सोमवार, 12 दिसंबर 2016

कोहरे में ढँका सबेरा

लगभग तीस वर्ष पूर्व लिखी (जब मैं गाँव में थी)यह कविता मेरे नए कविता संग्रह 'अजनबी शहर में ' में भी है . यह कविता इन दिनों भी प्रासंगिक है .  
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अभी जब मेरी पलकों में समाया था कोई स्वप्न .
नीम के झुरमुट में चहचहा उठीं चिड़ियाँ चिंता-मग्न—

अरे अरे ,कहाँ गया वह सामने वाला पीपल ?
कौन ले गया बरगद ,इमली ,नीम ,गुडहल ?.
कहाँ है नीला नारंगी आसमान ?
तब देखकर मैं भी हैरान ,
कि सचमुच नहीं हैं अपनी जगह
दीनू की दुकान 
सरपंच की अटारी और मंगलू का मकान
फैलू की झोपडी पर सेम-लौकी का वितान
धुंध में डूबे हैं दिशाओं के छोर
चारों ओर
सारे दृश्य अदृश्य
सुनाई दे रहे हैं सिर्फ आवाजें ,
चाकी के गीत ,चिड़ियों का कलरव
गाड़ीवाले की हांक ,
किसी की साफ होती नाक
फैला है एक धुंधला सा पारभाषी आवरण .
कदाचित्
बहेलिया चाँद ने
तारक-विहग पकड़ने फैलाया है जाल
या सर्दी से कंपकंपाती धरती ने
सुलगाया है अलाव
उड़ रहा है धुआँ .
या आकाश के गली-कूचों में
हो रही है सफाई  
या फिर रात की ड्यूटी कर 
लौट रहा है प्रतिहारी चाँद
उड़ रही है धूल .
या फिर ‘गुजर’ गयी रजनी
उदास रजनीश कर रहा है
उसका अंतिम-संस्कार
या कि  
यह धुंधलका जो
फैल गया है भ्रष्टाचार की तरह
किसी की साजिश है
सूरज को रोकने की .
नहीं दिखा अभी तक .
बहुत अखरता है यों
किसी सूरज का बंदी होजाना .
(1987 में रचित )

5 टिप्‍पणियां:

  1. समय के दाद्लाव का सबसे गहरा आघात तो शायद यही है ...
    आपने जिस बाखूबी से पूरे दौर के परिवर्तन को लिखा है वो एक चल-चित्र की तरह यादों से गुजर जाता है ....

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 14 दिसम्बर 2016 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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