पिछली पोस्ट में आपने तीन दुखान्त आख्यानक गीतों के विषय में पढा । आज कुछ और गीत हैं जो पूर्ण आख्यान तो नहीं कहे जासकते पर संवाद उन्हें कथा जैसा ही रूप देते हैं । इनमें वाक् चातुर्य ,रूप-सौंन्दर्य तथा स्नेह--माधुर्य पूरे प्रभाव के साथ उपस्थित है । तत्कालीन समाज में वर्ग ,जाति आदि के कठोर बन्धनों के बावजूद तब भी न तो रूप-सौन्दर्य के जादू को बाँधा जा सका न ही प्रेम पर पहरा लगाया जा सका । क्योंकि यह तो सदा से ही मानव के स्वभाव से अभिन्न रूप से जुडा है ।
(4) धोबिन
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इस मधुर गीत में धोबी की रूपवती कन्या अपने जातीय गौरव व स्वाभिमान के साथ हमारे सामने आती है । वह रूपवती व रूपगर्विता ही नही वाक् पटु और चतुर भी है । कपडे धोना उसका पुश्तैनी व्यवसाय है जिसे वह स्वाभिमान के साथ निभाती है और रोज तालाब पर जो बगुलों की पंक्तियोंसे सज्जित रहता है ,कपडे धोने जाती है । एक दिन एक बाँका 'सिपहिया' उधर से गुजरता है । उसकी नजर जब कपडे धोने जैसा कठोर कार्य करती हुई उस सुन्दर कोमलांगी षोडशी पर पडती है तो मुग्ध हुआ खडा रह जाता है और टोकने से अपने आपको रोक नही पाता ---
"धोबी वारी हौले-धीरे धोउ ,पतली कमर लचका लगै, ..तोरी गोरी बहियनि झटका लगै "
युवती को एक अजनबी का यों टोकना अजीब लगता है कहती है कि ,यह 'धोबीवारी' क्या लगा रखी है । हमारा नाम राजकुँवरि है । और यह तो हमारा काम है , तुम्हें क्या पडी है । अपनी राह जाओ---
जे तौ ढोला हमरौ है काम अरे तोहि हमारी ढोला का परी जी महाराज..। अरे गहि लेउ अपनी ही गैल कों जी महाराज..।
लेकिन युवती के प्रखर रूपजाल में उलझा सिपहिया आगे बढे तो कैसे । वह राजकुँवरि को रिझाने के लिये अपने महलों बगीचों का और तमाम वैभव का बखान करता है । लेकिन उसके लिये वही श्रेष्ठ है जो उसका अपना है । कहती है---"महलनि कौं का देखिहों ,मेरी एक झोंपडिया कौ मोल ...बागनि कौं का देखिहों , मेरी एक निबरिया कौ मोल..।"
हे राजा तुम मुझे अपना वैभव क्या दिखाते हो तुम्मेहारे महल मेरी एक झोंपडी का मोल भर हैं और तुम्हारे बाग-बगीचे मेरे एक नीम के पेड से ज्यादा मूल्यवान नही हैं । तब राजा असली बात पर आता है । कहता है --"तुम धनि रूप सरूप ,सुन्दर सूरति मेरे मन बसी ।"
चतुर राजकुँवरि मुस्कराई---अच्छा यह बात है तो क्या मेरे साथ कपडे धुलवा सकोगे ? मेरे पिता के गदहे चरा सकोगे ?
"जो तुम्हें धोबिन की है साध अरे कपडा धुवाऔ मेरे संग ही जी महाराज , अरे गदहा चराऔ मेरे बाप के जी महाराज ।"
प्रेम जो न करवाए कम है । मुग्ध सिपहिया घर बार वर्ग जाति सब कुछ भूल गया । प्रेयसी की परीक्षा में पास होने के लिये उसने अपनी घोडी को एक पेड से बाँध दिया और सब कुछ किया -
"कसि कम्मर बाँधी फेंट, घोडी तौ बाँधी करील ते जी महाराज । धोबिन ने धोई लादी
(गठरी) तीनि ,राजाजी ने धोई पूरी डेढ सौ ।"
जब राजाजी परीक्षा में खरे उतरे तब राजकुँवरि ने अपनी स्वीकारोक्ति दे दी । पिता से कह दिया---बाबुल मनचाहे वरु मोहि मिलि गए जी महाराज...।
फिर तो 'तेल माँगर' हुआ 'हल्दी मेहदी और काजल' लगा और सातों फेरे होगए । राजकुँवरि ससुराल पहुँच गई । सास रूपवती बहू देख प्रसन्न तो हुई पर यह जानना भी तो जरूरी था कि उसका वंश बढाने वाली आखिर है किस जाति ,वंश की । सो सास ने कुल गोत्र पूछा ---"काहा गोत ,कहा नाम है अरे बहूअरि कौन की धीय बताइयो जी महाराज ..।" राजकुँवर गर्व के साथ उत्तर देती है ---",सासूजी हम धोबी वारी धीय राजकुँवरि म्हारौ नाम है ..।"
सुन कर सास ने माथा पीटा---"भए बेटा पूत--कपूत अरे गोरी के कारण धोबी है गए ..।"
तब आत्मसम्मान सहित वह सासुजी को दिलासा देती है---"मति सासुलि पछताउ, एक के देऊँगी सासु चौगुने जी महाराज ..।"
दुखी ना हो सासजी , मैं ऐसे ही नही आगई हूँ । सतभाँवरी हूँ । आपके एक बेटे के बदले मैं आपको चार बेटे दूँगी । ब्याहता बहू की शान ही अलग होती है । और तुम हो कि मेरी जाति देख रही हो "
"ब्याही धन ऐसी सरूप जैसे 'बन्देजी पौंमचा',ओढत फीकौ लागियो और धोवत-धोवत नित नई ।"
मैं ब्याहता हूँ 'बन्देजी पौंमचा' की तरह जो भले ही चटक रंग का न हो पर सालों साल धोते-पहनते नया बना रहता है । (बन्देजी पौंमचा देशज शब्द हैं जिनका प्रचलित अर्थ नही मालूम शायद कपडे की एक किस्म का नाम हैं )
अब ऐसी रूपवान और चतुर बहू पाकर कौनसी सास प्रसन्न न होगी ।
(5)
कलारिन
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एक समय था जब समाज में जाति और वर्ग का भेद काफी गहरा था । उच्चवर्ग निम्न माने जाने वाले लोगों से एक निश्चित दूरी बनाए रखता था । लेकिन उसकी सुन्दर स्त्रियों पर अपनी नजर डालने व सम्बन्ध बनाने में जरा भी नही हिचकता था । प्रेमचन्द जी ने इसे बखूबी चित्रित किया है । इस गीत में भी ऐसा ही कुछ है लेकिन चतुर रूपवती कलारिन ऐसे लोलुप प्रेमियों का उपचार करना जानती है । यह सब इस गीत में देखने लायक है ।
एक रूपरसिक ढोला पानी पीने के बहाने सुन्दर कलारिन से मिलने जाता है । कहता है-- हे सुन्दर कलारिन अपना दरवाजा खोल दे हमें प्यास लगी है पानी पिलादे । (कलरिया री फरसौ ( काँटों व टहनियों से बना कपाट) दै खोल ,प्यासे मरत ढोला दूरि के जी महाराज ..।)
कलारिन ऐसे रसिक मनचलों को खूब जानती है कहती है---ना मेरे घर लोटा है न डोर और मेरे पति भी नही हैं ।
"ना मेरें लोटा ना डोर ,अरे घर ही जु नईं हैं मेरे साहिबा जी महाराज..।"
इसके अलावा हे ढोला मेरी छाती में विष की गाँठ है । मेरे हाथ का पानी पीओगे तो मर ही जाओगे।
"मेरे आँचर विस की है गाँठ ,जोई पियैगौ मरि जाइगौ जी महाराज ..।"
"जौ तेरे विस की है गाँठ कैसें जिये तेरौ साहिबा जी महाराज..।"
{अच्छा ऐसी बात है तो तेरा पति कैसे जिन्दा है ?}
"यह तुम क्या जानो ?" चतुर कलारिन कहती है--"मेरे साहिब तो जहर मारने व साँपों को वश में करने की कला जानते हैं ।"
ढोला हार नही मानता कहता है----"कुछ भी हो , हे रूपसी तू तो फूल जैसी है । तुझे मैं पगडी में लगाना चाहता हूँ । ये तेरे लम्बे-लम्बे केस हैं इन्हें मैं ओढना-बिछाना चाहता हूँ ।"
(ऐसी बनी है जैसे फूल ए कलार की, तोहि पगडी में धरि लै चलौं जी महाराज ।
गोरी तेरे लम्बे--लम्बे केस आधे बिछावौं आधे ओढियों जी महाराज ।)
उत्तर मिलता है---ये केस तो मेरी माँ ने पाले पोसे हैं इन पर तुम्हारा कोई हक नही । गद्दा बिछालो और दुपटा ओढलो ।( जे तौ मैया के पोसे केस गद्दा बिछावौ दुपटा ओढियो जी महाराज..।
ढोला फिर कहता है---"गोरी तेरे बडे--बडे नैन , नैन मिलाई तोसे हों करूँ जी महाराज."..
उत्तर मिलता है ---"ये नैन तुम्हारे वश में हो ही नही सकते । ये तो अलबेले (पति) के वश में पडे हैं।"
ढोला बात बदल कर कहता है----"अरे ये तुम्हारे घर में अँधेरा क्यों है ।"
कलारिन---मेरे पास न रुई है न तेल और मेरे साहिब भी घर नही हैं । (शायद अँधेरे की बात सुन कर यह मनचला लौट जाए ) लेकिन उसका लौटना इतना सहज नही है कहता है---अच्छा तेल नही है । बाती भी नही है । तो कोई बात नही मैं शहर में तेली बसा दूँगा । कडेरे बसा दूँगा चिन्ता किस बात की । ( एक समय गाँवों में तेली व कडेरे ही तेल व रुई उपलब्ध कराते थे )
( "तेली बसाऊँ जा ही सहर में ...अरे झमकि उजेरौ गोरी दीवला जी महाराज" )
अब तो हद ही होगई । धृष्टता की भी सीमा होती है । यह ढीठ तो टलता ही नही । कलारिन आखिर झुँझलाकर कह ही देती है ---"जा रे ढोला निपट अजान ,तोहि हमारी का परी । घर ही जु नई है म्हारे साहिबा ..तोहि हमारी का परी ।"
अरे निपट अज्ञान, तुझे करना क्या है । जा अपना रास्ता देख । तेरी समझ में नही आता कि मेरे साहिब (पति) घर नहीं हैं । तेरी इन बातों का आखिर मतलब क्या है ।
इतनी निस्संगता पाकर 'ढोला' निराश होकर चला जाता है । उसके पास उस निष्ठुर रूपसी को कोसने के अलावा और कोई चारा नही है----अरी पाषाणी तुझे काला नाग डस जाए , भादों की बिजली तुझ पर टूट पडे । और न जाने क्या--क्या....। ("अरे डसियो तोहि कारौ ही नाग...। तडपि मरियो भादों बीजुरी । आस निरासौ तेनें मैं कियौ ।" )
(6)
मनिहार
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ससुराल में बहू की ननद से बडी सहेली और ननद से बडी बैरिन और कोई नही । ननद सहेली बन जाए तो सब कुछ आसान और दुश्मनी पर उतर आए तो बस तनाव ही तनाव ।
यहाँ ननद--भावज सहेलियाँ हैं । छज्जे पर बैठीं मन बहलाव कर रहीं हैं कि गली में मनिहार (चूडीवाला) की टेर सुनाई देती है । भाभी ननद से मनुहार करती है---
"जाऊ ननद बाई मनिरा बुलाइ लाऊ ,ए जी हरे कलर कौ ,लाल-गुलाबी कलर कौ चूडौ पैरियो जी राज..।"
मनिहार आता है और रंग-बिरंगी चूडियों का वैभव आँगन में फैला देता है । भाभी मुग्ध हुई कई चूडे पसन्द करती है लेकिन एक उसे बहुत ही भाता है । पूछती है --अरे मनिहार भैया ,इस चूडे का मोल क्या लोगे ।
"कै लाख ए मनिरा बीरन चूडे कौ मोल ऐ , अरे मनिरा, कै लाख कहिये जाके दाम हैं जी राज..।"
मनिहार कहता है --
"नौ लाख ए गोरी चुरिला कौ मोल ,ए नैक दस लाख ए री जाकौ मोल है जी राज..।"
लेकिन इतना मँहगा चूडा कैसे खरीदे । प्रियतम तो परदेस हैं । इतना मोल कौन चुकाएगा ..।
मनिहार उस भोलीभाली कोमलांगी के असमंजस को समझ जाता है । बडी उदारता से कहता है--
"तेरी बँहियन कौ गोरी मोल न लेंगे , अरे नैक हँसि-हँसि कैं पहरौ जा रंग चूरिला जी राज...।"
गोरी मनपसन्द चूडा पहन कर फूली न समाई । उसकी गोरी--गोरी लमछारी बाँहों में चूडे की शोभा और बढ गई । पर जैसे ही घर चलने लगी पर मनिहार उसके अपूर्व सौन्दर्य पर रीझ उठता है । चूडे की कीमत के बदले कम से कम दो पल नयनों को रूप का अमृत तो पीने दे । मनिहार उससे रुकने की मनुहार करता है । वह कुलवती वधू मनिहार को अपनी सास ,जेठानी ,देवरानी ,ननद सबका वास्ता देती है । मनिहार उसे बहलाता है---हे रूपसी ,तेरी सास को चरखा भेंट कर दूँगा । जेठानी को दुधारी भैंस दूँगा । देवरानी को हार गढवा दूँगा और ननद को ससुराल भिजवा दूँगा ।तू कुछ देर तो ठहरजा ।
" सासू कौं हे गोरी चरखा मुल्याइ दऊँ ,जिठनी कौं हे गोरी भैंस मुल्याइ दऊँ ।"
लेकिन उस कुलीना को बहलाना आसान नही है । वह अपने पति का वास्ता देकर विनम्रता पूर्वक मनिहार को टाल कर घर चली जाती है । लेकिन घर पर ननद की लगाई आग उसकी प्रतीक्षा कर रही होती है । सास, जेठानी सब सन्देह करती हैं कि आखिर इतना मँहगा चूडा मनिहार ने मुफ्त में कैसे पहना दिया----
"कैसे जा चूडे कौ मोल मुल्यानौ ,ए बहू का हर मोल चुकाइयौ जी राज...।"
बहू के सामने यह बडा धर्मसंकट था । सही तो है पराए आदमी ने कैसे इतना मँहगा चूडा बिना मोल लिये पहना दिया । बहू ने चतुराई से काम लिया । बोली --मनिहार तो मेरा मुँहबोला भाई है ।
"मनिरा कौ लरिका म्हारौ बीरन जो कहिये ,ए सासू चुरिला कौ मोल कैसे माँगियो जी राज..।"
अब भाई बहिन को चाहे तो लाख का चूडा पहनाए या दस लाख का । इसमें किसी को भला क्या ऐतराज हो सकता है ।
जारी.........
बहुत बढ़िया लाजबाब प्रस्तुती,
जवाब देंहटाएंRECENT POST काव्यान्जलि ...: आदर्शवादी नेता,
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंये सब हमारी सांस्कृतिक धरोहर हैं।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर।
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर।
जवाब देंहटाएंआनंद दायक आख्यान..
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