जुड़ा होना . उन दिनों विद्यालय में मुझे सांस्कृतिक और साहित्यिक गतिविधियों का प्रभार मिला हुआ था जिसमें वर्षभर आयोजित होने वाले साहित्य व संगीत विषयक प्रतियोगिताएं, बालरंग, राष्ट्रीय पर्वों पर छात्रों की प्रस्तुतियाँ आदि की तैयारियाँ करवानी रहती थी . लगभग 12 कक्षाओं में गाने वाले छात्रों को चुनना बड़ा श्रमसाध्य था .कई छात्रों को सुर की समझ थी . गा भी लेते थे पर वे सामने नहीं आना चाहते थे .और कई उत्साह के साथ तैयार रहते लेकिन वे सुर नहीं पकड़ पाते थे . गीत आदि तैयार करवाने में बहुत मेहनत और समय लगता था . राहुल के आने से चीजें काफी आसान होगई . वह बड़ा उत्साही और विनम्र था (है) .वह हर कार्यक्रम में भाग लेने उत्साहित रहता था लेकिन मुझे वह कहीँ ठहर गया सा लगता था . जहाँ आगे सीखने की राह या तो बन्द हो जाती है या बहुत छोटी और सीमित होजाती है . शायद पहले ही मंच पर मिली प्रशंसा और मुख्यमंत्री जी द्वारा मिले पुरस्कार का प्रभाव था जिसने उसे एक जगह रोक रखा है .उसकी जिज्ञासा और उत्साह को देखते हुए यह ठहराव ठीक नहीं था . 

हालाँकि मैने संगीत की की कोई शिक्षा नहीं ली है . विद्यालय में मेरी स्थिति , निरस्तपादपे देशे एरण्डोऽपि द्रुमायते। जैसी थी अर्थात् रेगिस्तान में जहाँ वृक्ष नहीं होते एरण्ड को ही वृक्ष मान लिया जाता है .लेकिन मुझे सुर की बारीकियों की समझ तो थी . गाकर बता भी सकती थी . यह बात तो सभी में जन्मजात होती ही है .

स्वतंत्रता दिवस पर गाने के लिये उसने एक काफी सूक्ष्म उतार चढ़ाव वाला देशभक्ति गीत चुना . मैंने पाया कि सुर तो सही हैं लेकिन उसमें उतार चढ़ाव और मोड़़ की बारीकियाँ नहीं हैं ,जो किसी भी गीत को खूबसूरत और कर्णप्रिय बनाती हैं .काफी कोशिश के बाद भी, जैसा मैं चाहती थी, वह नहीं गा पा रहा था . मैंने कुछ खींज के साथ कहा –राहुल सबसे पहले तुम इस गलतफहमी से बाहर आओ कि तुम अच्छा गाते हो .अभी तुम्हें सुधार की बहुत ज़रूरत है .अगर आगे जाना है तो खुद को लगातार अभ्यास के लिये तैयार करो .

तमाम उम्मीदें पालकर आए बच्चे के लिये यह बात काफी कठोर थी , इसे मैं आज भी महसूस करती हूँ लेकिन आगे जाने के लिये वह ज़रूरी था . प्रशंसा के व्यामोह में हम अक्सर उलझकर रह जाते हैं . उस समय मेरी बात सुनकर वह कुछ मायूस दिखा लेकिन बिना किसी हताशा के उसने सुधार व अभ्यास जारी रखा . 

उसकी इस बात से मैं बहुत प्रभावित हुई .यह बात साधारण नहीं थी बल्कि यह उसके उज्ज्वल भविष्य का स्पष्ट संकेत था . वह गीत की रिकार्डिंग सुनता रहा और मुझे गाकर सुनाता रहा .और अन्ततः उसने वह गीत बड़े ही सधे हुए स्वर में गा ही लिया और सबने ,खासतौर पर मैंने बड़े सुकून से सुना . माधव संगीत विद्यालय में वह विधिवत् शिक्षा ले ही रहा था . धीरे धीरे उसकी आवाज में इतना आत्मविश्वास और निखार आ गया कि एक प्रतियोगिता में हमने परिणाम के अन्तिम निर्णय को चुनौती ही दे डाली .  


यह सत्र 2014-15 की बात है . बालरंग की जिलास्तर प्रतियोगिता थी . लेकिन सबसे अच्छा गाने के बाद भी उसे प्रथम स्थान नहीं मिला . संभाग स्तर पर केवल प्रथम को ही जाना था . वह निर्णय गले नहीं उतर रहा था . मैने प्राचार्य से कहा तो वे बोलीं "क्या तुम्हें यकीन है कि निर्णय़ पक्षपात पूर्ण था ?" मैंने कहा --" जी मैडम शत प्रतिशत ."मैडम ने जिलाशिक्षाधिकारी को पत्र लिखा . अच्छा यह हुआ कि उन्होंने हमारी शिकायत पर गौर किया . उन्होंने एक टीम बनाकर पुनः प्रतियोगिता करवाई .उसमें राहुल विजयी रहा और मेरा विश्वास भी . उसने संभाग स्तर पर प्रथम आकर राज्यस्तरीय प्रतियोगिता में भोपाल में भी प्रस्तुति दी थी .  

राहुल के गुणों में मुझे विनम्रता लगन और परिश्रम सबसे अधिक मिले . इन्हीं गुणों ने उसे आज इस मुकाम तक पहुँचाया है .

कहते हैं शिक्षक छात्रों को एक सही दिशा देते हैं .लेकिन मैं कहना चाहती हूँ कि अच्छे छात्रों के कारण ही शिक्षक को अपनी पहचान ,सही सम्मान और सच्चा प्रतिफल मिलता है ..

राहुल ने ग्वालियर माधव संगीत विद्यालय ग्वालियर से अपनी संगीत शिक्षा पूर्ण की. वहाँ उसके गायन में लगातार निखार आता रहा . मेरी कक्षा में ,और स्कूल में भी वह केवल दो वर्ष रहा इसलिये उसके निर्माण या उपलब्धियों में मेरा कोई खास सहयोग नहीं रहा लेकिन वह मानता है कि मेरी नसीहतों ने ही उसे सही राह दी है .मुझे यह एक उपलब्धि जैसा लगता है लेकिन वास्तव में राहुल अभावों से जूझकर , मुश्किलों को परास्त कर अपनी लगन ,परिश्रम और जिज्ञासा के कारण ही यहाँ तक पहुँचा है . इस बात पर मुझे अपनी बाल कहानी मुझे धूप चाहिये .’ याद आती है . जिसमें एक छोटा पौधा किस तरह धूप की चाह में सारे पौधों से ऊपर निकल जाता है . धूप आपको माँगने से नहीं मिलती . कोई देना भी नहीं चाहता अपने हिस्से की धूप खुद हासिल करनी होती है . राहुल ने अपने हिस्से की धूप खुद अर्जित की है. आज वह कितने ही छात्रों को संगीत की शिक्षा दे रहा है . उसे शिखर सम्मान का समाचार पढ़कर हृदय विस्मय ,गर्व और पुलक से भर गया है .

हमेशा खुश रहो राहुल . ऐसी उपलब्धियाँ तुम्हें मिलती रहें . बस याद रखना –

इस पथ का उद्देश्य नहीं है

श्रान्त भवन में टिक रहना

किन्तु पहुँचना उस मंजिल तक

जिसके आगे राह नहीं .  

सस्नेह तुम्हारी दीदी 

 


गुरुवार, 16 मई 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा --अन्तिम भाग


7 मई को श्रीमद्भागवत् का विधिविधान से पारायण हुआ . नव मुकुलित सुमन जैसे प्रियदर्शी कथावाचक शास्त्री श्री आकाश उनियाल जी जितने पौराणिक ग्रन्थों के ज्ञाता हैं उतने ही सरल और विनम्र भी हैं .शाम को वे हमारे साथ सहज बैठकर पुत्रवत् बात करते थे . उर्मिला के विशेष स्नेहभाजन आकाश इन आठ दिनों में मेरे भी उतने ही प्रिय बन गए . उनसे भागवत् कथा विषयक कुछ जिज्ञासाओं का समाधान हुआ . देखा जाय तो आकाश अभी अध्ययन रत हैं लेकिन जिस प्रगल्भता और आत्मविश्वास के साथ उन्होंने कथावाचन किया वह उनके उज्ज्वल और यशस्वी भविष्य का निर्धारण सुनिश्चित करता दिखाई देता है .



सुस्वादु प्रसादी के पश्चात् हम सब एक बार फिर उर्मिला के साथ भगवान् बद्रीविशाल के दर्शन के लिये गए . उर्मिला ने तय किया था कि आयोजन सफलता पूर्वक सम्पन्न होने के बाद ही दर्शन करने जाएंगीं . उर्मिला घुटनों के दर्द से बहुत परेशान रहती हैं लेकिन उसका आत्मविश्वास हर मुश्किल में राह बना देता है . यह भी सच है कि किसन जैसा भाई होना भी एक बड़ी नियामत है जीवन की . मैंने बहिन के लिये इस तरह का समर्पण कहीं किसी भाई में नहीं देखा .बद्रीनाथ धाम में यह आयोजन भाई किसन के बिना सम्भव नहीं था . उनकी पत्नी ऊषा भाभी भी बराबर सहयोग करती रही . सबसे बड़ी बात कि उन्होंने मेरा भी बराबर ध्यान रखा .कड़कड़ाती  सर्द सुबह जबकि रजाई से बाहर निकलने के लिये सोचना पड़ रहा था ,जिस तरह  किसन हमारे लिये गरम पानी और चाय लाते थे मैं कभी नहीं भूल सकती .यह उल्लेख मैं इसलिये कर रही हूँ क्योंकि हम तीसरी मंजिल पर थे और चाय पानी खाना आदि की व्यवस्था नीचे थी .इस प्रवास में केवल यही बात अखर सकती थी अगर भाई किसन और रवि इतना ध्यान न रखते .
किसन भाई कुछ वर्ष मेरे छोटे भाई सन्तोष के सहपाठी रहे थे .वे भी किसी विभाग में इंजीनियर हैं .किसन के अलावा पूरे आयोजन में रवि का भी बड़ा सहयोग रहा .वह कुशल ड्राइवर तो है ही इन्सान भी अच्छा है .विनम्रता और अपनेपन के साथ काम करता रहा .इसके पीछे उर्मिला और किसन की आत्मीयता भी है . इनके बीच रेखा को कैसे भूल सकती हूँ .छोटा कद ,दुबली पतली , विचारों से चालीस की उम्र में ही सत्तर साल जैसी गंभीरता और बड़प्पन . बहुत कम बोलने वाली ,समझ में हमसे भी आगे लेकिन बहिन उर्मिला के लिये पूर्ण समर्पित ..

देवप्रयाग

8 मई को जब हमने उस पावन धाम से विदा ली तब मन में घर लौटने का उल्लास तो था लेकिन एक कसक भी थी कि आठ दिन बीत भी गए ! क्या सचमुच हम ,..खास तौर पर मैं पूरी तरह इन्हें आत्मसात् कर पाई ? हम जाने क्यों वर्त्तमान को छोड़ अतीत या भविष्य की अँधेरी गलियों में कुछ खोजने का उपक्रम करते रहते हैं और खुद से ही अकारण जूझते रहते हैं .वर्त्तमान अनजिया, अनछुआ सा ही गुज़र जाता है फिर अतीत बनकर सालता या आनन्दित करता रहता है . शायद ये आठ दिन भी कहीं भटकते हुए गुज़र गए प्रतीत हो रहे थे .पर आज उन्हीं को याद करते हुए एक प्यारा अनुभव सहेजे हूँ . ये पल हमारी पूँजी जैसे होते हैं .


लौटते हुए हमारे पास समय था इसलिये आराम से ठहरकर पंचप्रयाग (विष्णुप्रयाग नन्दप्रयाग रुद्रप्रयाग , कर्ण प्रयाग और देवप्रयाग) के दर्शन किये . प्रयाग यानी दो या अधिक नदियों का संगम . इस बार भी अनन्त सलिला अलकनन्दा हमारे साथ थी .हम उसकी उँगली थामे चल रहे थे .बीच में गंगा की कोई धारा अलकनन्दा से मिलने आजाती है और वात्सल्यमयी अलकनन्दा दोनों बाहें पसारकर उसे अपने आँचल में समा लेती है .इस प्रकार विष्णुप्रयाग में धौली गंगा , नन्दप्रयाग में नन्दाकिनी नदी,, कर्णप्रयाग में पिंडर नदी रुद्रप्रयाग में मन्दाकिनी नदी मिलकर अलकनन्दा को और समृद्ध बनाती हैं . देवप्रयाग में अपनी चारों बहिनों के साथ अलकनन्दा भागीरथी से मिल जाती है . भागीरथी गंगोत्री से निकलकर आती है इसे गंगा की प्रमुख धारा माना जाता है लेकिन ये छह बहिनें मिलकर गंगा कहलाती हैं व्यक्तिवाद के दायरे से बाहर स्थापित समाजवाद का अनुपम उदाहरण .

पौराणिक कथाओं में गंगा अवतरण भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण प्रसंग है . गंगा जब स्वर्ग से उतरकर धरती पर आने लगी तो प्रवाह बहुत तेज था शिवजी की जटाओं से बहती गंगा का प्रवाह इतना तेज था कि सारी सृष्टि के विनाश का भय था ,

उसे कम करने के लिये शिवजी ने गंगा के उद्दाम वेग को अपनी जटाओं में समा लिया और उसे कई धाराओं में बाँटते हुए उतारा .इस तरह सभी धाराएं गंगा की ही हैं केवल नाम अलग हैं . पंचप्रयागों में विभिन्न धाराएं मिलते हुए देवप्रयाग तक सब मिलकर गंगा हो जाती हैं .

हरिद्वार तक आते आते शाम होगई . सुबह किसन भाई ग्वालियर के लिये निकल गए और हम लोग निकल पड़े गोवर्धन के लिये .

मार्ग के आकर्षण 

गिरिराज गोवर्धन ,..जिसे भगवान श्री कृष्ण ने इन्द्र के कोप से ब्रज की रक्षा हेतु उँगली पर उठा लिया था, उस पर्वत को देखना ,उसकी पैदल परिक्रमा करना मेरा सपना था .जब हम पहुँचे शाम होने लगी थी . पैदल चलने का समय नहीं था . वैसे भी उर्मिला के लिये पैदल चलना बहुत कष्टकर होता .अँधेरा भी होने लगा था लेकिन परिक्रमा तो लगानी ही थी क्योंकि सुबह मुझे अनिवार्यतः ग्वालियर पहुँचना था . (हालाँकि उर्मिला साधु सन्तों व ब्राह्मणों को भोजन कराने हेतु एक दिन और वहाँ रुकने वाली थी) .अस्तु हमने परिक्रमा के लिये टमटम को चुना . 

गिरिराज के आसपास का वातावरण देख मुझे बड़ी निराशा हुई . मेरी कल्पना थी कि बस्ती से कुछ हटकर पर्वत होगा . चारों ओर हरियाली होगी . पैदल चलने के लिये सुन्दर सुरम्य रास्ता होगा .बचपन से ही हमारी चेतना में रचे बसे , और लीलाधारी कृष्ण की लीलाओं के सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण-स्थल के बारे में यह कल्पना और अपेक्षा गलत भी नहीं थी लेकिन मकानों की भीड़ में कृष्ण की गरिमा का स्वर्णिम पृष्ठ कहीं गुम हुआ सा लगा .

मेरा पैदल चलने का इरादा तो रास्ता देखकर वैसे ही खत्म होगया ,क्योंकि पैदल चलकर परिक्रमा के लिये समुचित रास्ता है ही नहीं . परिक्रमा के रास्ते में ही सड़क मुख्य सड़क है , मिठाइयों और दूसरी तमाम चीजों की दुकानें हैं , पूरा बाजार है ,बाजार में क्रेताओं की भीड़ है .कहीं कहीं कीचड़ और कचरे के ढेर और गन्दगी भी थी . दूर दूर से आस्था के साथ परिक्रमा करने आए श्रद्धालु वहाँ के लोगों के लिये रोज ही काम के लिये जाते कर्मचारियों की तरह मामूली हैं . उनके साथ ही बाजार की भीड़ ,मोटरसाइकिल ,कार ,और टमटम का सफर भी जारी है .मुझे सबसे सोचनीय स्थिति तो उन आस्थावान यात्रियों की लगी जो उस भीड़ और यातायात के बीच दण्ड लगाते हुए परिक्रमा कर रहे थे . कैसा लगेगा कि एक श्रद्धालु जय गिर्राज जी महाराज बोलता हुआ ब्रज की भूमि को साष्टांग प्रणाम कर रहा है और कोई बगल से कार में या बाइक पर फर्राटे से निकल जाता है . कम से कम मुझे बहुत अखरा . उन लोगों की श्रद्धा ( कोई इसे अन्धविश्वास भी कह सकता है ) को नमन करती हूँ पर साथ ही शासन की लापरवाही पर क्षोभ भी होता है .क्यों अभी तक इस स्थिति में सुधार नहीं किया गया . 

हमने टमटम से परिक्रमा की पर लेकिन मुझे कहीँ पर्वत नहीं दिखा .लोगों के अनुसार पर्वत दिखता तो है पर कुछ ही जगहों से दिखता है .संभव है कि मेरी कल्पना जितना ऊँचा न हो . हमारा परिक्रमा का समय भी उपयुक्त नही था . 

मानसी गंगा आदि स्थलों पर यही विचार बार बार आ रहा था कि केवल 'भगवान का नाम लेने से ,जयकारा लगाने से, उनके धाम पहुँचने मात्र से पुण्य मिल जाता है ', इस जमी हुई धारणा ने हमारे धार्मिक स्थलों को किस तरह आडम्बर का केन्द्र बना दिया है . जहाँ भी देखो न कोई व्यवस्था न सफाई का ध्यान ..खास तौर पर गोवर्द्धन में पण्डों पुजारियों का प्रलोभन चरम पर दिखा .बद्रीनाथ धाम में यह बड़ी प्रेरक और सुखद अनुभूति हुई कि वहाँ आडम्बर या प्रलोभन कहीं नहीं था .नगराज हिमालय के अंचल में अभी आचरण की शुद्धता बनी हुई प्रतीत होती है . यहाँ मन्दिर परिसर में छोटी छोटी मासूम बच्चियाँ चन्दन लिये जिस तरह लोगों को रोक रोककर तिलक लगाने का चेतावनी मिश्रित आग्रह कर रही थीं , उन्हें शिक्षा के महत्त्व से हटकर धूर्त्त व्यावसायिकता और बिना कुछ किये धन कमाने के तरीके सिखाता है . बड़ी निराशा हुई कि इतने महत्त्वपूर्ण तीर्थ में मुझे भक्ति की बजाय आडम्बर और अराजकता ही दिखी . भक्ति का अर्थ केवल दीपक अगरबत्ती जलाकर आरती गाना नहीं होती . वह भक्ति का एक तरीका हो सकता है लेकिन भाव में जब तक कातरता और कृतज्ञता नहीं हैं , समाज के प्रति दायित्त्वबोध नहीं है , भक्ति नहीं आडम्बर है .मुझे परिक्रमा से सन्तुष्टि नहीं हुई . मेरे असन्तोष और दृष्टिकोण से उर्मिला सहमत नहीं थी . वह अपनी जगह सही थी पर मेरा दृष्टिकोण भी गलत नहीं था बस हमारी सोच दो दिशाओं में जा रही थी .

हैरानी यह कि अपनेआप में धार्मिक होने का दंभ पाले कुछ लोगों में न झूठ से परहेज होता है न प्रलोभन या बेईमानी से .उन्हें धार्मिक स्थलों में भी अतिक्रमण करते संकोच नहीं होता ..गिरिराज के आँगन में फैली बस्ती ,उस पावन धाम में व्याप्त अव्यवस्था मुझे यही बता रही थी , जहाँ तक मैंने अनुभव किया . हो सकता है वह सब तात्कालिक हो . यह तो पुनः वहाँ जाने पर ही ज्ञात होगा .फिर भी अतिक्रमण तो स्थायी सत्य है . मेरा विचार है कि प्रशासन को इस पावन गिरिराज परिसर को अतिक्रमण से मुक्त कराना चाहिये . और श्रद्धालुओं के लिये एक अलग यातायात से पृथक सुरक्षित मार्ग बनाना चाहिये .

मुझे अगले दिन सुबह अनिवार्य रूप से ग्वालियर पहुँचना था इसलिये मैंने सुबह उर्मिला से विदा ली .रवि ने शताब्दी के लिये मुझे समय पर मथुरा स्टेशन पहुँचा दिया .वह इस अनूठी अनुपम यात्रा का अन्तिम सोपान था .  

मंगलवार, 14 मई 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा --3

भारत का प्रथम गाँव .

तीन दिन धूप के दर्शन नहीं हुए .कप़ड़े सुखाने तक के लाले पड़ गए .लेकिन चौथे दिन धूप आई किसी बहुप्रतीक्षित अपने की तरह . स्वागत के लिये लोग बाहर निकल पड़े .हिमाच्छादित शिखरों पर चाँदी बिखर गई .निष्पन्द मौन पड़ी गलियाँ , बाजार सब जाग गए . चेहरे खिल गए .अलगनी मुँडेरों , दीवारों पर कपड़े फैल गए . सूर्यदेव स्वामी हैं ग्रहों के ,धरती के , सबके जीवन के , प्रकृति के सारे कार्यकलाप सूर्य से चलते हैं . तीन दिन बाद आई धूप हमें यही समझा रही थी . यह भी कि बिना दुख के सुख , बिना खलनायक के नायक , बिना गर्मी के वर्षा या सर्दी के और बिना धूप के छाँव महत्त्व का पता नहीं चलता .

आसमान साफ हुआ तो आसमान में पीले लाल सफेद नीले हैलीकॉप्टर मँडराने लगे . रास्ते खुले तो पाँव चल पड़े . असल में बद्रीनाथ धाम में दर्शनार्थ भगवान बदरीविशाल का मन्दिर तो प्रमुख है ही ,साथ में और भी अनेक दर्शनीय स्थान हैं जिनमें माना गाँव , व्यास गुफा , भीम पुल , सरस्वती नदी ,वसुधारा जलप्रपात आदि स्थान पहले से आते रहे लोगों ने बताए .हमने माना गाँव देखना तय किया .वहीं भीम पुल ,सरस्वती नदी और व्यास गुफा भी हैं यानी एक पन्थ चार काज .

लगभग 17000 फीट की ऊँचाई पर बसे माणा गाँव को कई पौराणिक रहस्यों वाला गाँव माना जाता है . यहाँ से पांडवों ने स्वर्गारोहण किया तथा यहीं व्यास जी ने महाभारत की रचना की . गाँव का माणा नाम मणिभद्र देव के नाम पर पड़ा है . यहाँ रडंपा जाति के मेहनती और खुशमिजाज लोग रहते हैं . उत्तर दिशा के इस कोण में यह भारत का आखिरी गाँव है . इसलिये इसे पहले अन्तिम गाँव ही कहा जाता था .  2022 में मोदी जी ने इसे प्रथम गाँव कहा . तबसे इसे प्रथम गाँव के नाम से जाना जाता है .


हम जैसे ही कार से उतरे कई दुबले पतले बच्चे बूढ़े ( जो उम्र से जवान थे वे भी तन से बूढ़े ही लगते थे) डोली (पिट्ठू)पीठ पर बाँधे आगे बहुत ऊँचे और कठिन रास्ते

का वास्ता देते हुए डोली लेने मनुहार कर रहे थे .मुझे तो पैदल ही जाना था लेकिन जो बैठना चाहते थे ,वे उनसे घिस घिसकर मोलभाव कर रहे थे . ग्राहक छूट न जाए इस बेवशी में वे कम से कम दाम पर भी तैयार होजाते थे .यही उनकी जीविका है . वे यात्रियों की प्रतीक्षा करते हैं . एक भारी भरकम सवारी ,जिसने मोलभाव करके किराया काफी कम करा लिया ,को पीठ पर लादे एक दुबले से युवक को देख हृदय में बड़ी हलचल मच रही थी . 
असहाय बीमार लोगों को तो विवश होकर पिट्ठू लेना ही पड़ता है .स्वस्थ लोगों को भी ले लेना चाहिये लेकिन उस पर मोल भाव करना मुझे बहुत निकृष्ट लगता है . होटलों पार्लरों में बिना हील हुज्ज़त किये हजारों रुपए शान से देने वाले लोगों को ऐसी जगह बचत सूझती है . नही सोचते कि आखिर वे आपका वजन उठा रहे हैं .कीमत से कहीं बढ़कर बात है यह . ये लोग किसी अभाव के लिये ईश्वर से शिकायत नहीं करते . जो मिला है उसे स्वीकार करते हैं इसलिये मुक्त रहते हैं .
अलकनन्दा


भीमपुल

माना गाँव में घूमना एक अद्भुत अनुभव हैं .साफ सुथरे ऊपर चढ़ते हुए चट्टानी रास्ते जिन्हें चढ़ते हुए साँस फूलती है लेकिन दोनों तरफ रंगबिरंगे परिधानों में वृद्धा हों , युवती हों या किशोरी स्वेटर मौजे टोप मफलर बुनते हुए देख हृदय गद्गद होता है .पहाड़ों में विपन्नता (भौतिक रूप मे) के बीच भी उनके चेहरों में धैर्य और सन्तोष देखकर विस्मय भी .हिमालय की गोद में पल बढ़ रहे ये लोग सृजन और परिश्रम से अपने समय को सार्थक बनाते हैं .इनके अलावा दूसरी दुकानें अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों रस्सी की कलाकृतियों और बुरांश के गहरे गुलाबी शरबत की बोतलों से सजी थी . गाँव के शिखर पर व्यास पोथी , गणेश मन्दिर , माता मन्दिर और व्यास गुफा है . व्यास पोथी देख आश्चर्य होता है .चट्टान की परतें किसी पुस्तक जैसी ही ही लगती है . कहा जाता है कि यहीँ वेदव्यास जी ने महाभारत जैसा महान ग्रन्थ लिखा था .ऐसा सृजन पर्वत की शान्त नीरव गोद में गहन मनन चिन्तन के बाद ही हो सकता है व्यास गुफा में उस समय कृष्ण भजन गाए जा रहे थे .बड़ा ही पवित्र वातावरण था .

वहीं पास एक चाय की दुकान है . बोर्ड पर लिखा है –'भारत की अन्तिम चाय की दुकान. एक बार सेवा का मौका अवश्य दें .’  यह  न भी लिखा होता तब भी मैं ज़रूर वहाँ चाय लेना चाहती . ऐसी दुर्गम जगहों में लोग यात्रियों की प्रतीक्षा करते हैं .बिक्री से ही उनकी रोजी रोटी चलती है . यात्रियों को कुछ न कुछ अवश्य लेना चाहिये . हम सबने वहाँ चाय पी . मैगी बिस्किट व समोसा आदि नाश्ता भी ड्राइवर संजय और रवि ने नाश्ता भी लिया ...फिर नीचे उतरकर भीम पुल देखा .कहा जाता है कि द्रौपदी को नदी पार कराने के लिये भीम ने यह पुल बनाया था .पाण्डव स्वर्ग जाने के लिये इसी पुल से निकलकर गए थे ..वहाँ चट्टानों के बीच से बहती धारा को सरस्वती नदी का उद्गम बताया जाता है . कुछ ही दूर आगे चलकर सरस्वती की धारा अलकनन्दा में समा जाती है . दोनों नदियों का संगम स्थल केशवप्रयाग कहा जाता है .

लौटते हुए मैंने बुराँश के शरबत की दो बोतलें खरीदी . साथियों ने भी कुछ न कुछ सामान खरीदा .सचमुच माना गाँव को देखे बिना बद्रीनाथ धाम यात्रा पूरी नहीं होती . 

आगे भी जारी....    

रविवार, 28 अप्रैल 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा -2




बद्रीनाथ धाम यात्रा -1


 30 अप्रैल 2023

विशाल बदरीनारायण मन्दिर और अलकनन्दा 

नर और नारायण पर्वत श्रंखलाओं के बीच रंगों और फूलों से सज्जित बदरी विशाल का भव्य मन्दिर , नील-हरिताभ ( फिरोजी रंग ) धारा वाली निर्मल अलकनन्दा, और घाटी में सीपियों के ढेर जैसा बद्रीनाथ कस्बा जैसे देवताओं की नगरी . मैं विश्वास करना चाहती थी कि मेरी ऐसी कल्पनाएं सच हो चुकी है . सुबह नींद जल्दी खुल गई . बल्कि कहना चाहिये कि सुबह जल्दी होगई .सूर्य रश्मियाँ सबसे पहले शिखरों पर उतरती हैं .फिर क्या वे हमें सोने देतीं ! दूर दूर तक हिमाच्छादित धवल शिखर सुनहरी किरणों के साथ रंग मिला रहे थे . पहाड़ों के प्रति मेरा आकर्षण अनायास ही है .उच्चता के प्रतीक इन उत्तुंग शिखरों को देखकर नत सिर होजाती हूँ. चढ़ना कठिन होता है चाहे पहाड़ हो या चरित्र पहाड़ों को दम साधे मजबूत इरादों के साथ चढ़ा जाता है .चारित्रिक दृढ़ता के लिये अपने मन को नियंत्रित रखना पड़ता है . पाँव पाँव चढ़ने और साधन द्वारा ऊपर पहुँचने में वहीं अन्तर है जो नकल करके अच्छे नम्बर लाने और गहन अध्ययन करके परिणाम पाने में होता है .

30 अप्रैल का दिन खाली था . कथा एक मई से शुरु होनी थी . तय हुआ कि आज भगवान के दर्शन किये जाएं . रवि ऐसे कामों में बड़ा सहायक था .उसने बताया कि दर्शनों के लिये सुबह तीन तीन किमी लम्बी लाइन लगती है अभी बहुत छोटी सी है .मैं तो तैयार ही थी ,साथ में सुनीता ,ऊषा भाभी ,रेखा दर्शनों के लिये चल पड़े . काफी नीचे ढलान के बाद अलकनन्दा का पुल है फिर लगभग पचास मीटर ऊँचाई पर शीश ताने भगवान बदरीनारायण का भव्य मन्दिर है जिसे लाल पीले फूलों से सजाया हुआ था .

मुझे यह देख कर आश्चर्य से अधिक हैरानी हुई कि इतना दिव्य भव्य और सनातन का सर्व प्रमुख मन्दिर आसपास की इमारतों में छुप गया है . वह अलकनन्दा के तट पर जाकर दिखाई दिता है . पुराने चित्रों में मन्दिर के आसपास कोई मकान नहीं है पर अब मन्दिर से अधिक बाजार है . दर्शनार्थियों के लिये व्यवस्थित लाइन नहीं थी


.कितनी ही भीड़ हो अगर सही व्यवस्था हो तो दर्शन आसान होजाएं ..रवि जिसे कम कह रहा था उतनी भीड़ भी बहुत ज्यादा थी . अच्छे भले आदमी को कुचल सकने लायक . मैं कुचली तो नहीं गई पर बेहाल ज़रूर हुई . हाँ अन्दर भगवान के समक्ष जो अनुभुति हुई वह अनिर्वचनीय है . सब कुछ पा लेने

जैसा अहसास .केवल एक यही सत्य है और कुछ नहीं . निःशेष होजाना ही शायद मुक्ति है . सारी लालसाएं ,आशाएं शून्य . पर यह क्षणिक था . अगले ही पल धक्कों ने बाहर कर दिया .मुझे लगता है इतनी भीड़ में ऐसे स्थानों पर जाना केवल मन को समझाना है कि हमने दर्शन कर लिये .साथ चलते लोगों को पीछे धकेलकर ,आगे निकलने की प्रवृत्ति ने आस्था को पीछे छोड़ दिया है .एक ही भाव रहता है कि किसी तरह आगे निकलो भगवाने के सामने जाकर कुछ माँगलो और मिल गया दर्शनों का लाभ .पूरी आत्मीयता और कृतज्ञता के साथ ईश्वर के सामने खुद को रखना तो हो ही नहीं पाता . जब तक हृदय द्रवित न हो डोर वहाँ तक नहीं पहुँचती . भीड़ में धक्का खाते कुचलते आस्था कहीं बिखर जाती है . मेरे विचार से हर रजिस्ट्रेशन करने वाले यात्री को दर्शनों की तारीखें और समय दे दिया जाय तो धक्का मुक्की और दूसरी मुश्किल से बचा जा सकता है . यह सोचनीय है कि हमारे तीर्थस्थलों को भी लोगों ने पिकनिक स्पॉट बना लिया है .यातायात की सुविधा ने जहाँ जीवन को आसान बनाया है वहीं प्रदूषण गन्दगी के साथ जीवन को कृत्रिमता की ओर धकेला है.


मन्दिर के नीचे अलकनन्दा को देखना तकलीफदेह था . नदी के आस पास भी निर्माण कार्य जारी हैं. आसपास कंकरीट और मलबे के ढेर कारण धारा सँकरी होगई .पर्याप्त जगह न पाकर सौम्य जीवनदायिनी अलकनन्दा की गर्जना भय उत्पन्न करती है मानो कह रही हो कि तुम मेरी सीमाएं दबा रहे हो ,कल मेरे कारण तुम्हारे प्राणों पर आ बने तो मुझे दोष मत देना .भूल गए उस प्रलय को .

विकास के लिये पहाड़ों का सीना चीरते देखकर क्या कम कष्ट हुआ . अच्छी सड़कों के कारण अधिक से अधिक वाहन आ रहे हैं .नई पार्किंग के लिये जगह चाहिये . लोगों को ठहरने के लिये गेस्टहाउस , धर्मशाला चाहिये .ज्यादा लोगों के लिये बाजार भी विस्तार ले रहा है .बाजार प्रकृति को निगल रहा है .धरती की छाती पर बुडोजर चलाए जा रहे हैं .पहाड़ों के हाथ काटे जा रहे हैं . सच कहूँ तो इस विचार के बाद मेरा मन थोड़ा अशान्त होगया . मानव को सुविधाएं भी चाहिये , एक दिन वह बिगड़े पर्यावरण , अति वृष्टि अनावृष्टि की शिकायत भी करेगा ..कर रहा है . कहावत है कि ,हँसलो या गाल फुलालो . अगर जाने की क्षमता नहीं है तो क्यों जाना तीर्थों में . क्यों चाहिये हैलीकॉप्टर ..


1मई को सुबह अलकनन्दा से विधिवत् पूजन के बाद कलश भरकर लाए गए और श्रीमद्भागवत् कथा प्रारम्भ हुई . कथावाचक श्री आकाश उनियाल थे . साथ ही उनके पिता और अन्य परिजन भी बैठे . मेरी योजना कथा के बीच ही वहीं से रवि या किसी अन्य विश्वासपात्र के साथ केदार नाथ गंगोत्री  यमुनोत्री जाने की थी लेकिन उसी दिन बारिश और उसके बाद हिमपात शुरु होगया था . केदारनाथ धाम की यात्रा स्थगित करदी गई ..हिमपात देखना अनूठा अनुभव था . इसे देखने लोग हफ्तों इन्तज़ार करते हैं . पर हमें वह सहज उपलब्ध हुआ . सर्दी काफी बढ़ गई थी . कहीं आना जाना संभव नहीं था . लेकिन उस कड़कती सर्दी मैं बच्चे बूढ़े एक एक वस्त्र में लिपटे दर्शनार्थ चले आरहे थे . यह उनकी आस्था का ही बल था .खराब मौसम के बावजूद ,सारी सुविधाएं ,गरम पानी ,चाय नाश्ता ,खाना सारी व्यवस्थाएं सुचारु थीं इसके लिये भाई किसन और भाभी ऊषा का विशेष सहयोग रहा .रवि भी बराबर सहयोग करता रहा . उर्मिला घुटनों के दर्द से परेशान थी लेकिन व्यवस्थाओं में कहीं कोई कमी नहीं आने दी .यह बात मुझे निश्चित ही प्रभावित कर रही थी . मैं यह देखकर भी चकित थी . 

आगे भी जारी.... 



शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

मेरी बद्रीनाथ धाम यात्रा .

 


27 अप्रैल 2023 की सुबह जब मैंने उर्मिला के साथ हरिद्वार के लिये प्रस्थान किया तो मन में उल्लास जिज्ञासा और इस संयोग पर कुछ विस्मय भी था .उल्लास व जिज्ञासा नए स्थान के प्रति तथा विस्मय इस बात का कि पूर्व नियोजित कार्यक्रम कई बार असफल होते देखे गए हैं ,जबकि यह अचानक बना कार्यक्रम था जो किस तरह पूरा होगया था .

उर्मिला मेरी स्कूल की मित्र है . सन् 1972-73 में उससे मेरा परिचय तब हुआ जब मैंने हायर सेकेण्डरी स्कूल पहाड़गढ़ में नौवीं कक्षा में प्रवेश लिया था .हमारा केवल दो साल साथ रहा लेकिन बचपन की मित्रता तो जीवनभर की होती है . वर्षों तक हम नहीं मिलीं पर जब मिली तो साथ संवाद का सिलसिला चल पड़ा और उसने अपने श्रीमद्भागवत साप्ताह कथा में शामिल होने का आग्रह किया जो वह बद्रीनाथ धाम में करवाने जा रही थी . उसका अधिकांश समय पूजा भजन और हरिद्वार, वृन्दावन में बीतता है . अब तक वह तीन बार श्री मद्भागवत् कथा पाठ करवा चुकी थी .चौथा आयोजन बद्रीनाथ धाम में था .

इस दृष्टि से हमारे मेल का प्रमुख आधार प्रेम है .वरना कई कारणों से मैं तो घर में अखण्ड-रामायण का सार्वजनिक पाठ तक नहीं करवा सकी हूँ . पूजा भी बस नियम पूर्त्ति जैसी होती है . मित्र मानती हूँ . इसी के आधार पर जिस भाव से उसने मुझे बद्रीनाथ धाम चलने का प्रस्ताव रखा , और मैं 27 अप्रैल 2023 को मैं उर्मिला के साथ उसकी वैगन आर में सवार हो चुकी थी .  

बद्रीनाथ केदारनाथ गंगोत्री यमुनोत्री ये उत्तराखण्ड के चार धाम हैं जिनके प्रति बचपन से ही बड़ा आकर्षण था .चाहा तो था कि चारों ही तीर्थ होजाते पर सोचा कि एक बद्रीनाथ धाम होजाना भी बड़ी उपलब्धि होगा . इस बार मैंने अलकनन्दा के तट पर बसे इस पावन धाम के बारे में कुछ जानकारियाँ भी हासिल कीं  .ऋषिकेश से लगभग 294 किमी दूर बद्रीनाथधाम चमोली जनपद में लगभग 3133 मीटर ऊँचाई पर स्थित है .अक्टूबर नवम्बर में मन्दिर के कपाट बन्द होजाते हैं .अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित होती रहे इसके लिये छह माह के घी की व्यवस्था की जाती है .उस दिन विशेष पूजा के साथ बदरीनारायण भगवान नीचे चालीस किमी दूर जोशीमठ (ज्योतिर्मठ) के नरसिंहभगवान के मन्दिर में विराजमान होते हैं .जो अक्षय तृतीया तक वहीं निवास करते हैं .यह सब पढ़कर बड़ा आश्चर्य व रोमांच हुआ . एक और बड़ी प्रेरक और सुखद आश्चर्य की बात कि देश की उत्तरी सीमा पर स्थित इस मन्दिर में

 केरल के पुजारी होते हैं जिन्हें रावल कहा जाता है .गंगोत्री के जल से रामेश्वरम् का अभिषेक करने पर ही यात्रा का पुण्य मिलना , केदारनाथ में भी कर्नाटक का पुजारी होना .ऐसे प्रावधान देश की एकता और अखण्डता के लिये कितने आवश्यक हैं , महत्त्वपूर्ण हैं ,कहने की ज़रूरत नहीं . हमारी धार्मिक मान्यताओं को महज अन्धविश्वास कहना गलत है .उनके पीछे कोई न कोई सदुद्देश्य होता है .

विष्णु भगवान के तीर्थ का नाम बद्रीनाथ धाम क्यों पड़ा इसके पीछे कई कथाएं है यहाँ एक देना ठीक रहेगा कि किसी युग में वहाँ बदरिका (बेर) के पेड़ो की बहुतायत थी .

हरिद्वार पहुँचते पहुँचते अँधेरा होगया था . हमारा रात्रि विश्राम वेदान्त आश्रम में था .गंगा जी के परमार्थ घाट के निकट स्थित वेदान्त आश्रम सुन्दर स्वच्छ और सर्वसुविधायुक्त और धार्मिक वातावरण वाला आश्रम है .हरिद्वार में प्रवास के इच्छुक लोगों के लिये तो व्यवस्था है ही ,निराश्रित गरीब बच्चों के पालन व शिक्षा की व्यवस्था भी है उर्मिला यहाँ आती रहती है . वहाँ श्रीमद्भागवत् का साप्ताहिक पाठ तो करवा ही चुकी है ..इसलिये वातावरण परिवार जैसा ही है . शाम को उर्मिला के भाई किसन (कृष्णकुमार) भाभी ऊषा, नोइडा से चचेरी बहिन सुनीता  ,उसके पति प्रशान्त और बेटी भी हरिद्वार पहुँच गए .क्योंकि धाम के लिये 29 अप्रैल का प्रस्थान था इसलिये 28 को ऋषिकेश दर्शन का लाभ लिया . रवि त्यागी कहने को कार चालक की भूमिका में था लेकिन वह परिवार का सदस्य ही माना जाता है उसी तरह हर कार्य में हाथ बँटाता है . मैं , भाभी ऊषा और उर्मिला की छोटी बहिन रेखा तीनों रवि के साथ ऋषिकेश चले गए .वहाँ मैं पहले जा चुकी हूँ लेकिन इस बार हमारे पास काफी समय था . गंगा जी का विशाल अतुलित प्रवाह, सौन्दर्य और वैभव देखकर मन आनन्दमय और कृतकृत्य होगया . लक्ष्मण झूला अब बन्द कर दिया गया है .उसकी जगह सुन्दर अपेक्षाकृत चौड़ा जानकी झूला बन गया है .राम झूला अधिक व्यस्त था .बाइक साइकिल पैदल ..सब मिलकर काफी भीड़ थी . मेरे विचार से रामझूला का उपयोग गाड़ियों के लिये नहीं होना चाहिये .

29 अप्रैल की सुबह हम लोग तीन गाड़ियों में ढेर सारे सामान घी ,आटा तेल मसाले सब्जियाँ आदि के साथ बद्रीधाम की ओर चल पड़े . वहाँ लगभग पन्द्रह लोग आठ दिन रुकने वाले थे .  

बद्रीनाथ धाम का रास्ता बहुत सुन्दर और आसान बना दिया गया है . छोटी सी वैगनआर दुर्गम पहाड़ों के बीच मानो सर्राटे भरती जा रही थी .मुझे याद है जब मेरी नानी चार धाम के लिये गईँ थीं , उन्हें भजन कीर्त्तन के साथ भरी आँखों  विदा किया था .मां तो लिपटकर रोने लगीं थीं . सीधा मतलब था कि उस महीनों की दुर्गम यात्रा के बाद लौटने की उम्मीद बहुत कम रहती थी .

बीच में देवप्रयाग जैसे मनोरम स्थानों पर मेरा मन फोटो लेने के लिये कसमसाता रहा लेकिन उस दिन तो समय से धाम पहुँचने की जल्दी थी . केवल एक जगह चाय नाश्ते के लिये रुके . धाम से कुछ ही दूर पहले बारिश शुरु होगई इसलिये गन्तव्य तक पहुँचने में कुछ देर लगी . रुकावट भी आई . यातायात सुलभ होजाने के कारण हर तीर्थस्थल की तरह बद्रीनाथ धाम में भी कारों और बसों का कफिला कई बार महानगर जैसा ट्रैफिक जाम कर देता है . उस समय भी ऐसा ही था . लेकिन सद्गुरु आश्रम पहुँचकर सबने राहत की साँस ली . अनुभवी और अच्छा साथ हो ,कुशल ड्राइवर हो तो बाधाएं चिन्तित नहीं करतीं सद्गुरु आश्रम में पाँच--छह कमरे और कथा वाचन के लिये हॉल ,रसोई सब पहले ह ही  ही बुक कर लिये गए थे . मुझे सुबह की प्रतीक्षा थी जब मैं उजाले में सब देख सकूँगी .

आगे जारी.....

मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

पुरस्कार--महात्म्य (व्यंग्य)

आप अगर मुझसे पुरस्कार की परिभाषा लिखने को कहें तो वह कुछ इस तरह होगी--–"पुरस्कार लोहे को सोना बना देने वाला पारस है .किसी गुमनाम बस्ती में किसी मंत्री या सांसद का आगमन है .अँधेरी गली में लगा दिया गया बल्व है .अनावृष्टि में जूझती उम्मीदों के लिये एक बाल्टी पानी है. लेखन रूपी फसल के लिये खाद पानी है . पुरस्कार-विहीन लेखन बिना विज्ञापन के बेचा जा रहा प्रॉडक्ट है , बिना लाउडस्पीकर के किसी कोने में गुनगुनाया गया गीत है ,बिना बैंडबाजे की बरात है , अरण्य रोदन है . जंगल में नाचता हुआ मोर है .कारों के बीच रेंगता साइकिल सवार है . भरे वसन्त में फूल पत्र विहीन खड़ा पेड़ है .मंच पर बिना हाव ,भाव और सुर ताल के सुनाई गई कविता है ...वगैरा वगैरा

मंच से याद आया कि मंच पर श्रोताओं का ध्यान ,सम्मान मिलना भी किसी पुरस्कार से कम नहीं है . श्रोताओं को बाँधे रखना और उनसे तालियाँ बजवा लेना कोई हंसी खेल नहीं है .उसके लिये बड़ा अभ्यास और लगन चाहिये . कविता (कहीं से चुराई भी चलेगी) किसी मंत्र की तरह सिद्ध हो ,आवाज में सुर और बुलन्दी हो .श्रोताओं की आँखों में झाँककर अपनी बात इस विश्वास के साथ सकने का कौशल हो कि श्रोता वाह वाह कहने , तालियाँ बजाने विवश होजाय ..भाई साहब वह है मंच पर काव्यपाठ . .डायरी या मोबाइल लेकर पढ़ने वाले तो जैसे आते हैं , चले जाते हैं . इसके लिये माइक से गहरा मोह और अभिनय , सुर लय का ध्यान भी बहुत काम आता है . मंच पर कविता पढ़कर लोकप्रियता की चाह रखने वाले बन्धु ,भगिनी इन सूत्रों को अवश्य अपनाएं . यह भी उल्लेखनीय है कि मंच पर जमने वाले कवि अपने मंचासीन साथी कवियों के समय की चिन्ता जूतों /चप्पलों के साथ ही मंच के नीचे ही छोड़ आते हैं . फिर चाहे साथी कवि कुढ़ते हुए उसकी तुलना अपने चिपकू पड़ोसी से करते रहें .
मंच पर सफल काव्य-पाठ करने के बाद श्रोताओं से दो दुलार मिलता है उसे देखकर दावे के साथ कहा जा सकता है कि जो लोग मंचीय कविता को दूसरी श्रेणी की कहकर कमतर नज़रों से देखते हैं वे हीनता के यानी एहसासे कमतरी के शिकार होते हैं .सच्ची .
अब देखें पुरस्कार का प्रभाव .उसका पहला लाभ तो यह है कि जो लोग सोशल मीडिया पर आपके नाम को देख नाक सिकोड़कर निकल जाते थे वे अचानक आपके घनिष्ठ बन जाते हैं . नाकुछ शब्दों में बहुत कुछ खोजकर निकाल लेते हैं .निरर्थक से वाक्य या ,एक सादा सी सेल्फी पर ही बलिहारी जाते हैं .कमेंट्स की बौछार कर देते हैं .रचनाओं पर भली सी समीक्षाएं लिखकर निकटता जताते हैं मन न हो तब भी आपकी मामूली सी बात को लाइक करते हैं .साक्षात्कार के लिये बुलावे भी बड़ी भूमिका अदा करते हैं .
सबसे बड़ी बात यह कि पुरस्कार में दाम के साथ नाम भी मिलता है . नाम की बड़ी महिमा है. कवियों ने ,“राम से बड़ा राम का नाम…” कहा है . दुनिया नाम के लिये ही मरती है . दुनियाभर में सत्ता और धन के अलावा जिस चीज के लिये भागदौड़, आपाधापी ,खींचतान , नोंच-खसोट और मारकाट मची है , वह  नाम ही है . नाम में क्या रखा है ..” ,कहने वाला शख्स आज ज़िन्दा होता तो खुद के लिखे पर ही बहुत पछता रहा होता . सभी नामचीन साहित्यकारों से माफी माँग रहा होता खैर..
अरे हाँ , नाम से याद आया, नामी लोगों का सम्पादक के साथ भी एक आत्मीय रिश्ता बन जाता है . सम्पादक उनकी मामूली रचनाओं को भी सिर माथे लेकर छापते हैं .जानते हैं .पूरी पत्रिका में एक दो रचनाएं ऐसे ही पड़ी रहें पत्रिका की सेहत पर भला क्या असर होने वाला है .वैसे भी छोटी बड़ी हर पत्रिका में कुछ रचनाएं फालतू होती ही हैं ,ज़ाहिर है कि वे उनके कुछ पालतू रचनाकारों की होती हैं .
असल में सम्पादक वर्ग ऐसी प्रजाति है जो विधाता की तरह रचनाकार के पालक और संहारक दोनों का दायित्त्व निभाता है. राई को पर्वत और पर्वत धूल कर देने वाली क्षमता . न छापनी हो तो ठीक ठाक रचना को भी खेद सहित लौटादे .भले ही रचना बूमरेंग की तरह लौटकर रचनाकार को घायल करदे उन्हें क्या ! जानते हैं कि प्रकाशन के बिना लेखन दो कौड़ी का भी नहीं . छपने और लिखने में परस्पर जन्मजन्मान्तर का सम्बन्ध है . इसलिये सभी छपने और छपकर नाम कमाने के लिये ही लिखते हैं ..
अब भैये , इसमें तो कोई शक सुबहा नहीं हैं कि हमारे यहाँ नाम और पद पूजा जाता है ,काम नहीं . सरकारी कार्यालयों में एक गुणी अनुभवी कर्मचारी , पिछवाड़े लगी सीढ़ी से ऊपर चढ़ आए अपने नौसिखिया अधिकारी की लानत मलामत सहकर भी हाथ जोड़े रहता है और उसके सामने खुद को अनुभवहीन स्वीकारता रहता है . इससे अच्छा हो कि हाथ जोड़ने की बजाय वह उससे भी ऊपरवाली सीढ़ी तलाश ले .बुद्धिमान लोग लेखन शुरु करने से पहले सीढ़ी तलाश लेते हैं . उन्ही को देखकर द्विवेदी जी के कंठ से फूट पड़ा होगा , “कोशिश करने वालों की हार नहीं होती …”
तो भाई साहब पुरस्कार की महिमा अनन्त है अशेष है .नित्य है ,सत्य है . जैसे आयोजकों ने उनको पुरस्कार दिये , वैसे ही आपको भी मिलते रहों .