माँ को जो खड़ी है जीवन के
अंतिम पड़ाव पर ,
चुग्गा की तलाश में
किसी चिड़िया सी ही
वह जीवनभर उडती रही है
यहाँ-वहां , ऐसे-वैसे
बस मुडती रही है .
आजीवन असुविधाओं की अभ्यस्त रही माँ
आजीवन असुविधाओं की अभ्यस्त रही माँ
नहीं चाहती कोई खास एशोआराम
सिर्फ एक आत्मीय सम्बोधन
सुबह-शाम .
अस्त्तित्त्व और अधिकार के
सारे प्रश्न उसके लिये हैं बेकार
जो कुछ भी था उसके पास
तुम्हें सब दे चुकी है .
अब थके-हारे पांवों को ,
तुम दे दो सिर्फ थोड़ी सी जमीन.
जमीन --
अपनत्त्व की
घर में उसके अस्तित्त्व की
तुम्हारा जो कुछ है ,उसका भी है .
जमीन--
आश्वस्ति की कि
आश्वस्ति की कि
अशक्त और अकर्म होकर भी
माँ अतिरिक्त या व्यर्थ नहीं है
कि ,पढ़ और समझ सकते हो ,
उसके चेहरे की किताब का
एक एक शब्द
उसके चेहरे की किताब का
एक एक शब्द
जमीन ,
छोटी छोटी बड़ी बातों की
छोटी छोटी बड़ी बातों की
कि दफ्तर से लौटकर
कुछ पलों के लिए ही सही
बेटा मिलकर ही जाता है
अपने कमरे में .
पास बैठकर हाल-चाल पूछता है
ना नुकर करने पर भी
बुला लेता है अपने साथ खाने पर .
कि एक पिता की तरह .
घर में बनी या
बाजार से लाई हर चीज
माँ को देता है ,खुद खाने से पहले
नकारकर कहीं से उभरती आवाज को कि,
“अरे छोड़ो ,बड़ी-बूढ़ी क्या खाएंगीं !”
कि रख देता है माँ की हथेली पर
पांच-पचास रुपए बिना मांगे ही .
भले ही वह लौटा देती है
“मैं क्या करूंगी ”, कहकर
लेकिन पा लेती है वह
अपने लिए एक ठोस जमीन .
सन्तान को अक्सर कहा जाता है
बुढ़ापे की लाठी .
सन्तान को अक्सर कहा जाता है
बुढ़ापे की लाठी .
तुमसे है अभिन्न ,
फिर माँ क्यों है विच्छिन्न ?
जरा देख तो लो
जरा देख तो लो
माँ की आँखें क्यों रहतीं हैं खोई खोई सी ?
क्यों रात में सोते-सोते
घबराकर उठ जाती है ?
मौन मूक माँ की आँखें
उन आँखों की भाषा पढलो-समझ लो .
सहलादो माँ की बोझ ढोते थकी पीठ
सहलादो माँ की बोझ ढोते थकी पीठ
उठालो ,देखो
बौछारों में भीग न जाए वह जर्जर किताब
एक दुर्लभ इतिहास
अनकहे अहसास
खो जाएंगे जाने कब ! कहाँ !
दो पल ठहरकर सोचो कि,
दो पल ठहरकर सोचो कि,
माँ ने तो दे दी तुम्हें एक पूरी दुनिया .
तुम दे दो माँ को थोड़ी सी जमीन
बिना गमगीन वह ,
बिना गमगीन वह ,
पसार सके अपने लड़खड़ाते पाँव ,
निश्चिन्तता के साथ .
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, नौशेरा का शेर और खालूबार का परमवीर - ब्लॉग बुलेटिन , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंधन्यवाद मिश्रा जी .
हटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज शनिवार (04-07-2015) को "सङ्गीतसाहित्यकलाविहीना : साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीना : " (चर्चा अंक- 2026) " (चर्चा अंक- 2026) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
धन्यवाद शास्त्री जी .
हटाएंवाह - सुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ,हर बेटे के लिए करनीय कार्य -
जवाब देंहटाएंसही कहा
जवाब देंहटाएंमन भर आया रचना के बाद ... सही है माँ कुछ नहीं चाहती बस कुछ बातों के और अगर ये सुख कोई भी बेटा दे पाए तो उसका अगला पिछला सभी जन्म सुधर जायें ... किस्मत वाले बच्चों को ही ये सेवा नसीब होती है ... इन पलों को लपक के सहेजना चाहिए ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण रचना और हर माँ के दिल की आखिरी इच्छा...
जवाब देंहटाएंमाँ दो जून की रोटी की भूखी नहीं होती है वह तो दो मीठे बोल की भूखी होती हैं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना
बेहद बेहद सुन्दर...मन को छूती हुई !
जवाब देंहटाएंवह कैसे खिल उठती है
जवाब देंहटाएंमोगरे की कली सी .
“मेरा बेटा ...”,
सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना