शनिवार, 27 सितंबर 2014

विपक्ष-धर्म

मुद्दा सच्चा हो या झूठा , 
हम तो सिर्फ विरोध करेंगे ।
वो जैसी भी राह बनाएं ,
हम तो सिर्फ विरोेध करेंगे ।

वामपक्ष हम  
उल्टा चलना धर्म हमारा ।
चिनगारी को ज्वाल बनाना
कर्म हमारा ।
समतल राह न होने देंगे । 
राहों में गतिरोध बनेंगे।

हंगामा , हड़ताल, 
और आरोपों की बौछारें 
चक्का-जाम ,रैलियाँ ,
पुतला--दहन और फटकारें ।
सत्तासीनों को लुढ़काओ
जनता से अनुरोध करेंगे ।

कैसे भूल सकेंगे ,जब थी 
हाथ हमारे सत्ता।
अपनी ही थी हर बाजी  
हर चाल तुरुप का पत्ता ।
फिर से कैसे वह सब पाएं, 
जैसे भी हो शोध करेंगे ।

जनता को जतलाएंगे 
उससे चुनाव में भूल हुई है।
सर्दी गर्मी प्याज टमाटर 
भडकाने को तूल कई हैं।
जनता ने धोखा खाया है 
जनता में यह बोध भरेंगे ।

देश भाड़ में जाए चाहे 
कोई लूटे खाए।
चर्चाओं में छाए रहना , 
केवल हमको भाए। 
सक्रिय रहें सत्ता पाने तक 
खुद को यों संबोध करेंगे ।


मंगलवार, 16 सितंबर 2014

एक आमंत्रित गीत



बस भरोसा रहे ,और रहे हौसला 
दौर तूफान का भी , गुजर जाएगा ।
 क्या हुआ रात हो गई अगर राह में,
चलते--चलते सुबह का पहर आएगा ।

यह अँधेरा उसी को डराता सदा 
जो उससे निगाहें बचाता सदा 
आँधियाँ धूल से ,भर गईं जो चमन ,
बारिशों में वो फिर से निखर जाएगा ।

खिड़कियाँ बन्द क्यूँ ,रोशनी मन्द क्यूँ ?
सोच की चादरों में है पैबन्द क्यूँ ?
राह दे दो उसे ,जो है भटका हुआ ।
वरना जाने कहाँ वो किधर जाएगा ।

जो चले आए अपना तुम्हें जानकर ।
साथ लेकर चलोगे यही मानकर ।
अब जो बदली अगर , तुमने अपनी नजर 
मीत सोचो कि क्या कुछ बिखर जाएगा ।

अब नही मानता नीम की छाँव को 
भूलता जा रहा ,खेत ,घर ,गाँव को 
भीड़ में खो रहा ,एक सड़क हो रहा 
ऐसा ही होगा ,जो भी शहर जाएगा ।

पत्थरों में उगे बीज की बात हो ,
बीहड़ों  में  सुने गीत की बात हो ।
सोज और ओज आवाज में हो अगर ,
तो यकीनन समय भी ठहर जाएगा ।

गुरुवार, 4 सितंबर 2014

दो लघुकथाएं

(1)
सम्मान
एक बड़े प्रतिष्ठान ने प्राचार्य से योग्य शिक्षकों के नाम देने को कहा ताकि शिक्षक दिवस पर उन्हें सम्मानित किया जा सके । प्राचार्य ने हिसाब लगाया कि कौन इस समय उनके काम का है कौन नहीं। व्याख्याता 'स' उनके सारे बिलों पर बिना किसी आपत्ति के 'पेड बाई मी' लिख देता है । 'प' किफायती दामों में स्कूल का सामान उपलब्ध कराता है जिससे काफी बचत होजाती है । श्रीमती 'ल' को तो जरूर लिया जाना चाहिये । वह कहीं भी जाती है उपहार लाना नही भूलती और हमेशा विनम्रता की हद तक झुककर रहती है । और 'अ' को तो छोड़ा ही नही जासकता क्योंकि उस जैसा वाक्पटु कोई नही । जेडी साहब के सामने अपने स्कूल और प्राचार्य की ऐसी बात रखी कि साहब खुश होकर चले गए । ऐसे शिक्षकों को सम्मान जरूर मिलना चाहिये ।
"और सर ये रामकुमार और कुसुम ....?"
"अरे इन्हें छोड़ो "--प्राचार्य ने अपने खास सलाहकार नलिन की बात को गीले कपड़े की तरह झटक दिया ।
"ये संस्था के किसी काम के नही । बस रजिस्टर लेकर कक्षा में जाने और पढ़ाने के अलावा कोई काम नही करते । संस्था ऐसे लोगों के भरोसे नही चलती । हाँ तुम अपना नाम भी लिख लेना ..।"
"जी सर ।" नलिन ने खुश होकर कहा और जल्दी-जल्दी प्राचार्य जी द्वारा प्रस्तावित नामों को टाइप करने लगा ।
( सन् 2006 में )
(2)
प्रतिफल 
गुलमोहर के पेड़ के नीचे खड़े गजानन बाबू ने बेचारगी के साथ शिक्षा-विभाग की उस तिमंजिला इमारत को देखा जिसमें अधिकारी और बाबुओं की तो बात ही क्या है , चपरासी तक उन्हें भाव नही दे रहा था । बारह बजे से अब चार बजे तक तक चार बार लौटाए जा चुके थे ।हर बार एक ही उत्तर---"माड़साब , आपसे कितनी बार कहें कि अभी बड़े बाबू नही हैं कुर्सी पर ! कल-सल फिर चक्कर लगा जाना ।"
पीछे मास्टर जी उसकी बड़बड़ाहट को साफ सुन रहे थे ---"बड़े चेंटूराम हैं । पता नही क्यों रिटायर होने के साथ आदमी की अकल भी रिटायर होजाती है ।" 
घर में पत्नी भी यही कहती ह--"जिन्दगी भर बच्चों को पढ़ाते रहे पर खुद काम का कुछ नही सीखा ।  इतना भी नही है कि दफ्तर में ही अपने रुके कामों को करवा लें । चप्पल घिस रहे हैं फालतू ही...।"
" पत्नी शायद ठीक ही कहती है "---गजाननबाबू कभी कभी निराशा के अँधेरे में घिर जाते हैं ।
सचमुच बच्चों को पढ़ाने और महीना बाद वेतन के रुपए गिनने के अलावा उन्होंने कुछ नही जाना । कब कौनसी किश्त लगी , किस माह में कितने रुपए ,क्यों कट गए जानने की जरूरत नहीं समझी । हाँ अध्यापन कार्य में कभी शिथिलता या गिरावट नही आने दी । लेकिन क्या हुआ ! पेंशन प्रकरण को लेकर दफ्तर के चक्कर लगाते दो माह होने को आए पर कोई सुनवाई नही । वे साथी जो खुद कभी कक्षाओं में नही गए और गजाननबाबू के अध्यापन का मजाक उड़ाया करते थे ,अधिकारियों के साथ ठाठ से गाड़ियों में घूम रहे हैं ।
"तो क्या उनकी कार्यनिष्ठा गलत साबित होगई है ? क्या अब मूल्यों व आदर्शों का कोई महत्त्व नही रह गया है ? क्या उनके परिश्रम और ईमानदारी का यही प्रतिफल है ?" 
इन सवालों में उलझे हुए से गजानन बाबू हताश होकर लौटने का विचार कर रहे थे । उनके धुले सफेद कपड़े धूल से मलिन हो रहे थे । होठों पर पपड़ियाँ जम रही थी । चेहरे पर निराशा भरी थकान की कालिमा थी ।
इस तरह तो उन्हें कोई पूछने वाला नही है । यह सोचकर वे लौट ही रहे थे कि एक सरकारी जीप बगल से गुजरी । कुछ आगे गई, फिर पीछे लौटी । ड्राइवर सीट से ही कोई खिड़की में से झाँका । शायद कोई बड़ा अधिकारी था । 
"आप यहाँ !"--कहकर वह नीचे उतरा और पैरों में झुकगया । गजाननबाबू हक्के-बक्के से खड़े थे । 
"आपने मुझे नही पहचाना लेकिन मैंने तो देखते ही जान लिया ।"
"कौन ?...राजीव ?"
"बिल्कुल सही । आपकी कक्षा का सबसे शरारती और सबसे ज्यादा डाँट खाने वाला राजीव । आपने जो कुछ मुझे दिया उसी के कारण आज मैं यहाँ हूँ । आप यहाँ किसी काम से आए होंगे न ? लेकिन अब आपको चिन्ता करने की जरूरत नही है।" 
गजाननबाबू चकित और गद्दगद् हदय से इस आकस्मिक भारी परिवर्तन को देख उनकी आँखें भर आई । अपने कार्य का इससे बड़ा प्रतिफल किसी शिक्षक के लिये और क्या होसकता है । 
(सन् 1994 में रचित )
शुभ-तारिका में प्रकाशित)

सोमवार, 1 सितंबर 2014

"अबे 'होगा' क्यों ? "

बात उन दिनों की है  जब मुझे पर्व और त्यौहारों की बड़ी उल्लासमय प्रतीक्षा रहती थी । यह उल्लास बचपन के कारण था या अनूठे उत्सव-आयोजनों के कारण यह पूरी तरह अलग करके तो नही कह सकती लेकिन इसमें कोई सन्देह नही कि उन दिनों हमारे गाँव में हर त्यौहार को मनाने के लिये विशेष तैयारियाँ होतीं थी । चाहे होली हो , दशहरा हो ,कृष्ण-जन्माष्टमी हो या गणेश-उत्सव ।
गणेश-उत्सव के आठ दिनों की झाँकियों की योजना बहुत पहले ही तैयार कर ली जाती थी जिसके निर्माता--निर्देशक ताऊजी ही होते थे । उनके द्वारा तैयार की गई झाँकियाँ अदुभुत हुआ करती थीं । जैसे एक बार उन्होंने कैलाश पर ध्यानमग्न शिव की झाँकी सजाई ।
" शिवजी निराधार बैठे ध्यान मग्न हैं ।( ध्यान रहे कि शिव प्रतिमारूप नही बल्कि सजीव हैं । किशोर भैया से छोटे देवेन्द्र को शिव के रूप में इतनी कलात्मकता से सजाया गया कि देखने वाले मंत्र-मुग्ध हुए देखते ही रह गए थे और लगभग बारह वर्ष के देबू भाई का आँखें बन्द कर घंटों तक शान्त व निश्चल  बैठे रहना भी कम आश्चर्य नही था ) जटाओं से गंग-धार फूट रही है । उनका धरती से स्पर्श केवल फर्श में गड़े त्रिशूल के द्वारा है,जिसे उन्होंने थाम रखा है । चकित दर्शक आजू-बाजू झाँकते हैं कि आखिर शिवजी अधर में बैठे किस तरह है ।"
हर दिन एक नई और अनूठी झाँकी होती थी । कभी भगवान विष्णु के क्षीरसागर-शयन की कभी माखनचोरी की तो कभी खेत में बीज बोते किसान-दम्पत्ति की ।   
आरती व प्रसाद के बाद भजन गाए जाते थे । उन दिनों गाँव में गाँव के ही बहुत अच्छा गाने-बजाने वालों की भजन-मण्डली थी दो-चार लोग बाहर से भी आजाते थे । और श्रोता भी कम रस-मर्मज्ञ नही थे । ताल और मात्राओं की जरा सी गलती पकड़ लेते थे । 
ऐसे ही एक थे बापू ।
 उन्हें गिरवर बौहरे के नाम से नई पीढ़ी का शायद ही कोई व्यक्ति जानता हो । हर कोई उन्हें बापू ही कहता था । बापू बड़े स्पष्टवादी , सरल और सहृदय थे । गोरा तांबई रंग । उच्च ललाट । लगभग पैंसठ-सत्तर वर्ष की उम्र । कसा हुआ शरीर और निश्चिन्त मुखर हँसी । उन्होंने दो-चार किताबें (कक्षाएं) ही पढ़ी होंगी लेकिन मानस-पाठ सुनते हुए वे दोहा--चौपाइयों का बड़ी गहन और व्यापक व्याख्या करते थे । जितनी आसानी से वे अपनी त्रुटि या अल्पज्ञता को स्वीकार कर लेते थे उतनी ही स्पष्टता से वे आलोचना भी करते थे । वे हर तरह के सांस्कृतिक--आयोजनों में श्रोता बनकर बैठना और प्रस्तुतियों की आवश्यक प्रशंसा या आलोचना करना कभी नही छोड़ते थे । आलोचना भी उनकी कम तीखी नही होती थी । यही कारण था कि उनके सामने गाने के लिये लोग गीत-भजनों का चुनाव सोच-समझकर करते थे । एक दिन शर्माजी बड़ी मेहनत के बाद स्वयं एक फिल्मी गीत की तर्ज पर भजन रचकर लाए ।

फिल्मी गीतों की तर्ज पर भजन बनाने और गाने की परम्परा ने मौलिक ,पारम्परिक भजन व गीतों को विलुप्त सा कर दिया है । जो गीत चल पड़े हैं उन्ही पर किसी भगवान का नाम जोड़कर भजन का नाम दे दिया जाता है । मुझे याद है यह फिल्मी गीतों की तर्ज पर बने भजन मैं बचपन से ही सुनती आ रही हूँ । हालाँकि इसका विस्तार अधिक सुनाई देता है . अनेक प्रसिद्ध और प्रतिभाशाली गायक भी  इस तरह बने भजन खूब गा रहे हैं . 
दूसरे कई लोगों की तरह मैं भी इस परम्परा को ठीक नही मानती क्योंकि कई लोग तो मात्र गीत के मुखड़ें में मनपसन्द भगवान का नाम जोड़कर धड़ाधड़ नए नए भजन बनाकर गाते रहते हैं । महिला-मण्डलियों में गाए जाते गीतों के कुछ उदाहरण देखिये---"हम तो चले आए भोले तुमको मनाने , चाहे तू माने चाहे न माने ।" ( हम तो तेरे आशिक..)
"आज तुम्हारी पूजा का खयाल दिल में आया है इसीलिये अम्बेरानी का दरबार सजाया है ।"( शायद मेरी शादी का खयाल) 
"आई हो मैया मन्दिर में तुम बहार बनके "( आए हो मेरी जिन्दगी में ) 
"मेला लगाsss"( काँटा लगा..,यह तो प्रसिद्ध भजन गायक का गीत है )
फिल्मी तर्ज पर लोग धड़ाधड़ नए नए भजन बनाकर गा रहे हैं । एलबम निकाल रहे हैं । हालाँकि गीत बनाना आसान है जबकि उसे संगीत देना बेशक कठिन काम है । 
इसलिये आसान राह यही लगती है कि फिल्मी तर्ज का इस्तेमाल कर भजन या किसी भी तरह का गीत बना लिया जाय । बड़े-बड़े संगीतकार भी तो कहीं से नकल करके या अपनी ही पुरानी धुनों में जरा सा हेरफेर करके नए गीतों की धुनें तैयार कर रहे हैं । 
हाँ तो शर्माजी एक स्वरचित भजन लेकर आए ।शर्माजी को गाने का शौक है । "गाना आए या न आए गाना चाहिये" , के सिद्धान्त पर चलते हुए वे न केवल हर जगह गाते हैं बल्कि मानते भी हैं कि उनको गाने का पर्याप्त ज्ञान व अभ्यास है । वे औरों से अच्छा गा सकते हैं ,गाते हैं । सो उन्होंने सबसे पहले हारमोनियम अपने हस्तगत किया और दो तीन बार खखारकर गला साफ करते हुए शुरु किया----
"गणपति कीर्त्तन में आना होगा , भक्तों को दर्शन देना होगा ।
मेरा सुन्दर सपना पूरा करना होगा ...।" 
उन दिनों 'जीवन-मृत्यु' का गीत-"झिलमिल सितारों का.", 'बिनाका गीतमाला' में धूम मचा रहा था । 
अब समस्या यह थी कि " आंगन sss होगा और " सितारों का.." कहते हुए लता जी का स्वर-कौशल व माधुर्य कानों में जितना रस घोलता है वहीं "आना होगा " ,में शर्मा जी का कंण्ठ को भीचकर "आना..इ होगा "....कहना दाल में आए कंकड़ की तरह अखर रहा था और ऊपर से गणेश जी पर 'आना होगा' का दबाब..धौंस । बार-बार 'आना होगा' ..'लाना होगा' , 'देना होगा ' जैसे टुकड़ों को सुनते-सुनते बापू अपने आप को किसी तरह नियंत्रित करते हुए बैठे तो रहे लेकिन जैसे ही शर्मा जी उठकर चले गए ,उनका आक्रोश फूट पड़ा----"वाह री गवैया की पूँछ । 'धीय कौ मुरगा' ( बेटी का बेटा । बेवकूफ । हिकारत को व्यक्त करता स्थानीय शब्द। प्रायः बेटी की सन्तान को दूसरे कुल की माना जाता है इसलिये पोते-पोतियों से कमतर भी ) ..."आना होगा "...अबे,  होगा क्यों ?...का भगवान तेरे बाप का कर्जदार है कि तेरा नौकर, जो तेरी धौंस सुनकर दौड़ा चला आएगा ? 
दर्शक हँस हँसकर बेहाल थे पर बापू की भौंहें जो चढ़ी तो फिर दो चार कर्णप्रिय भजन सुनकर ही उतरीं ।
बापू के उस विरोध का ही प्रभाव था कि लोगों ने गीत रचते समय भावों का भी ध्यान रखना शुरु किया ।कई बार ऐसा होता है कि गीत की धुन बहुत ही अच्छी लगती है लेकिन शब्द हर जगह गाने लायक नही होते ।तब भी फिल्मी तर्ज का सहारा ले लिया जाता है ।पर वह कला की कंगाली ही कही जाएगी ।
उसी धारा में बहते हुए मैंने भी दुर्गाजी की आराधना में कुछ गीत लिखे हैं । लेकिन मैंने वे ही गीत चुने हैं ,जिनमें लोकधुनों का रंग है या  जिनके श्रोता अब ज्यादा लोग नही हैं । कम से कम नई पीढ़ी तो नही । जैसे एक पुराना गीत --"तेरे सदके बलम..." मुझे बहुत प्रिय है उसे गाने के लिये मैंने भजन बनाया था--

"मेरे देखो न गुण, रखलो शरण ,
अम्बे सुनलो अब मेरी पुकार ।
आखिरी आसरा तेरा द्वाsssर ...।

टूटी है नैया ,सुन मेरी मैया 
सागर है गहरा अपार ।
उल्टी हवाएं गुम हैं दिशाएं कैसे मैं जाऊँगी पार.. ।।
देखो मैया  जाऊँगी कैसे मैं पा....र । मेरे देखो न ...।

सुख हो या दुख हो ,तू ना विमुख हो 
हर पल रहे तेरा ध्यान 
चलती रहूँ मैं ,गाती रहूँ मैं टूटे न लय और तान ।
अम्ब मेरी टूटे न लय और ता....न । मेरे देखो न गुन..।"
(एक कड़ी और भी है)
शब्दों और भावों के प्रति यहाँ जो चैतन्यता दिख रही है उसके पीछे कहीं न कहीं बापू के उस सवाल " होगा क्यों"  से मिली प्रेरणा भी है । ऐसे लोग अब बहुत कम रह गए हैं ।