सुबह सुबह
जब मेरी पलकों में समाया
था
कोई स्वप्न .
नीम के झुरमुट में चहचहा
रही थीं चिड़ियाँ
चिंता-मग्न तलाश रही
थीं कि
“अरे ,कहाँ गया सामने
वाला बड़ा सा पीपल ?
कौन ले गया बरगद ,इमली
,नीम ,गुडहल ?.
कहाँ गया नीला नारंगी
आसमान ?”
सुन सुनकर मैं भी हैरान
,
उठकर देखा
सचमुच नहीं है अपनी
जगह
दीनू की दुकान
सरपंच की अटारी और मंगलू
का मकान
फैलू की झोपडी पर सेम-लौकी
का वितान
चिड़ियों की उड़ान
धुंध में डूबे हैं दिशाओं
के छोर
चारों ओर
सारे दृश्य अदृश्य
सुनाई दे रही हैं सिर्फ
आवाजें ,
चाकी के गीत ,चिड़ियों
का कलरव
गाड़ीवाले की हांक ,
खखारता गला कोई
छिनककर साफ करता नाक
क्या
है जो फैला है
धुंधला सा पारभाषी आवरण
कदाचित्
बहेलिया चाँद ने
पकड़ने तारक-विहग
फैलाया है जाल
या सर्दी से काँपती ,ठिठुरती
धरती ने
सुलगाया है अलाव
उड़ रहा है धुआँ .
या आकाश के गली-कूचों
में
हो रही है सफाई
उड़ रही है धूल .
या मच्छरों से बचाव
के लिये
उड़ाया जा रहा है
फॉग
या शायद ‘गुजर’ गयी रजनी
उदास रजनीश कर रहा है
,
उसका अंतिम-संस्कार
या कि
साजिश है किसी की
सूरज को रोकने की .
नहीं दिखा अभी तक .
बहुत अखरता है यों
किसी सुबह
सूरज का बंदी होजाना
.
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(1987 में रचित
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