एक हैं सुशील शुक्ल । वर्त्तमान में 'चकमक 'के सम्पादक । पहले भी बता चुकी हूँ कि चकमक मेरे लिये कई अर्थों में बेहद खास पत्रिका है । पहला तो यही कि इसका रचनात्मक स्वरूप पहले अंक से ही स्तरीय रहा है । दूसरा चकमक से ही पहली बार मेरी किसी रचना का प्रकाशन हुआ । मेरी पहली प्रकाशित रचना थी --'मेरी शाला चिडियाघर है ।' तब चकमक के सम्पादक थे श्री राजेश उत्साही ।
कहने की आवश्यकता नही कि मेरी बाल-रचनाओं के पीछे चकमक की बडी भूमिका रही है । कुछ कहानियाँ 'अपनी खिडकी से' तथा 'मुझे धूप चाहिये' में आप देख ही चुके हैं । लगभग सत्तर कविताएं और कुछ और कहानियाँ संग्रहीत होने की प्रतीक्षा में है । अभी जून 2013 के अंक में मेरी एक झींगुर वाली कविता है--'मुझको तो गाना है ।
हाँ...तो आजकल चकमक के सम्पादक हैं सुशील शुक्ल ।
ये महाशय शुरुआत के दिनों में चकमक के नन्हे पाठक हुआ करते थे ।लेकिन आज चकमक का आसमान बने हुए हैं ।चाँद--सितारों वाला आसमान । रंगीन पतंगों व गुब्बारों वाला आसमान और चिडियों की चहकार वाला और बादलों की फुहार वाला आसमान ।
सुशील छोटे-बडे सभी पाठकों के लिये अनूठी और प्यारी रचनाएं भी लिखते रहते हैं । मुझे सम्पादक से कही ज्यादा उनके रचनाकार ने प्रभावित किया है ।
स्वाभाव से बहुत ही कोमल और सौम्य लगने वाले सुशील की रचनाएं भी उतनी ही कोमल ,अनूठी और सबसे अलग हैं । उनकी कोमल कल्पनाएं जाने किस स्वप्न-लोक से उतरतीं हैं मासूम अप्सराओं जैसी । पल्लवों से बूँद-बूँद झरती निर्मल-नाजुक ओस जैसी । रेशमी रश्मियों के जाल से छनकर आती चाँदनी की फुहारों जैसी ।
चकमक के अन्तिम (पिछला ) पृष्ठ पर आजकल नियमित रूप से आ रहे हर माह के विवरण को जिसे उन्होंने बचपन की बिल्कुल अछूती ,अनौखी और मासूम नजर से देखते हुए लिखा है ,पढकर मुझे कुछ ऐसा ही महसूस होता है ।
यहाँ जून ,जुलाई और अगस्त के कुछ अंश हैं । बाकी आप चाहें तो चकमक में पढ सकते हैं जो इन्टरनेट पर उपलब्ध है ।
जून--- 'जून दो फाँकों से बना होता ...एक हिस्से में धूप दिखती तो दूसरे में बादल ..। जल्दबाज बादल पहली बारिश से पहले ही छाने चले आते ।.......गर्मियों में सूरज का मछुआरा पानी को बादलों के जाल में फाँसता फिरता । जब बादलों में नदी तालाबों से खूब पानी इकट्ठा होजाता तो...कहीं का कही गिरता । किसी नदी का पानी किसी तालाब में गिरता तो किसी नदी का पानी किसी खेत में ....शायद मछलियों को इसकी पहचान होती हो कि इस बार उनकी नदी में बाजू वाले तालाब का पानी आया है ...कोई पानी बहुत सालों बाद अपने ही ताल में लौटता होगा तब मछलियाँ सारे काम छोड कर उस पानी से किस्से-कहानियाँ सुनने बैठ जाती होंगी ..। पानी उन्हें खेत कुआ, नदियों भैंसों और तमाम परिन्दों की कहानियाँ सुनाता होगा । कोई छोटी मछली जिद करती होगी कि अगली बार वह भी घूमने जाएगी तो पानी उसे पीठ पर बिठा कर कहता होगा --हाँ जरूर चलना ..।'
जुलाई--....'जुलाई में पानी रास्तों से ऊपर बहता चला जाता । रास्ते दिखना बन्द होजाते । कभी लगता कि कहीं रास्ते पानी के साथ बह न गए हों । पानी पर पाँव रखते तो पाँव रास्ते पर ही पडता । हम यह सोचकर खुश होते कि रास्ता अपनी जगह पर ही ठहरा हुआ है ।...अगर रास्ते बह सकते तो सब के सब बह कर हमारी नदी में पहुँच जाते । मछुआरे के जाल में कोई रास्ता फँसा चला आता । मछुआरा उसे फिर वही बिछाने जाता । कभी वह जान बूझकर कहीं का रास्ता कहीं बिछा देता तब किसी के घर के लिये निकला कोई किसी और के घर पहुँच जाता ....स्कूल जाने वाला रास्ता खेल के मैदान वाले रास्ते से बदल जाता । बच्चे स्कूल की जगह खेल के मैदान में पहुँच जाते और मैदान में बच्चों को ढूँढने निकले बडे स्कूल पहुँच जाते ।.'......
अगस्त---.....'अगस्त में झीलें तालाब भर जाते । ...उनके ऊपर तैरता आसमान होता । जगह--जगह पनप आए छोटे तालाबों में छोटे-छोटे आसमान तैरते मिलते । हम हथेलियों की कटोरी बनाकर उनसे पानी भरते । मेरा दोस्त पानी में तैर रहे आसमान को उठाकर मेरी जेब में डाल देता...जेबें आसमानों से भर जातीं...।
हम नदी में जाते और आसमान को छूकर देखते.....अगस्त में बारिश कुछ को भिगाती और कुछ को सुखाती क्योंकि उनके पास कोई काम न होता वे बेकार बैठे रहते ...।'
कल्पनाओं की सुकुमारता में सुशील कहीं मुझे पन्त का प्रतिरूप प्रतीत होते हैं तो ऩएपन और अनूठेपन में गुलजार जी का । नीचे सुशील की कुछ बाल कविताएं भी हैं जो इस बात को और भी विश्वसनीय बनातीं हैं ----
(1) पतझड
---------
डाल-डाल से हाथ छुडाकर
पत्ते गदबद भागे ।
पीपल का सबसे पीछे था
नीम का सबसे आगे ।
सुबह पेड ने देखा जो ,
कुछ पत्ते तो गायब हैं
गिने चार सौ तेरह कम हैं
और बाकी तो सब हैं ।
............
कई दिनों सूनी शाखों ने
चप्पे-चप्पे छाने ।
पत्तों के फोटो चिपकाए
जाकर थाने थाने
किए बरामद नीम के पत्ते
आम के घर पहुँचाए ।
आम की टहनी बोली
ये साहब किसको ले आए ।
(2)
घर से सिकुडी रात उठाई
धूल झडा छत पर बिछवाई
बादल ने पाण्डाल सजाए
उसमें कुछ तारे टँकवाए ।
हवा ने दो घोडे दौडाए
ठण्डक पैदल कैसे आए ।
.....
मुझे जरा बडा एक तारा
अपने सारे कंचे हारा ।
बिस्तर से जब सुबह गिरे थे
आसपास कंचे बिखरे थे ।
(3)
मेरे घर की छत के काँधे
सिर रखकर एक आम
चिडियों से बातें करता है
रोज सुबह और शाम ।
आम के सिर पर एक शहर है
उसमें एक चिडिया का घर है ।
उसमें रहते बच्चे दो ।
बस सोए रहते हैं जो ।
कहाँ-कहाँ वे जाएंगे
जब उनके पर आएंगे ।..।
(4)
नदी बादलों की गुल्लक है
कि जिसमें बूँदों की चिल्लर पडी है ।
नदी है कि बादलों की लडी है ।
नदी एक बहता हुआ शहर है
नदी जाने कितनों का घर है
नदी में हम सबकी प्यास रहती है
नदी में मछलियों की साँस बहती है ।
नदी घडियालों की घडी है
नदी है कि बादलों की लडी है ।...
(5)
उस दिन धूप बहुत थी
बादल छाते ताने
निकल पडे थे
पहली-पहली बारिश लाने ।
दो झोले पानी के
टाँगे-टाँगे निकल पडे
आसमान की सडक थी चिकनी
दोनों फिसल पडे ।
पानी गिरना था केरल में
गर गया राजस्थान में
बुद्धू हो तुम , बादल बोला
एक ऊँट के कान में ।
(6)
दोना पत्तल पत्ते की
दो ना पत्तल पत्ते की
पत्ती एक एक बित्ते की
कोई न पूछे कित्ते की ।
बित्ता थोडा बडा है ।
बडा दही में पडा है ।
(7)
किट किट किट किट
किट किट किट किट
कीडा बोला घास में
बोलो एक साँस में
फर फर फर फर
फर फर फर फर
चिडिया उडी आकाश में
बोलो एक साँस में
छुक छुक छुक छुक
छुक छुक छुक छुक
ट्रेन रुकी देवास में
बोलो एक साँस में ।
कहने की आवश्यकता नही कि मेरी बाल-रचनाओं के पीछे चकमक की बडी भूमिका रही है । कुछ कहानियाँ 'अपनी खिडकी से' तथा 'मुझे धूप चाहिये' में आप देख ही चुके हैं । लगभग सत्तर कविताएं और कुछ और कहानियाँ संग्रहीत होने की प्रतीक्षा में है । अभी जून 2013 के अंक में मेरी एक झींगुर वाली कविता है--'मुझको तो गाना है ।
हाँ...तो आजकल चकमक के सम्पादक हैं सुशील शुक्ल ।
ये महाशय शुरुआत के दिनों में चकमक के नन्हे पाठक हुआ करते थे ।लेकिन आज चकमक का आसमान बने हुए हैं ।चाँद--सितारों वाला आसमान । रंगीन पतंगों व गुब्बारों वाला आसमान और चिडियों की चहकार वाला और बादलों की फुहार वाला आसमान ।
सुशील छोटे-बडे सभी पाठकों के लिये अनूठी और प्यारी रचनाएं भी लिखते रहते हैं । मुझे सम्पादक से कही ज्यादा उनके रचनाकार ने प्रभावित किया है ।
स्वाभाव से बहुत ही कोमल और सौम्य लगने वाले सुशील की रचनाएं भी उतनी ही कोमल ,अनूठी और सबसे अलग हैं । उनकी कोमल कल्पनाएं जाने किस स्वप्न-लोक से उतरतीं हैं मासूम अप्सराओं जैसी । पल्लवों से बूँद-बूँद झरती निर्मल-नाजुक ओस जैसी । रेशमी रश्मियों के जाल से छनकर आती चाँदनी की फुहारों जैसी ।
चकमक के अन्तिम (पिछला ) पृष्ठ पर आजकल नियमित रूप से आ रहे हर माह के विवरण को जिसे उन्होंने बचपन की बिल्कुल अछूती ,अनौखी और मासूम नजर से देखते हुए लिखा है ,पढकर मुझे कुछ ऐसा ही महसूस होता है ।
यहाँ जून ,जुलाई और अगस्त के कुछ अंश हैं । बाकी आप चाहें तो चकमक में पढ सकते हैं जो इन्टरनेट पर उपलब्ध है ।
जून--- 'जून दो फाँकों से बना होता ...एक हिस्से में धूप दिखती तो दूसरे में बादल ..। जल्दबाज बादल पहली बारिश से पहले ही छाने चले आते ।.......गर्मियों में सूरज का मछुआरा पानी को बादलों के जाल में फाँसता फिरता । जब बादलों में नदी तालाबों से खूब पानी इकट्ठा होजाता तो...कहीं का कही गिरता । किसी नदी का पानी किसी तालाब में गिरता तो किसी नदी का पानी किसी खेत में ....शायद मछलियों को इसकी पहचान होती हो कि इस बार उनकी नदी में बाजू वाले तालाब का पानी आया है ...कोई पानी बहुत सालों बाद अपने ही ताल में लौटता होगा तब मछलियाँ सारे काम छोड कर उस पानी से किस्से-कहानियाँ सुनने बैठ जाती होंगी ..। पानी उन्हें खेत कुआ, नदियों भैंसों और तमाम परिन्दों की कहानियाँ सुनाता होगा । कोई छोटी मछली जिद करती होगी कि अगली बार वह भी घूमने जाएगी तो पानी उसे पीठ पर बिठा कर कहता होगा --हाँ जरूर चलना ..।'
जुलाई--....'जुलाई में पानी रास्तों से ऊपर बहता चला जाता । रास्ते दिखना बन्द होजाते । कभी लगता कि कहीं रास्ते पानी के साथ बह न गए हों । पानी पर पाँव रखते तो पाँव रास्ते पर ही पडता । हम यह सोचकर खुश होते कि रास्ता अपनी जगह पर ही ठहरा हुआ है ।...अगर रास्ते बह सकते तो सब के सब बह कर हमारी नदी में पहुँच जाते । मछुआरे के जाल में कोई रास्ता फँसा चला आता । मछुआरा उसे फिर वही बिछाने जाता । कभी वह जान बूझकर कहीं का रास्ता कहीं बिछा देता तब किसी के घर के लिये निकला कोई किसी और के घर पहुँच जाता ....स्कूल जाने वाला रास्ता खेल के मैदान वाले रास्ते से बदल जाता । बच्चे स्कूल की जगह खेल के मैदान में पहुँच जाते और मैदान में बच्चों को ढूँढने निकले बडे स्कूल पहुँच जाते ।.'......
अगस्त---.....'अगस्त में झीलें तालाब भर जाते । ...उनके ऊपर तैरता आसमान होता । जगह--जगह पनप आए छोटे तालाबों में छोटे-छोटे आसमान तैरते मिलते । हम हथेलियों की कटोरी बनाकर उनसे पानी भरते । मेरा दोस्त पानी में तैर रहे आसमान को उठाकर मेरी जेब में डाल देता...जेबें आसमानों से भर जातीं...।
हम नदी में जाते और आसमान को छूकर देखते.....अगस्त में बारिश कुछ को भिगाती और कुछ को सुखाती क्योंकि उनके पास कोई काम न होता वे बेकार बैठे रहते ...।'
कल्पनाओं की सुकुमारता में सुशील कहीं मुझे पन्त का प्रतिरूप प्रतीत होते हैं तो ऩएपन और अनूठेपन में गुलजार जी का । नीचे सुशील की कुछ बाल कविताएं भी हैं जो इस बात को और भी विश्वसनीय बनातीं हैं ----
(1) पतझड
---------
डाल-डाल से हाथ छुडाकर
पत्ते गदबद भागे ।
पीपल का सबसे पीछे था
नीम का सबसे आगे ।
सुबह पेड ने देखा जो ,
कुछ पत्ते तो गायब हैं
गिने चार सौ तेरह कम हैं
और बाकी तो सब हैं ।
............
कई दिनों सूनी शाखों ने
चप्पे-चप्पे छाने ।
पत्तों के फोटो चिपकाए
जाकर थाने थाने
किए बरामद नीम के पत्ते
आम के घर पहुँचाए ।
आम की टहनी बोली
ये साहब किसको ले आए ।
(2)
घर से सिकुडी रात उठाई
धूल झडा छत पर बिछवाई
बादल ने पाण्डाल सजाए
उसमें कुछ तारे टँकवाए ।
हवा ने दो घोडे दौडाए
ठण्डक पैदल कैसे आए ।
.....
मुझे जरा बडा एक तारा
अपने सारे कंचे हारा ।
बिस्तर से जब सुबह गिरे थे
आसपास कंचे बिखरे थे ।
(3)
मेरे घर की छत के काँधे
सिर रखकर एक आम
चिडियों से बातें करता है
रोज सुबह और शाम ।
आम के सिर पर एक शहर है
उसमें एक चिडिया का घर है ।
उसमें रहते बच्चे दो ।
बस सोए रहते हैं जो ।
कहाँ-कहाँ वे जाएंगे
जब उनके पर आएंगे ।..।
(4)
नदी बादलों की गुल्लक है
कि जिसमें बूँदों की चिल्लर पडी है ।
नदी है कि बादलों की लडी है ।
नदी एक बहता हुआ शहर है
नदी जाने कितनों का घर है
नदी में हम सबकी प्यास रहती है
नदी में मछलियों की साँस बहती है ।
नदी घडियालों की घडी है
नदी है कि बादलों की लडी है ।...
(5)
उस दिन धूप बहुत थी
बादल छाते ताने
निकल पडे थे
पहली-पहली बारिश लाने ।
दो झोले पानी के
टाँगे-टाँगे निकल पडे
आसमान की सडक थी चिकनी
दोनों फिसल पडे ।
पानी गिरना था केरल में
गर गया राजस्थान में
बुद्धू हो तुम , बादल बोला
एक ऊँट के कान में ।
(6)
दोना पत्तल पत्ते की
दो ना पत्तल पत्ते की
पत्ती एक एक बित्ते की
कोई न पूछे कित्ते की ।
बित्ता थोडा बडा है ।
बडा दही में पडा है ।
(7)
किट किट किट किट
किट किट किट किट
कीडा बोला घास में
बोलो एक साँस में
फर फर फर फर
फर फर फर फर
चिडिया उडी आकाश में
बोलो एक साँस में
छुक छुक छुक छुक
छुक छुक छुक छुक
ट्रेन रुकी देवास में
बोलो एक साँस में ।
सार्थक प्रस्तुति |
जवाब देंहटाएंबहुत ही संवेदनशील और लाजवाब रचनाएं हैं सुशील जी की ... बालपन का हट और मुखर अभिव्यक्ति ... कल्पनाओं को नई दिशा में जैसे दौडाया हो ... प्राकृति और धरातल के पंखो पे सवार शब्द ...
जवाब देंहटाएंसुशील ने ईमेल में लिखा है--- Shukriya GIrija di.
जवाब देंहटाएंaapka sneh hai. varna ye sab rachnayen bahut hi aam si hain
बहुत सुंदर शब्द .बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
जवाब देंहटाएंDidi,
जवाब देंहटाएंsachmuch ek jadoogar se milaya hai aapne.. Waise bhi jab aap kisi lo ACHCHHA kahen to wo aur bhi achchha ho jata hai.
Mahinon ka shabdchitra kisi film ke SPECIAL EFFECT sa chamatkrit karta hai.. Ek jadoo jo ordinary ko extraordinary bana raha hai.
Bal kavitayen bahut prabhavshali hain.. Maime kaha tha na us roz ki jo bachchon ke liye behatar rachnayein likh sakta hai wo blessed hai.
Meri taraf se unhen shubhkamanayen den! Aur aapka aabhar!!
भाई ,मुझे मालूम था कि आपको सुशील की रचनाएं जरूर अच्छी लगेंगी । लेकिन नागरी लिपि का क्या हुआ । आपने अन्यत्र भी रोमन में टिप्पणी की है । दरअसल हिन्दी को रोमन में लिखना कुछ श्रमसाध्य लगता है । कम से कम मुझे तो ...। जो भी हो आपकी राय के लिये आभार तो बनता है ।
जवाब देंहटाएंदीदी! मैं सोच रहा था कि कल तो छुट्टी है और आज घर पहुँचना है, तो पहुंचकर देवेनागरी में लिखूंगा.. लेकिन बस में मोबाइल पर पढता आया और मन की बात कहने से खुद को रोक न पाया.. मोबाइल में हिन्दी लिखने की सुविधा नहीं है!!
जवाब देंहटाएंएक बात रह गयी थी कहने को.. सुशील जी की तस्वीर लगानी चाहिए थी!
मैंने फेसबुक पर शेयर किया है!!
जवाब देंहटाएंवाह ! बाल दिवस पर अनुपम उपहार ...आभार दीदी और भैया दोनों का .... :-)
जवाब देंहटाएंbaal divas ki badhai girja ji aapko kyonki aap iski sachchi haqdar hai ,shaandaar blog hai ye .
जवाब देंहटाएंसुंदर एवं लाजवाब प्रस्तुति...बहुत अच्छा लगा सुशील जी की रचनायें पढ़कर।
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