यह कविता मैंने सन् 2003 में अपने बड़े बेटा प्रशान्त के विवाह से पहले लिखी थी . आज उसके विवाह की वर्षगाँठ पर यह अचानक मिल गई . बिना किसी संशोधन के प्रस्तुत है .
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ओ अनदेखी , अनजानी
मेरे घर की भावी महारानी .
तू आना मेरी दुनिया में
जैसे आती है हवा किसी नदी में नहाकर
फूलों को सहलाकर.
जैसे आती है लाली पूरब के क्षितिज पर
सूरज से पहले .
करती है ऐलान रात बीत जाने का .
जैसे आता है परिणाम
आशान्वित, वर्षों के परिश्रम के बाद .
प्रतीक्षा में है .
घर का हर कोना ,
मेरा बेटा , मेरा सोना
सलोना सपना मेरा भी ,
कि देखूँगी अपने आँगन में ,
मन में दमकती जगमग रोशनी .
तू ले आना अपने साथ
माँ की यादों को .
लेकिन उन्हें घोल देना मेरी साँसों में
मान लेना मुझे भी अपनी माँ .
उससे भी ज्यादा अपनी मीत .
बेटी नहीं है मेरी कोई ,
तुझमें ही देखूँ अपनी बेटी भी .
कर सकूँ खूब सारी मन की बातें .
माँ की तरह ,
तू सुनना उन्हें बेटी की ही तरह .
बता देना मेरी अनजाने में हुई कोई भूल भी
अपनत्त्व के साथ .
सुन लेना तू भी उतने ही विश्वास से
स्वीकार होंगी तेरी माँगें ,जिद ,चाहत .
छोड़ आई हूँ बहुत पीछे
वह युग ,जो मैंने देखा था
नववधू के रूप में .
अब स्वामिनी होगी तू .
इस घर की , बेटे की ..
और मेरी भी ...कम न होगा मेरा स्नेह .
मत रखना मन में कभी सन्देह
कोई दुराग्रह .
मत लाना साथ में कोई तीखी धार
बनादे जो दरार ,आँगन में .
तू खुशी है ,मेरे बेटे की
और बेटा मेरी ..
इसलिये खुशी है तू मेरी भी .
पलकें बिछाए हूँ तेरी राह में .
सपने जो बसे हैं तेरी पलकों में .
आशंकित न होना कभी .
सजाएंगे उन्हें और भी खूबसूरत
मिलजुलकर .
बचाए रखना
भाव और विचारों को बोझिल होने से
सपनों को फीका होने से