गुरुवार, 5 दिसंबर 2024

अबूझ मन

 बहुत विचित्र है मन भी  

जहाँ भी जाना होता है ,

चल देता है हुमक कर

मुझसे पहले ही ।

बावज़ूद इसके कि 

कोई नहीं जानता इसे ।

नहीं सुनता-समझता  

कोई इसकी भाषा ।

फिर भी कहना चाहता है

अपनी बात ,

चाहे कोई सुने न समझे ।

सुनकर औरों की बातें ,  

मतलब निकाल लेता है,

अपनी तरह का ।

गढ़ लेता है कहानियाँ प्रेम की ,

संवेदना और लगाव की ।

दिल से दिल के जुड़ाव की ।

चल पड़ता है कहीं भी 

नंगे पाँव ही ,

बिना सोचे समझे

सुनकर सिर्फ दो बोल अपने से ।

नंगे पाँव लहूलुहान होते हैं 

काँटे कंकड़ चुभते हैं

जलते हैं गरम रेत पर ..

लेकिन भूल जाता है

पाकर जरा सी नमी ।

पा लेता ज़मीं ।

खुश रहता है ठगा जाकर भी । 

इसका कुछ नहीं होने वाला अब

फिर ‘कुछ’ होकर भी ,

आखिर होना क्या है !

8 टिप्‍पणियां:

  1. और जब 'कुछ' नहीं होना जान लेता है मन तब बिछ जाती है शांति की एक चादर दूर तक, तब तक तो उसे बिंधना ही होगा, यही उसूल है

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 07 दिसंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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  3. बहुत विचित्र है मन भी
    जहाँ भी जाना होता है ,
    चल देता है हुमक कर
    मुझसे पहले ही ।

    मन की चाल के क्या कहने।
    स्थिरता तो सीखी ही नहीं।
    प्रासंगिक रचना।

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  4. बहुत विचित्र है मन भी
    जहाँ भी जाना होता है ,
    चल देता है हुमक कर
    मुझसे पहले ही ।

    मन की चल के क्या कहने।
    अनवरत चलने का आदी।
    अच्छी रचना।

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  5. सही कहा आपने ,ये मन होता ही ऐसा है ..खूबसूरत सृजन!

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  6. सही कहा आपने ,ये मन होता ही ऐसा है ..खूबसूरत सृजन!

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