शनिवार, 31 दिसंबर 2022

गुज़र गया जो साल

 आली ,मेरा हाल न पूछो

मन कितना बेहाल न पूछो .

बैठे ठाले खिसक गया

मुट्ठी से सिक्का , साल न पूछो .

 

पूछो भी तो क्या बतलाऊँ .

क्या गुज़री गलियों में जाऊँ .

अनदेखा हर मोड़ नदी का

रहा अनकहा ताल ,न पूछो  

 

साल गया यह भी बिन बोले .

लौट गया घर को  बिन खोले .

कहने को सब कुछ है फिर भी मन   ,

क्यों  है  कंगाल,  न पूछो .

 

पढ़ा सिर्फ औरों का लेखा .

अपने मन का कुछ ना देखा .

औरों के हासिल पर ही

हम होते रहे निहाल  ,न पूछो

.

सोचा लिखलूँ नई कहानी .

पूरी करलूँ  या कि पुरानी .

दिल दिमाग में गीत न उपजा

बिगड़े हैं लय ताल , न पूछो .

 

सुबह हुई फिर शाम हुई

रजनी ,फिर सुबह ललाम हुई .

बैठे ठाले कौन भला होता है

मालामाल न पूछो .

गुरुवार, 29 दिसंबर 2022

सही पता

बेघर , बंजारा मन

भटकता है दिशाहीन  

यहाँ , वहां , जाने कहाँ ,कहाँ

नहीं है जब कोई स्थाई पता .

सही पता होता है तो

आता रहता है अखबार, पत्रिकाएं.

दस्तक देता रहता है दरवाजे पर

कोई न कोई अपना सा .

पोस्टमैन सरका जाता है किवाड़ों के नीचे से

कोई बड़ा सा लिफाफा .

प्रतीक्षित पत्र ..

पत्र जो खिड़की पर गूँजते हैं  

चिड़ियों के कलरव जैसे .

भान कराते हैं , 

सबेरा होने का .

पत्र में छुपे फूल महका देते हैं सारा आँगन

जैस महकता है मोगरा सुबह सुबह .

कभी महका भी करते थे शब्द , इसी तरह

जब सही पता हुआ करता था .

साँसों का तेज स्पन्दन .

या बुझती प्रतीक्षा की चुभन से

उमड़ आए आँसू  


एहसास कराते थे ज़िन्दा होने का .

चल पड़ती थी रुकी हुई सी जिन्दगी फिर से ..

समझ आता है

कि कितना ज़रूरी है

अपने होने के लिये

एक सही पते का होना .


ला-पता होना

वंचित हो जाना है ,

अपनी ज़मीन से ,

अपने आपसे .

मंगलवार, 20 दिसंबर 2022

सड़कें और दूरियाँ

केवल दूरी नहीं काफी

दूरियों के लिये .

नज़दीक होकर भी

बढ़ जाती हैं ,दूरियाँ  

जब होती है बीच में ,

व्यस्त चौड़ी सड़कें .

सड़कों पर अविराम यातायात...

ताव में भरे हुए से तेजी में गुजरते वाहन

निष्ठुर ,अधीर ,अपरिचित चालक

दुर्गम हो जाती है

घर से घर तक की दूरी ..

तब असंभव होता है सोचना भी

बिना किसी बड़ी योजना के

एक साथ बैठकर चाय पीने की बात .

सड़कों को बीच से गुजरने देना

स्वीकार लेना है दूरियों को ..

दूरियों की आदत हो इससे पहले

तुम बनालो एक ऐसा घर

कि तुम तक पहुँचने

पार न करनी पड़े

कोई चौड़ी व्यस्त सड़क ,चौराहा .

पैदल ही पहुँच जाऊँ .

आराम से टहलते हुए .

अचानक ,चाहे जब .

बिता सकूँ कोई भी दोपहर, शाम

तुम्हारे साथ ,हँसते बोलते ,

बाँटते हुए अपनी उलझनें /खुशियाँ

बिना किसी योजना या तैयारी के.

इन्तज़ार न करने पड़े 

शनिवार रविवार का  

मत गुज़रने दो

किसी व्यस्त सड़क और बाजार को

दो घरों के बीच .

( परिवर्तित ,पुनः प्रकाशित ) 

-----------------------------

 

 

 

शुक्रवार, 2 दिसंबर 2022

आने वाली पुत्रवधू के लिये .

यह कविता मैंने  सन् 2003 में अपने बड़े बेटा प्रशान्त के विवाह से पहले लिखी थी . आज उसके विवाह की वर्षगाँठ पर यह अचानक मिल गई . बिना किसी संशोधन के प्रस्तुत है . 

-------------------------------------------------------- 

ओ अनदेखी , अनजानी 

मेरे घर की भावी महारानी .

तू आना मेरी दुनिया में

जैसे आती है हवा किसी नदी में नहाकर 

फूलों को सहलाकर. 

जैसे आती है लाली पूरब के क्षितिज पर 

सूरज से पहले .

करती है ऐलान रात बीत जाने का .  

जैसे आता है परिणाम 

आशान्वित, वर्षों के परिश्रम के बाद .

प्रतीक्षा में है .

घर का हर कोना ,

मेरा बेटा , मेरा सोना 

सलोना सपना मेरा भी ,

कि देखूँगी अपने आँगन में ,

मन में दमकती जगमग रोशनी .

तू ले आना अपने साथ

माँ की यादों को .

लेकिन उन्हें घोल देना मेरी साँसों में

मान लेना मुझे भी अपनी माँ .

उससे भी ज्यादा अपनी मीत .

बेटी नहीं है मेरी कोई ,

तुझमें ही देखूँ अपनी बेटी भी .

कर सकूँ खूब सारी मन की बातें .

माँ की तरह ,

तू सुनना उन्हें बेटी की ही तरह .

बता देना मेरी अनजाने में हुई कोई भूल भी

अपनत्त्व के साथ .

सुन लेना तू भी उतने ही विश्वास से 

स्वीकार होंगी तेरी माँगें ,जिद ,चाहत .

छोड़ आई हूँ बहुत पीछे 

वह युग ,जो मैंने देखा था 

नववधू के रूप में .

अब स्वामिनी होगी तू .

इस घर की , बेटे की ..

और मेरी भी ...कम न होगा मेरा स्नेह .

मत रखना मन में कभी सन्देह 

कोई दुराग्रह .

मत लाना साथ में कोई तीखी धार

बनादे जो दरार ,आँगन में .

तू खुशी है ,मेरे बेटे की 

और बेटा मेरी ..

इसलिये खुशी है तू मेरी भी .

पलकें बिछाए हूँ तेरी राह में . 

सपने जो बसे हैं तेरी पलकों में .

आशंकित न होना कभी .

सजाएंगे उन्हें और भी खूबसूरत 

मिलजुलकर .

बचाए रखना 

भाव और विचारों को बोझिल होने से 

सपनों को फीका होने से