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बाल-फिल्म महोत्सव के अन्तर्गत विभाग द्वारा स्कूल के बच्चों को कुछ बाल-फिल्में दिखाई गईं । प्राचार्य जी का आदेश हुआ कि हम लोग टाकीज पर ही जाकर केन्द्र के शिक्षकों को टिकिट उपलब्ध कराएं । आदेश कुछ अजीब तो लगा पर आदेश का पालन तो करना ही था । चूँकि उन फिल्मों में मकडी ,या ब्लू-अम्ब्रेला जैसी फिल्में नही थीं बल्कि एकदम अपरिचित से नाम थे इसलिये जहाँ दूसरे शिक्षकों ने फिल्म के प्रति उपेक्षा-भाव रखा वहीं मैंने जिज्ञासावश कि आखिर 'बाल-फिल्म महोत्सव' में बच्चों को कैसी फिल्में दिखाई जातीं हैं, फिल्म देखने का मन बना लिया ।
मुझे जिस टाकीज पर भेजा गया था वहाँ दिखाई जाने वाली फिल्म थी--'हेडा-होडा' ।
स्टाफ के कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि फिल्म शायद किसी होड पर आधारित होगी । होड यानी प्रतिस्पर्धा । मुझे बच्चों की फिल्म (उनकी नजर में स्तरहीन) देखने उत्सुक पाकर कुछ साथी मुस्कराए -- "लीजिये ,मैडम कुछ नही तो बच्चों की फिल्म ही देख रहीं हैं । चलो मुफ्त में दिख जाएगी । क्या बुरा है ।"
सिनेमा-हाल में छोटे-बडे बच्चों का बेहद शोर था । उनके शिक्षक--शिक्षिका उन्हें हाल में बिठा कर या तो बाहर खडे थे या घर चले गए थे कि फिल्म खत्म होने से पहले आजाएंगे । खैर कुछ देर बाद जैसे ही फिल्म शुरु हुई हाल में शान्ति छागई लेकिन कुछ पलों के लिये ही । इसके बाद जो कुछ फिल्म के अन्त तक होता रहा उसे बताने से पहले हम फिल्म की बात करते हैं ।
यह राजस्थान के एक सीमान्त गाँव 'हेडा' के मासूम और बहादुर बच्चे सोनू पर केन्द्रित कहानी है जो जिज्ञासु और खोजी प्रवृत्ति का है । उसको ऊँट चराने का काम मिला हुआ है । इसलिये नाश्ता करके सुबह ही ऊँटों को लेकर निकल जाता है । उसे अपने ऊँटों से उसे बेहद लगाव है । और ऊँटों को भी उससे । एक दिन उसके तीन ऊँट चोरी होजाते हैं । काफी कोशिशों के बाद सुराग मिलता है कि ऊँट सीमा पार पाकिस्तान ले जाये गए हैं । इससे मामला काफी उलझ जाता है । सोनू बहुत परेशान होता है । उसे पिता की डाँट का नही अपने ऊँटों के खोजाने का गम है । वह चुपचाप उन्हें तलाशता हुआ पाकिस्तान के एक गाँव 'होडा' ( फिल्म का नाम इसलिये हेडा--होडा है ) पहुँच जाता है । हालाँकि होडा गाँव के एक सज्जन (परीक्षित साहनी ) सोनू को स्नेह के साथ सान्त्वना देते हैं और ऊँटों की तलाश में उसकी मदद भी करते हैं । तभी उन्हें पता चलता है कि उनके साले ने ही सोनू के ऊँटों को चुरा कर अपने घर बाँध लिया है । तब वे जैसे-तैसे अपने साले को समझा कर ऊँट लौटाने पर राजी भी कर लेते हैं पर बात जब अफसरों के हाथ में पहुँचती है तो राजनैतिक प्रश्न बन जाती है । कई नियम-कानून रुकावट पैदा करते हैं और लगता है कि अब सोनू को अपने ऊँट शायद ही मिल पाएंगे । वे निराश अपनी सीमा पर बैठे कोई उपाय सोचते हैं तभी उसकी बहन की नजर आसमान में उडते पंछियों पर पडती है । वह सोचती है कि अगर पंछियों के लिये कोई सरहद नहीं है तो ऊँटों के लिये कैसे हो सकती है । फिर क्या वे अपने ऊँटों को उनके नामों से पुकारना शुरु करते हैं। वह दृश्य वाकई बेहद खूबसूरत है जब सोनू के तीनों ऊँट अपने मालिक दोस्त की पुकार सुनकर बापस आते हैं तब कैसी सरहदें और कैसे बँटवारे । सारे अफसर हैरान से ऊँटों को जाते हुए देखते रह जाते हैं । फिल्म रोचक है । सोनू व उसकी बहन का अभिनय जानदार है ।
अब बात करें हमारे बाल-दर्शकों की ,तो उन्हें यह बाल फिल्म कोई खास रुचिकर नहीं लगी । सबसे बडा कारण तो यह था कि कलाकार अधिकतर अपरिचित थे । न तो उसमें शाहरुख-आमिर थे न ही कैट-करीना । न गीत न डांस । केन्द्रीय विद्यालय की एक छात्रा कह रही थी --यार बोर होरहे हैं इससे तो अच्छा था कि कहीं पार्टी कर लेते । हाँ शिवाजी साटम को देख कर ,जो सोनू के पिता की भूमिका में हैं, जरूर चिल्लाये --सी आई डी --सीआईडी----।
इससे पता चलता है कि टीवी चैनलों के कारण बच्चे इतने बडे होगये हैं कि वे बच्चों की चीजें देखना पसन्द नहीं करते । मजेदार बात तो तब हुई जब एक बच्ची ने मेरे मुँह से फिल्म की प्रसंशा सुन कर मुझे पलट कर ऐसे देखा मानो उसे मेरी अक्ल पर सन्देह हो । हाँ गरीब तबके के बच्चों ने जिन्हें टीवी पर सिर्फ राष्ट्रीय चैनल देखना नसीब है फिल्म अवश्य रुचि से देखी । शायद विभाग ने मध्याह्न-भोजन की तरह यह बाल-फिल्मोत्सव का कार्यक्रम भी उन्ही बच्चों के लिये रखा था ।
बेशक इसमें बच्चों का नहीं हमारा दोष है। हम एक बार भी नहीं सोच रहे कि बच्चों को क्या देना चाहिये पर क्या दिया जारहा है । बाल-फिल्में दिखाने का यह आयोजन अच्छा है पर साथ ही उन उपायों की भी आवश्यकता है जो किसी तरह बच्चों के बचपन को सुरक्षित रख सकें।
बाल-फिल्म महोत्सव के अन्तर्गत विभाग द्वारा स्कूल के बच्चों को कुछ बाल-फिल्में दिखाई गईं । प्राचार्य जी का आदेश हुआ कि हम लोग टाकीज पर ही जाकर केन्द्र के शिक्षकों को टिकिट उपलब्ध कराएं । आदेश कुछ अजीब तो लगा पर आदेश का पालन तो करना ही था । चूँकि उन फिल्मों में मकडी ,या ब्लू-अम्ब्रेला जैसी फिल्में नही थीं बल्कि एकदम अपरिचित से नाम थे इसलिये जहाँ दूसरे शिक्षकों ने फिल्म के प्रति उपेक्षा-भाव रखा वहीं मैंने जिज्ञासावश कि आखिर 'बाल-फिल्म महोत्सव' में बच्चों को कैसी फिल्में दिखाई जातीं हैं, फिल्म देखने का मन बना लिया ।
मुझे जिस टाकीज पर भेजा गया था वहाँ दिखाई जाने वाली फिल्म थी--'हेडा-होडा' ।
स्टाफ के कुछ लोगों ने अनुमान लगाया कि फिल्म शायद किसी होड पर आधारित होगी । होड यानी प्रतिस्पर्धा । मुझे बच्चों की फिल्म (उनकी नजर में स्तरहीन) देखने उत्सुक पाकर कुछ साथी मुस्कराए -- "लीजिये ,मैडम कुछ नही तो बच्चों की फिल्म ही देख रहीं हैं । चलो मुफ्त में दिख जाएगी । क्या बुरा है ।"
सिनेमा-हाल में छोटे-बडे बच्चों का बेहद शोर था । उनके शिक्षक--शिक्षिका उन्हें हाल में बिठा कर या तो बाहर खडे थे या घर चले गए थे कि फिल्म खत्म होने से पहले आजाएंगे । खैर कुछ देर बाद जैसे ही फिल्म शुरु हुई हाल में शान्ति छागई लेकिन कुछ पलों के लिये ही । इसके बाद जो कुछ फिल्म के अन्त तक होता रहा उसे बताने से पहले हम फिल्म की बात करते हैं ।
यह राजस्थान के एक सीमान्त गाँव 'हेडा' के मासूम और बहादुर बच्चे सोनू पर केन्द्रित कहानी है जो जिज्ञासु और खोजी प्रवृत्ति का है । उसको ऊँट चराने का काम मिला हुआ है । इसलिये नाश्ता करके सुबह ही ऊँटों को लेकर निकल जाता है । उसे अपने ऊँटों से उसे बेहद लगाव है । और ऊँटों को भी उससे । एक दिन उसके तीन ऊँट चोरी होजाते हैं । काफी कोशिशों के बाद सुराग मिलता है कि ऊँट सीमा पार पाकिस्तान ले जाये गए हैं । इससे मामला काफी उलझ जाता है । सोनू बहुत परेशान होता है । उसे पिता की डाँट का नही अपने ऊँटों के खोजाने का गम है । वह चुपचाप उन्हें तलाशता हुआ पाकिस्तान के एक गाँव 'होडा' ( फिल्म का नाम इसलिये हेडा--होडा है ) पहुँच जाता है । हालाँकि होडा गाँव के एक सज्जन (परीक्षित साहनी ) सोनू को स्नेह के साथ सान्त्वना देते हैं और ऊँटों की तलाश में उसकी मदद भी करते हैं । तभी उन्हें पता चलता है कि उनके साले ने ही सोनू के ऊँटों को चुरा कर अपने घर बाँध लिया है । तब वे जैसे-तैसे अपने साले को समझा कर ऊँट लौटाने पर राजी भी कर लेते हैं पर बात जब अफसरों के हाथ में पहुँचती है तो राजनैतिक प्रश्न बन जाती है । कई नियम-कानून रुकावट पैदा करते हैं और लगता है कि अब सोनू को अपने ऊँट शायद ही मिल पाएंगे । वे निराश अपनी सीमा पर बैठे कोई उपाय सोचते हैं तभी उसकी बहन की नजर आसमान में उडते पंछियों पर पडती है । वह सोचती है कि अगर पंछियों के लिये कोई सरहद नहीं है तो ऊँटों के लिये कैसे हो सकती है । फिर क्या वे अपने ऊँटों को उनके नामों से पुकारना शुरु करते हैं। वह दृश्य वाकई बेहद खूबसूरत है जब सोनू के तीनों ऊँट अपने मालिक दोस्त की पुकार सुनकर बापस आते हैं तब कैसी सरहदें और कैसे बँटवारे । सारे अफसर हैरान से ऊँटों को जाते हुए देखते रह जाते हैं । फिल्म रोचक है । सोनू व उसकी बहन का अभिनय जानदार है ।
अब बात करें हमारे बाल-दर्शकों की ,तो उन्हें यह बाल फिल्म कोई खास रुचिकर नहीं लगी । सबसे बडा कारण तो यह था कि कलाकार अधिकतर अपरिचित थे । न तो उसमें शाहरुख-आमिर थे न ही कैट-करीना । न गीत न डांस । केन्द्रीय विद्यालय की एक छात्रा कह रही थी --यार बोर होरहे हैं इससे तो अच्छा था कि कहीं पार्टी कर लेते । हाँ शिवाजी साटम को देख कर ,जो सोनू के पिता की भूमिका में हैं, जरूर चिल्लाये --सी आई डी --सीआईडी----।
इससे पता चलता है कि टीवी चैनलों के कारण बच्चे इतने बडे होगये हैं कि वे बच्चों की चीजें देखना पसन्द नहीं करते । मजेदार बात तो तब हुई जब एक बच्ची ने मेरे मुँह से फिल्म की प्रसंशा सुन कर मुझे पलट कर ऐसे देखा मानो उसे मेरी अक्ल पर सन्देह हो । हाँ गरीब तबके के बच्चों ने जिन्हें टीवी पर सिर्फ राष्ट्रीय चैनल देखना नसीब है फिल्म अवश्य रुचि से देखी । शायद विभाग ने मध्याह्न-भोजन की तरह यह बाल-फिल्मोत्सव का कार्यक्रम भी उन्ही बच्चों के लिये रखा था ।
बेशक इसमें बच्चों का नहीं हमारा दोष है। हम एक बार भी नहीं सोच रहे कि बच्चों को क्या देना चाहिये पर क्या दिया जारहा है । बाल-फिल्में दिखाने का यह आयोजन अच्छा है पर साथ ही उन उपायों की भी आवश्यकता है जो किसी तरह बच्चों के बचपन को सुरक्षित रख सकें।
बच्चों का टेस्ट बड़ों जैसा होता जा रहा है...यानि कि हमारे बच्चे बड़े हो रहे हैं..मुझे तो फिल्म की कहानी बहुत पसंद आई, शायद कभी टीवी पर देखने को भी मिल जाये..
जवाब देंहटाएंDidi,
जवाब देंहटाएंBaal filmeim banana jise bachche enjoy karein, bada dushkar hai.. Gulzar saab ki film KITAB ya Pankaj Parashar ki AASMAN SE GIRA kuchh aisi hi filmein hain.. Warna ye filmein aap-hum jaise bade hi kalaatmakta ke naam par dekhte aur pasand karte hain. Ek aur baat.. Ya kahun galat baat jo huyi hai wo ye ki hamare bachche, hamare jaise bachche nahin rahe.. TV ne unke taste par aisa attack kiya hai ki ye saari emotional baatein unhein bewaqoofi lagti hai..
Khud meri beti apni amma ko kisi scene mein rote dekh hansane lagti hai..
Bahut achchha laga aaki samiksha padhkar..
आजकल के बच्चों को ऐसी पिक्चरें कहां पसंद आती हैं। उन्हें तो बॉलीवुड की आज की बर्बाद करनेवाली पिक्चरें ही अच्छी लगती है। इसमें उनका दोष भी नहीं है। कथित 'चाचा' की बोई हुई फसल है, जिसे काटते-काटते अभी न जाने कितना वक्त लगेगा।
जवाब देंहटाएंSabase pahale ekk anjaan film aur itaneee achee film ko bataane ke liye bahut badhai. Sach kahuun to meraa bhee man karane lagaa hai ki "heda-hoda" movie dekhi jaaye. Nahee to aajkal KRISH-3 ko bachchon ki film maanaa jaa raha hai, jismaen bachchon ke liye kuchh nahee hai...Filmon ko to hum rok len, parr TV ka kuchh bhee karana mushkil hai,,, bahut jabardast tareeke se gharr ke andar, rishton ke beech, poore jivan main ghus saa gayaa hai
जवाब देंहटाएंबात तो आपकी सही है लेकिन सिर्फ हमारे (अभिभावकों ) के प्रसायों से कुछ नहीं होगा। इसके लिए ज़रूरी है हमारे सिनेमा जगत का पैसे के लिए मोह भंग होना। जो आज की तारीख में होता हुआ दूर दूर तक नज़र नहीं आता। जब तक रूपहले पर्दे पर कुछ अच्छा नहीं होगा तब तक बच्चों का भला नहीं होगा क्यूंकि मुझे ऐसा लगता है कि बच्चों के कोमल मन पर फिल्मों का सीधा प्रभाव पड़ता है और अब ऐसी फिल्में बनती ही नहीं जो उनके कोमल मन पर सकरात्मक प्रभाव डाल सकें जिसे देखकर वह कुछ अच्छा सीख हैं।
जवाब देंहटाएंआपने सही कहा है ... आज हमें और न इस दिशा में काम करने वालों को पता है की क्या करना चाहिए ... किस स्तर और कौन सी शिक्षा देनी चाहिए बच्चों को ... उनके अनुसार क्या दिखाना और पढ़ाना चाहिए जिससे नैतिकता और जीवन स्तर ऊपर उठे ...
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