(1)
मैं इस बार पूरे साल
बचाती रही अपने आपको ,
बचाती रही अपने आपको ,
डूबने से ..अनुभूतियों के समन्दर में .
शुरुआत में ही ..
उस भयानक सच को ,
पचाने की कुब्बत ही न रही कि
कैंसर ग्रस्त माँ अब ,
नही रहने वाली हमारे साथ
ज्यादा दिनों तक .
चार माह बिस्तर पर
उस भयानक सच को ,
पचाने की कुब्बत ही न रही कि
कैंसर ग्रस्त माँ अब ,
नही रहने वाली हमारे साथ
ज्यादा दिनों तक .
चार माह बिस्तर पर
तिल तिल कर उनके जीवन का
गलना और निकलना .
गलना और निकलना .
हताशा , उपेक्षा और बेजान हुए रिश्तों के बीच..
आहों कराहों में अपनत्त्व के लिये तरसना
आहों कराहों में अपनत्त्व के लिये तरसना
और मेरा निरुपाय उन्हें देखते रहना ,
गुजरना था दकदकाती सी
एक असहनीय अव्यक्त पीड़ा से,
जिसे शब्द देने की कोशिशों में
होती रही लहूलुहान .
लेकिन पक कर फूट नही पाया ,
एक असहनीय अव्यक्त पीड़ा से,
जिसे शब्द देने की कोशिशों में
होती रही लहूलुहान .
लेकिन पक कर फूट नही पाया ,
अन्दर कहीं उभरता हुआ एक फोड़ा .
साल रहा है आज तक .
मुक्त नहीं होसकी हूँ .
साल रहा है आज तक .
मुक्त नहीं होसकी हूँ .
और व्यस्त रहती हूँ खुद को समझाने में .
खुद को समझाना बहलाना .
भटकाना है ,
लेजाना है खुद को खुद से दूर .
किनारे पर बैठकर कहाँ मिलते हैं मोती .
किनारे पर बैठकर कहाँ मिलते हैं मोती .
दर्द से बचकर कौन लिख सका है ?
एक सच्ची कविता .
एक साल और गुजर गया यानी
जीने और कुछ कर दिखाने की सोच के पर्स से
गिर गया कहीं एक और नोट .
खत्म हो जाएंगे यों ही ..
अव्यक्त संवेदनाएं भी मर जाएंगी अन्ततः
छटपटाती हुई,
अफसोस है ओ समय
तेरे यूँ ही खाली हाथ गुजर जाने का
पर कोशिश है कि
अब ना गुजरे कोई लम्हा
यूँ अफसोस देकर
तेरे यूँ ही खाली हाथ गुजर जाने का
पर कोशिश है कि
अब ना गुजरे कोई लम्हा
यूँ अफसोस देकर
(2)
खुशियाँ भी तो
अड़ जाती है शब्दों की राह में .
जबकि जाते जाते डाल गया यह साल
मेरी गोद में एक सलौना
अड़ जाती है शब्दों की राह में .
जबकि जाते जाते डाल गया यह साल
मेरी गोद में एक सलौना
नन्हा मुन्ना उपहार .
नही लिख पा रही ,
एक पंक्ति भी गीत या कविता की .
एक पंक्ति भी गीत या कविता की .
व्यस्त हूँ मैं
नवजात को सम्हालते हुए ,
नहलाना ,मालिश करना
बार-बार नैपी बदलना ,
झूला ,लोरी ,मालिश ,नहलाना....
आजकल यही कविता है ,
यही कहानी है .
लेकिन विश्वास रहे कि
लेकिन विश्वास रहे कि
कल इन्हें शब्दों में भी बाँध सकूँगी .
(3)
(3)
संकल्प लेती रही हूँ
नए साल पर हर बार कि ,
"ठहरने नही दूँगी खुद को ,
पोखर के पानी की तरह .
नए साल पर हर बार कि ,
"ठहरने नही दूँगी खुद को ,
पोखर के पानी की तरह .
बहती रहूँगी नदी बनकर .
सही समय पर सोना जागना रखूँगी .
यथार्थ से दूर नहीं भागूँगी ..
अच्छे लोगों से परिचय का दायरा बढ़ाऊँगी
अच्छे लोगों से परिचय का दायरा बढ़ाऊँगी
हर अनुभूति को आत्मीय बनाकर
रोज कुछ ना कुछ लिखूँगी ."
पर मुकरता रहा है मन
अपने ही वादों से .
पर मुकरता रहा है मन
अपने ही वादों से .
उम्मीद करती हूँ कि
नए साल में ,
नही करना पड़ेगा
कोई अफसोस .
नही करना पड़ेगा
कोई अफसोस .
अपने आपको दिए वचनों को
भूल जाने का .
भूल जाने का .
आप सब परिजन प्रियजन को नया साल मुबारक
माँ के कैंसर का भयानक सच पता चला .
जवाब देंहटाएंफिर चार माह बिस्तर पर
तिल तिल कर उनका जीवन
गलता निकलता रहा .
इससे ज्यादा पीड़ादायक कुछ नहीं होता है । नमन माँ को ।
नव वर्ष की मंगलकामनाएं ।
जीवन और मृत्यु दोनों जीवन के अटल सत्य हैं और सत्य है मन की हर संवेदना फिर चाहे वह व्यक्त हुई हो या न हुई हो..क्यों कि उस एक की नजर से कुछ भी छुपा नहीं रहता..नये वर्ष के लिए शुभकामनायें..
जवाब देंहटाएंजीवित प्रसंग जब कविता के माध्यम से उतरने लगते हैं तो कविता भी सजीव हो उठती है ... निराशा और आशा समय के साथ ही चलते हैं ... धुप छाँव को रोकना मुश्किल होता है ... नव वर्ष मंगलमय हो ....
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