दिल में वो ज़ज़बात नही हैं जाने क्यों ?
सुधरे कुछ हालात नही हैं जाने क्यों ?
कहते हैं ,कोशिश की थी पूरे दम से,
तीन ढाक के पात वही हैं जाने क्यों ?
वो भी दिन थे ,जब पैदल ही जाते थे ।
मुँह बाँधे बस मिर्च-पराँठे खाते थे ।
हर दुकान किस तरह बुलाती थी हमको,
कैसे हर हसरत को रोक दबाते थे ।
अब पैसा है ,फुरसत है ,सुविधाएं भी हैं
पर मेले में वो बात नही है जाने क्यों ?
भीग ठिठुरते तलाशते सूखा कोना ।
कीट-केंचुआ गीली लकडी का रोना ।
जहाँ टपकती बूँद , कटोरा रखते थे
कितना मुश्किल सीली कथरी पर सोना ।
पक्का है घर अब , छत बालकनी भी है
पर वैसी बरसात नही है जाने क्यों ?
है विकास की गूँज शहर और गाँवों में ।
टीवी ,अखबारों ,भाषण ,प्रस्तावों में ।
फैल गया बाजार गली घर आँगन तक ,
हर कोई अब चतुर हुआ है भावों में ।
सुख-सुविधाएं अब पहले से ज्यादा हैं
चिन्ता का अनुपात वही है जाने क्यों ?
सुधरे कुछ हालात नही हैं जाने क्यों ?
कहते हैं ,कोशिश की थी पूरे दम से,
तीन ढाक के पात वही हैं जाने क्यों ?
वो भी दिन थे ,जब पैदल ही जाते थे ।
मुँह बाँधे बस मिर्च-पराँठे खाते थे ।
हर दुकान किस तरह बुलाती थी हमको,
कैसे हर हसरत को रोक दबाते थे ।
अब पैसा है ,फुरसत है ,सुविधाएं भी हैं
पर मेले में वो बात नही है जाने क्यों ?
भीग ठिठुरते तलाशते सूखा कोना ।
कीट-केंचुआ गीली लकडी का रोना ।
जहाँ टपकती बूँद , कटोरा रखते थे
कितना मुश्किल सीली कथरी पर सोना ।
पक्का है घर अब , छत बालकनी भी है
पर वैसी बरसात नही है जाने क्यों ?
है विकास की गूँज शहर और गाँवों में ।
टीवी ,अखबारों ,भाषण ,प्रस्तावों में ।
फैल गया बाजार गली घर आँगन तक ,
हर कोई अब चतुर हुआ है भावों में ।
सुख-सुविधाएं अब पहले से ज्यादा हैं
चिन्ता का अनुपात वही है जाने क्यों ?
आपकी अंतिम पंक्ति ने सारे सवालों का जवाब दे दिया...चिंता का अनुपात जब तक वही रहेगा तब तक बाहर कुछ भी बदल जाये भीतर कुछ न बदलेगा...
जवाब देंहटाएंआज के सन्दर्भ में कितनी मार्मिक कविता! सच में पहले कुछ नहीं था तब भी जीवन जिया जाता था और आज सब कुछ है तब भी जीवन, जीवन नहीं रहा।
जवाब देंहटाएंदीदी! बहुत सारी बचपन की तस्वीरें नज़रों के सामने से निकल गयीं. वे अभाव, वे छोटी छोटी तकलीफें, वो कच्चा घर, वो टपकता छप्पर, लेकिन उसके बावजूद भी एक खुशियों से भरे थे वे दिन. एक बड़ी अच्छी बात कही है ओशो ने. वे कहते हैं कि बचपन की पराकाष्ठा बुढ़ापे पर होती है, तो बचपन (जिसे सब स्वर्णिम काल कहते हैं) की खुशियों की पराकाष्ठा बुढ़ापे में असीम और अपरिमित खुशी के साथ होनी चाहिये थी. लेकिन ऐसा नहीं है. जाने क्यों!!
जवाब देंहटाएंआज आपका भी सवाल वही है. और अपनी दीदी के सवाल पर बड़े भाई श्री रविन्द्र शर्मा जी के दो शे'र यहाँ कह्ना चाहूँगा:
तुम्हारे शहर में सावन का मतलब सिर्फ सीलन है,
यहाँ बरसात में खुशबू नहीं आती मकानों से.
फिरकनी, कागजों की चूड़ियाँ, हामिद का वो चिमटा
ये चीज़ें अब कहाँ मिलती हैं इन ऊंची दुकानों से.
विकास और तरक्की, सुख और समृद्धि, भवन और अट्टालिकाएँ... उन बीते अभावों का स्थानापन्न नहीं हो सकतीं! जाने क्यों!!
रचनाओं से कहीं अधिक पठनीय लगतीं हैं मुझे ये टिप्पणियाँ और कितनी सुन्दर पंक्तियाँ हैं भाई श्री रवीन्द्र जी की । इससे सुन्दर जबाब क्या होसकता है ।
जवाब देंहटाएंBhai saahab ke naam me SHRI ke saath JI bhi laga diya hai (abhi gaur kiya).. So Hindi ki shikshika se kshama!! :-)
जवाब देंहटाएंभाई, यह सम्मान व स्नेह के अतिरेक का परिचायक है ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : आंसुओं के मोल
हर दिल में आज यही सवाल है ...बेहतरीन रचना ...... !!
जवाब देंहटाएंजाने क्यों ---यक्ष प्रश्न लगता है
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट नेता चरित्रं
नई पोस्ट अनुभूति
एक समय के बाद मन वहीं ठहर जाता है ... पर उम्र बढती जाती है .. बदलाव भी जारी रहता है समय के साथ ... ऐसे में मन ढूँढता है वही ठिकाने, वही पल जो बदल जाते हैं प्रतिपल ...
जवाब देंहटाएंये सवाल नहीं मन की उलझन है नासुलाझने वाली ...
बहुत उम्दा भावपूर्ण प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
Shayad abb chintaon kaa dayaara badal gaya hai...Bahut acchhee rachanaa..
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