बहुत विचित्र है मन भी
जहाँ भी जाना होता है ,
चल देता है हुमक कर
मुझसे पहले ही ।
बावज़ूद इसके कि
कोई नहीं जानता इसे ।
नहीं सुनता-समझता
कोई इसकी भाषा ।
फिर भी कहना चाहता है
अपनी बात ,
चाहे कोई सुने न समझे ।
सुनकर औरों की बातें ,
मतलब निकाल लेता है,
अपनी तरह का ।
गढ़ लेता है कहानियाँ प्रेम की ,
संवेदना और लगाव की ।
दिल से दिल के जुड़ाव की ।
चल पड़ता है कहीं भी
बिना सोचे समझे
सुनकर सिर्फ दो बोल अपने से ।
नंगे पाँव लहूलुहान होते हैं
काँटे कंकड़ चुभते हैं
जलते हैं गरम रेत पर ..
लेकिन भूल जाता है
पाकर जरा सी नमी ।
पा लेता ज़मीं ।
खुश रहता है ठगा जाकर भी ।
इसका कुछ नहीं होने वाला अब
फिर ‘कुछ’ होकर भी ,
आखिर होना क्या है !
और जब 'कुछ' नहीं होना जान लेता है मन तब बिछ जाती है शांति की एक चादर दूर तक, तब तक तो उसे बिंधना ही होगा, यही उसूल है
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 07 दिसंबर 2024 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !
जवाब देंहटाएंबहुत विचित्र है मन भी
जवाब देंहटाएंजहाँ भी जाना होता है ,
चल देता है हुमक कर
मुझसे पहले ही ।
मन की चाल के क्या कहने।
स्थिरता तो सीखी ही नहीं।
प्रासंगिक रचना।
बहुत विचित्र है मन भी
जवाब देंहटाएंजहाँ भी जाना होता है ,
चल देता है हुमक कर
मुझसे पहले ही ।
मन की चल के क्या कहने।
अनवरत चलने का आदी।
अच्छी रचना।
सुन्दर
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने ,ये मन होता ही ऐसा है ..खूबसूरत सृजन!
जवाब देंहटाएंसही कहा आपने ,ये मन होता ही ऐसा है ..खूबसूरत सृजन!
जवाब देंहटाएंअति उत्तम सृजन
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