एक जंगल से गुजरते हुए ,
लिपटे चले आए हैं ,
कितने ही मकड़जाल.
कितने ही मकड़जाल.
चुभ गए कुछ तिरछे नुकीले काँटे
धँसे हुए मांस-मज्जा तक .
टीसते रहते हैं अक्सर .
महसूस नही कर पाती ,
क्यारी में खिले मोगरा की खुशबू .
अब मुझे शिकायत नही कि,
तुम अनदेखा करते रहते हो मेरी पीड़ाएं .
यह समस्या तो मेरी है कि ,
काँटों को निकाल फेंक नही सकी हूँ ,
अभी तक .
काँटों को निकाल फेंक नही सकी हूँ ,
अभी तक .
कि सीखा नही मैंने
आसान सपाट राह पर चलना .
कि यह जानते हुए भी कि,
तन गईं हैं कितनी ही दीवारें
आसमान की छाती पर ,
मैं खड़ी हूँ आज भी
उसी तरह , उसी मोड़ पर
जहाँ से कभी देखा करती थी .
सूरज को उगते हुए .
कि ठीक उसी समय जबकि ,
सही वक्त होता है
अपनी बहुत सारी चोटों और पीड़ाओं
के लिये
‘तुम’
को पूरी तरह जिम्मेदार मानकर
तुम से ..इसलिये पीड़ा से भी
छुटकारा पाने का.
छुटकारा पाने का.
और आश्वस्त करने का ‘मैं’ को ,
मैं अक्सर तुम्हारी की जगह आकर
विश्लेषण करने लगती हूँ ,
तुम' की उस मनोदशा के कारण का ,
उसके औचित्य-अनौचित्य का.
और ...
मैं' के सही-गलत होने का भी .
तुम' की उस मनोदशा के कारण का ,
उसके औचित्य-अनौचित्य का.
और ...
मैं' के सही-गलत होने का भी .
तब मुक्त कर देती हूँ ‘तुम’ को
हर अपराध से .
इस तरह हाशिये पर छोड़ा है
एक अपराध-बोध के साथ सदा ‘मैं’ को
खुद मैंने ही .
विडम्बना यह नही कि
दूरियाँ सहना मेरी नियति है .
बल्कि यह कि आदत नही हो पाई मुझे
उन दूरियों की अभी तक .
जो है ,जिसे होना ही है
उसकी आदत न हो पाने से बड़ी सजा
और क्या हो सकती है .
पता नही क्यूँ ,
जबकि जरूरत नही है
उस पार जा कर बस गए लोगों को,
मेरा सारा ध्यान अटका रहता है
एक पुल बनाने में .
उनके पास जाने के लिये ,
जिनके बिना रहना
सीखा नही मैंने अब तक .
चली जा रही हूँ उन्ही के पीछे
चली जा रही हूँ उन्ही के पीछे
जो देखते नही एक बार भी मुड़कर .
यह मेरी ही समस्या है कि,
यह मेरी ही समस्या है कि,
कि मुझे हवा के साथ चलना नही आता
नहीं भाता ,धारा के साथ बहना
.
प्रायः बैर रहता है मगर से ही ,
जल में रहते हुए भी .
यह समस्या मेरी ही है
यह समस्या मेरी ही है
कि मैं खड़ी रहती हूँ
अक्सर बहुत सारे मलालों
और सवालों के घेरे में
खुद ही .
और सवालों के घेरे में
खुद ही .
(200 वीं पोस्ट)
यह समस्या मेरी ही है
जवाब देंहटाएंकि मैं खड़ी रहती हूँ
अक्सर बहुत सारे सवालों के घेरे में
खुद ही . ..
गिरिजा जी, बिलकुल सही है .
इन्सान का खुद के सवालों का घेरा ही इतना बड़ा होता है की चाह कर भी वो इस घेरे से बाहर नहीं आ पाता! बढ़िया प्रस्तुति ...
यह समस्या मेरी ही है
जवाब देंहटाएंकि मैं खड़ी रहती हूँ
अक्सर बहुत सारे सवालों के घेरे में
खुद ही . ..
गिरिजा जी, बिलकुल सही है .
इन्सान का खुद के सवालों का घेरा ही इतना बड़ा होता है की चाह कर भी वो इस घेरे से बाहर नहीं आ पाता! बढ़िया प्रस्तुति ...
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 28 जुलाई 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण...जब तक कोई खुद के पास नही आ पाता तब तक दूरियां खत्म नहीं हो सकतीं..कितना ही जतन करें..सारी तलाश खुद तक ही ले आती है एक न एक दिन...
जवाब देंहटाएंभावप्रवण रचना ,सुन्दर अभिव्यक्ति गिरजा जी |
जवाब देंहटाएंसबसे पहले तो २०० पोस्ट की बधाई ...
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहरी, भावपूर्ण और खुद से ही अंतर्द्वंद करती प्रभावी रचना ... खुद का सकारात्मक दृष्टिकोण प्रबल रहता है तो सभी ऐसे होंगे ऐसी आपेक्षा का रहना स्वाभाविक है ... सवालों के इस घेरे में भी इंसान खुद ही जाता है और खुद ही निकल आता है ... और उस पुल बनाने की कोशिश में दुबारा जुट जाता है ...
in samsayon k dayre jane kyon gher lete hain mn ki sakht diwaron ko ... bhavmay karti abhivykti
जवाब देंहटाएंनिहार रंजन
जवाब देंहटाएं10:56 PM (1 hour ago)
to me
निहार रंजन ने आपकी पोस्ट " वर्षा दीदी आई " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
आपके दूसरे ब्लॉग पर कविता पढ़ी. 'यह मेरी समस्या है'. निम्न टिपण्णी उसी के लिए है. वहां सिर्फ 'टीम मेम्बर्स' को टिप्पणी की अनुमति है-
ना जाने कितने पुलों का निर्माण करना होता है जीवन में. और लोग उसी पुल से निकले रास्ते के दोराहे से आगे निकल जाते हैं. जीवन फिर नयी चुनौतियों से निबटने की तयारी करने लगता है. आखिरकार इसी चक्र का स्वीकार जीवन है. मुझे ऐसा लगता है. जीवन के अंतर्द्वंद का सुन्दर दर्पण है आपकी यह रचना.
निहार रंजन
जवाब देंहटाएं10:56 PM (1 hour ago)
to me
निहार रंजन ने आपकी पोस्ट " वर्षा दीदी आई " पर एक टिप्पणी छोड़ी है:
आपके दूसरे ब्लॉग पर कविता पढ़ी. 'यह मेरी समस्या है'. निम्न टिपण्णी उसी के लिए है. वहां सिर्फ 'टीम मेम्बर्स' को टिप्पणी की अनुमति है-
ना जाने कितने पुलों का निर्माण करना होता है जीवन में. और लोग उसी पुल से निकले रास्ते के दोराहे से आगे निकल जाते हैं. जीवन फिर नयी चुनौतियों से निबटने की तयारी करने लगता है. आखिरकार इसी चक्र का स्वीकार जीवन है. मुझे ऐसा लगता है. जीवन के अंतर्द्वंद का सुन्दर दर्पण है आपकी यह रचना.
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण अभिव्यक्ति, प्रभावी कविता...ब्लॉग पर प्रतिक्रिया के लिए आभार
जवाब देंहटाएं२०० पोस्ट की बधाई ...
जवाब देंहटाएंदीदी! बहुत दिनों बाद यहाँ आया, बीच में एक पोस्ट पढ़ी और उसपर अपनी बात भी कही थी मैंने, लेकिन यह कविता क्यों और कैसे नहीं देख पाया इसका मुझे अफ़सोस है. पता नहीं किस मनोदशा के प्रभाव में आपने यह कविता लिखी है या फिर लिखने के पीछे क्या मनोभाव रहे हैं, लेकिन किसी भी सम्वेदनशील व्यक्ति के लिये यह कविता एक दर्पण के समान है, जिसने इसमें झाँकने की कोशिश की उसे उसकी ही तस्वीर दिखाई देती है.
जवाब देंहटाएंआप हमेशा कहा करती हैं कि हम दोनों भाई-बहन एक सी सोच रखते हैं. आज इस कविता को पढते हुये मुझे मेरी एक कविता याद आई, जिसमें लगभग यही बातें मैंने कही हैं. लेकिन आपने मेरी सोच को बौना और मेरी सम्वेदना को एक बुलन्द ऊँचाई प्रदान की है. आपकी कविता की प्रत्येक पंक्ति पर कुछ न कुछ कह सकता हूँ, लेकिन कहने से अधिक इसको अंतस में महसूस करना आवश्यक है. एक बात जो हमेशा मैंने कही है, सामान्य से लगने वाले शब्दों को सम्मान देकर आप जिस व्यवस्था से एक रचना का सृजन करती हैं, वह असामान्य प्रभाव छोड़ती है मन पर.
कभी अवसर मिला तो आपको अपनी कविता भी पढने को दूँगा ताकि आप समझ सकें कि पाँच साल पहले की रचना आपके साथ कितना साम्य रखती है. गर्भनाल के ही नहीं अंतर्जाल के सम्बन्ध भी शायद परमात्मा की ही रचना हैं. प्रणाम करता हूँ आपको!
मैं बस निःशब्द हूँ इस प्रतिक्रिया पर . अपनी कविता जरूर भेजिये .
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