'पच्चीस साल बाद' ---फिल्मी नाम लग रहा है न ? लेकिन यह सच है कि पुस्तक 'ध्रुव-गाथा' जो कल ही प्रकाशित होकर आई है ,पच्चीस साल से पहले ही लिखी गई थी । कथ्य व शिल्प में बेहद सामान्य होते हुए भी इस दृष्टि से मान्य हो सकती है कि यह सुदूर गाँव की केवल ग्यारहवीं पास और स्वाध्याय से बी.ए. प्रथम वर्ष पढ़ती हुई महिला की रचना है । जब इसकी रचना हुई थी मैंने कविता के नाम पर केवल पंचवटी पढ़ी थी । गाँव के प्राइमरी स्कूल में पढ़ाते हुए ,बच्चों को सम्हालते हुए स्वाध्याय से ही जैसे-तैसे शिक्षा ले रही थी ऐसे में मेरा साहित्यिक ज्ञान कितना होगा । स्पष्ट है कि पाठ्यक्रम से बाहर नही । गुप्त जी की पंचवटी मेरी प्रिय पुस्तक थी (है) ध्रुवगाथा पर उसका ही प्रभाव दिखता है ।
लिखने की प्रवृत्ति तो हाईस्कूल पास करते ही दिखने लगी थी । कुछ गीत ,कहानियाँ व एक बाल-उपन्यास (रानी नील गगन की) ग्यारहवीं पास करते-करते लिख लिया था । पर जाने क्यों लगता था कि जैसा लिखा जाना चाहिये वह यह नही है । (आज भी ऐसा ही है ) इसलिये वे रचनाएं नष्ट भी होगईं । इसका एक ही कारण है कि मैं पर्याप्त साहित्य नही पढ़ पाई हूँ । अध्ययन न केवल अभिव्यक्ति के द्वार खोलता है बल्कि उसे निखारता व विविधता भी देता है । सन् 1982 में जब ध्रुवगाथा लिखना शुरु किया तब विवेक का जन्म होने को था ।
ध्रुव की कथा ने मुझे सदा प्रभावित किया । भागवत कथा में जब शास्त्री जी साश्रु इस कथा को सुनाते थे तब प्रौढ़ श्रोताओं के साथ हम बच्चे भी रोने लगते थे । समयानुसार इस कथा का बीज नमी और धूप पाकर अंकुरित हुआ और सहज ही कुछ पंक्तियाँ रच गईँ । और फिर यों ही बचकाने से प्रयास-स्वरूप ध्रुवगाथा ने एक खण्डकाव्य का रूप ले लिया ।1986 तक यह पूरा होगया । पिताजी ने शाबासी दी तो मैं खुद की नजरों में कुछ बड़ी होगई । लेकिन जब 1987 में मैंने एम.ए. के पाठ्यक्रम में 'नई कविता' पढ़ी तो मेरा उत्साह क्षीण होगया । मुझे अपनी रचना द्विवेदी-युग की शुरुआत में ही में लिखी गई कुछ ज्यादा ही साधारण रचना लगी । पर उसमें सुधार-परिष्कार का अवकाश ही नही था । अब मेरे जीवन में मयंक जी(छोटा बेटा) भी आ चुके थे और मेरे दिल-दिमाग और समय पर पूरा अधिकार जमा चुके थे । अब कहाँ किताबें और कहाँ पढ़ाई । इसके बाद यह हुआ कि मैं ध्रुवकथा को किसी बक्सा में डालकर भूल गई । सन् 2001 में बाल-साहित्य की एक कार्यशाला में लखनऊ जाना हुआ .वहाँ गाजियाबाद की सुश्री मधु बी.जोशी जी से भेंट हुई । संयोग से मैं उन्ही के कमरे में ठहरी थी । मधु दीदी बहुत ही खुशमिजाज और ज़िन्दादिल महिला हैं । उनके पास बैठ कर कोई ऊब नही सकता । बातों-बातों में मैंने अपने उस बचकाने प्रयास का उल्लेख किया तो उन्होंने हर तरह से मुझे यह मानने विवश कर दिया कि अपनी रचना को यों गुमनामी के अँधेरे में रखना ठीक नही । अपने लिये ही सही उसे प्रकाश में जरूर लाओ ।तब मैंने कुछ सुधार के साथ ध्रुवकथा को टंकित करवाया । भाषा छन्द शैली कुछ नही बदला जा सका । बदलना चाहती थी पर वह दीवारों को छत और फर्श को दीवार बनाने जैसा दुष्कर कार्य होता ।
खैर पच्चीस साल बाद आई इस रचना को कहीं कोई जगह मिलेगी ऐसा तो मैं नही मानती फिर भी बाल खण्ड-काव्य के रूप में इसे कुछ लोग पसन्द करेंगे ऐसी उम्मीद तो है । पुस्तक में से ही ध्रुव-नारद-संवाद के कुछ अंश यहाँ दे रही हूँ पढ़ कर अपनी बेबाक टिप्पणी अवश्य दें ।
----
स्वर्ग धरा के बीच सुगम संचार चलाने
आते हैं जब-तब नारद संवाद बनाने ।
............
वन सुषमा को देख मुग्ध हो चले आरहे
प्रभु के नही प्रकृति के मुनिवर गीत गा रहे
.........।
सहसा ठिठके ज्यों सोये बालक को देखा
उभरी माथे पर विस्मय की गहरी रेखा ।
पल्लव सा सुकुमार यहाँ क्योंकर सोया है
किसने छोड़ा , कुलभूषण किसका खोया है ?
..................
"वत्स कौन हो ?और यहाँ तुम कैसे आए?
घोर विपिन में तुम क्यों जरा नही घबराए ?"
"घबराऊँगा क्यों ? प्रभु से मिलने निकला हूँ
राजपुत्र हूँ पर काँटों के बीच पला हूँ ।
यह तो आप कहें कैसे आए हैं मुनिवर
कहीं आप ही तो हैं नही पिता परमेश्वर
माँ ने कहा रूप कोई भी रख लेते हैं
यूँ भगवान भक्त को खूब परख लेते हैं ।
यह सच है तो अपना असली रूप दिखाओ
बाहों में ले लो फिर अपने गले लगाओ ।"
......
"सदियों से मैं खोज रहा हूँ ईश्वर को ही ।
होते अगर कहीं वो ,मिल जाते मुझको ही ।
वन में भटक रहे हो ,किसने बहकाए हो ?"
मेरे मत से बेटा व्यर्थ यहाँ आए हो ।"
"अरे !आपको शायद यह भी पता नही है
तरु मेरा विश्वास , कि नाजुक लता नही है ।
जरा खींचने से जो टूट बिखर जाएगा
ध्रुव है यह ,जो ठान लिया वो कर पाएगा ।"
...........................
"भजन ?अरे बालक यह तो है मन बहलाना
इसी बहाने बुरे विचारों से बच जाना ।
कहीं नही है नाम रूप का कोई ईश्वर
सुन पुकार जो आजाए जैसे जादूगर ।"
.................
"गहन समर्पण और लगन से कितनों ने ही
ईश्वर को पाया है , बतलाया माँ ने ही ।
मुझमें लगन समर्पण भी गहरा है मुनिवर
यद्यपि मैं छोटा भी हूँ अज्ञान निरक्षर ।"......
मन के भाव तो ऐसे ही कोमल होते हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुंदर शब्द दिए हैं आपने संवादों को। मेरा सुझाव है कि आप इसे प्रकाशित अवश्य कराएं, बच्चों के अनुकूल साज-सज्जा में। बच्चों के लिए बहुत शिक्षाप्रद होगा यह।
जवाब देंहटाएंदीपिका जी यह पुस्तक प्रकाशित हो चुकी है जिसे आप ऊपर देख रहीं हैं । पढकर आपको अच्छा लगा तो तय है कि इसमें कुछ संभावनाएं हैं ।
हटाएंदीदी,
जवाब देंहटाएंअगर मैं कहूँ कि मेरी आँखें इसे पढते हुए गीली हो रही हैं तो आप यकीन कर लेंगी न?? मुझे आज मेरे दादा जी बहुत याद आ रहे हैं.. मैं जब उनके सामने रश्मिरथी पढ़ता था तो कर्ण-कुंती संवाद या परशुराम-कर्ण संवाद के बीच मेरे स्वर के उतार चढ़ाव के साथ उनकी आँखों से आंसुओं की अविरल धार बहती जाती थी..
आज आपके इस काव्य के अंश को पढकर ही मुझे लगा कि अगर आज दादाजी हमारे बीच होते तो मैं यह पूरा बाल खंड-काव्य उनके सामने पढ़ रहा होता!! बस अब तो प्रतीक्षा है इस पुस्तक के हाथ में आने की!!
बधाई, आपके लिए बहुत छोटी सी बात है दीदी!!
बड़ी मेहनत भरा काम है
जवाब देंहटाएंढेर सारी बधाइयाँ स्वीकारें इस मोहक काव्यखंड के लिए।
जवाब देंहटाएंअच्छी वस्तुओं की आयु नहीं होती। :)
बेबाकी से यही कह सकती हूँ कि ध्रुवगाथा पढ़ने की इच्छा हो रही...
जवाब देंहटाएं"वत्स कौन हो ?और यहाँ तुम कैसे आए?
घोर विपिन में तुम क्यों जरा नही घबराए ?"
"घबराऊँगा क्यों ? प्रभु से मिलने निकला हूँ
राजपुत्र हूँ पर काँटों के बीच पला हूँ ।
यह तो आप कहें कैसे आए हैं मुनिवर
कहीं आप ही तो हैं नही पिता परमेश्वर
माँ ने कहा रूप कोई भी रख लेते हैं
यूँ भगवान भक्त को खूब परख लेते हैं ।
यह सच है तो अपना असली रूप दिखाओ
बाहों में ले लो फिर अपने गले लगाओ ।"
......
बिल्कुल अपठनीय और गद्यमय होते जा रहे काव्य परिदृश्य पर आपकी यह कविता (खंड काव्य) इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि आपने कविता की मूलभूत विशेषताओं को प्रयोग के नाम पर छोड़ नहीं दिया है।
जवाब देंहटाएंबौद्धिक सन्निपात से ग्रस्त काव्य के युग में इस तरह की कविताएं पढ़ना मानसिक सुकून देता है।
आप सबके कथन पढकर विश्वास हो रहा है इस कृति की सार्थकता पर । धन्यवाद । रश्मि जी आप पता दें तो आपको एक प्रति भेज सकती हूँ ।
जवाब देंहटाएंदीदी, ढेर सारी बधाई आपको.. मैं तो सोच कर दंग हूँ कि इतनी अद्भुत रचना २५ साल तक कैसे समाज से दूर रही....
जवाब देंहटाएंआपकी किताब कहाँ से मैं ले सकता हूँ, बस ये बता दीजिये...
जवाब देंहटाएंअभिषेक आप अपना पता भेज दीजिये । मैं आपको पोस्ट कर दूँगी ।
हटाएंDidi, aap hi ke batane par mene bhi sabse pahle panchbati hi padi thi,nishchit hi gahra prabhav chhoda mere man par us rachna ne.... Babhut bahut dhanybad aapka,mera parichay sahitya se karane ke liye
जवाब देंहटाएंhttp://naiduniaepaper.jagran.com/Details.aspx?id=402545&boxid=29734032
जवाब देंहटाएंसलिल भैया की समीक्षा पढ़ी...इसे भी पढ़ा..मन खुश हुआ कि अभी भी इतना सुंदर खण्ड-काव्य लिखा जा रहा है।
जवाब देंहटाएं