मंगलवार, 26 जुलाई 2022

'मूल्यहीन' ( बहुमूल्य) उपहार और खुशियाँ

 ऋचा बाजार से लौटी तो तमाम सामान के साथ एक बहुत सुन्दर बार्बी डॉल भी थी .

मैंने पूछा –यह गुड़िया किसलिये ?”

भूल गईँ आप , आज शाम को संदीप ने बुलाया है न . वे लोग जब हमारे यहाँ आए थे किंशू के लिये कार लाए थे . मैंने सोचा उसकी बेटी के लिये भी कुछ ले चलूँ


. बच्चियों को डौल सबसे ज्यादा पसन्द होती है ?”

सन्दीप अमन का दोस्त है . वह भी एक सॉफ्टवेयर कम्पनी में इंजीनियर है . घर में पत्नी दिशा और एक पाँच साल की बेटी है .शान्वी बार्बी डॉल पाकर खुशी से चहकी—"थैंक्यू आंटी .

और फिर वह अपनी उस नई डौल से खेलने लगी . नई इसलिये कहा कि उसके पास ऐसी ही सुन्दर और मँहगी लगभग पच्चीस-तीस बार्बी डौल पहले से थीं , जो उसके खिलौने वाले कॉर्नर में बहुत ही अस्तव्यस्त तरीके से पड़ी थीं . किसी के बाल बुरी तरह बिखरे थे किसी का टॉप गायब तो किसी का स्कर्ट . किसी के कपड़े बहुत घिस पिट गए थे जैसे शान्वी का अब उनसे कोई वास्ता नहीं था . 

इतनी सारी डौल्स ?” –-मैंने बिखरी पड़ी डौल्स को समेटते हुए कहा . मेरा विस्मय स्वाभाविक था . एक तो ये डौल मँहगी होती हैं , फिर इतनी सारी अनावश्यक भी हैं . बच्ची कितनी गुड़ियों से खेलेगी उसके पास और भी बहुत सारे खिलौने हैं .. दिशा हँसते हुए बोली --आंटी ये हमने खरीदी नहीं हैं . कुछ इसके बर्थ डे पर गिफ्ट में मिलीं और कुछ किसी के बर्थडे पर रिटर्न गिफ्ट में मिली .

पर सारे गिफ्ट उसे देते भी गए ?” मेरा विचार है कि खाना उतना ही लेना चाहिये जितनी भूख हो . इसी तरह बच्चों के पास खेलने के लिये खिलौनों के भी अधिक विकल्प नहीं होने चाहिये . ज़रूरत से अधिक चीजें और उन्हें चुनने के विकल्प खुशी की बजाय खुशी में व्यवधान बनते है .  

क्या करें आंटी ?”--–सन्दीप मेरे सिद्धान्त को एक तरह से नकारकर बोला –--"  गिफ्ट को शान्वी जब तक खोल नहीं लेती रो रोकर बुरा हाल कर लेती है . हैं तो सब उसी के लिये ..हमने जिस तंगी में बचपन जिया है ,अपनी बेटी को नहीं जीने देंगे . अब गिफ्ट उससे बड़े तो नहीं हैं न ?”

आज युवावर्ग जिस विचारों के साथ जीवन को स्वरूप दे रहा है , उसके अनुसार सन्दीप का उत्तर अप्रत्याशित तो नहीं था क्योंकि यह यूज एण्ड थ्रो का युग है . आज साधन प्रमुख हैं साध्य नहीं . लेकिन यह सोचनीय है . वे नहीं समझ रहे कि इस तरह वे बच्चों को असहनशील , एकाकी और कमजोर बना रहे हैं .

सवाल है कि क्या खुशी मंहगे और इतने सारे खिलौनों से मिलती है ? क्या खुशी के लिये साधन का इतना बहुमूल्य और बहुल होना आवश्यक है ?

मुझे याद आता है कि हमें बचपन में बाजार से खरीदा हुआ शायद ही कोई खिलौना मिला हो .पर क्या खुशियों की हमारे पास कोई  कमी थी ? बबूल के काँटे में कोई पत्ता फँसाकर बनाई गई फिरकनी ..(चकरी)  किल किल काँटे , पँचगुट्टे ,चंगा पै ,माटी के दियों की बनी तराजू , और घर में ही कपड़े से बनी पुत्तो ( पुतरिया, गुड़िया ) आदि .. सबसे हमें इतना ही आनन्द , बल्कि इससे कहीं अधिक आनन्द मिलता था .

सादा कपड़े की वह पुतरिया मेरे लिये दुनिया का सबसे मँहगा खिलौना थी क्योंकि हमारे पास उसका कोई विकल्प नहीं था . मैने कहा न कि विकल्प आपको किसी एक चीज पर पूरा ध्यान नहीं देने देते .  

आज लोगों के पास पैसा है वे अपने बच्चों के लिये बहुत सारी मँहगी चीजें खरीदकर अपना प्यार जताते हैं . लेकिन बहुलता के कारण साधन मँहगे होकर भी मूल्यहीन और प्रभावहीन सिद्ध होते हैं जैसे पेट बहुत भरा होने पर स्वादिष्ट व्यंजन .

शान्वी ने तो थोड़ी देर बाद ही नई डौल को भी एक तरफ डाल दिया और दूसरे तमाम खिलौनों को उठाने पटकने लगी . फिर न जाने किस बात पर रोने भी लगी ...सन्दीप और दिशा उसे मनाने की कोशिश में कह रहे थे –बेबी डोन्ट क्राइ डियर , वी विल बाइ अ न्यू वन ...

बुधवार, 13 जुलाई 2022

सिडनी डायरी --4



 

सफेद रेगिस्तान

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सब कुछ स्वप्नलोक जैसा . दूर दूर तक केवल बर्फ ही बर्फ .. विस्फारित से नयन हिम का निस्सीम सा वैभव विस्तार देखने आतुर ..मिट्टी पत्थर मैदान पहाड़ पौधे झाड़ियाँ ...सब हिमाच्छादित.. शुभ्रवसना माँ जैसे धवल चादर ओढ़कर आराम कर रही हो . कहीं कहीं उगे पौधे और झाड़ियाँ चंचल शिशु जैसे माँ के लाख ढँकने के बावज़ूद चादर से मुँह निकालकर देख रहे हों ..

यह विवरण आस्ट्रेलिया के न्यू साउथ वेल्स में स्थित स्नोई माउंटेन’ (snowy mountain)  की पेरिशर वैली का है .आस्ट्रेलिया की यह उच्चतम पर्वत श्रंखला 'ग्रेट डिवाइडिंग रेंज ' की  एक श्रंखला है ) जहाँ हम पिछले सप्ताह गए थे . इन दिनों अदम्य के स्कूल की छुट्टियाँ चल रही है . स्नोई माउंटेन जाने का उसका आग्रह बहुत समय से लम्बित था . हालाँकि मयंक श्वेता का स्वास्थ्य इसकी अनुमति नहीं दे रहा था पर पहले की बुकिंग थी ,जिसे स्थगित करने का कोई विकल्प नहीं था उधर अदम्य जिस उल्लास से अपने कपड़े खिलौने सूटकेस में जमा रहा था योजना को रद्द करना मुश्किल था इसलिये 7 जुलाई 2022 को मयंक ने कार की स्टेयरिंग सम्हाली और हम लोगों ने अपनी-अपनी सीट .सिडनी से पेरिशर वैली तक का यह  लगभग 500 किमी का है  . लेकिन सफर है काफी सुन्दर और सुविधाजनक . सपाट निर्बाध सड़क , दोनों तरफ पेड़ ; पेड़ हरे भरे भी और वसन्त का इन्तज़ार करते सूने उजड़े से पत्रविहीन भी . लगभग 150 किमी चलने के बाद हम लोग कॉफी के लिये (चाय नहीं मिलती ) ओलिव व्यू कैफे में रुके . जैसा कि नाम से स्पष्ट है यहाँ ओलिव यानी जैतून का बड़ा फार्म है . यह जगह बहुत ही खूबसूरत है . कॉफी और घर से बनाकर लाई गईं मूँगदाल की कचौड़ियाँ खाकर
ताजगी मिली तो मयंक ने दुगने उत्साह के साथ कार स्टार्ट कर दी .


जैतून का फार्म

जैतून की कतारें

'कुमा' और 'केनबरा' को पार करते हुए , स्थान के साथ ही धीरे धीरे रंगरूप बदलते जा रहे पेड़ों को निहारते हुए हम तीन बजे
जिन्दबाइन पहुँच गए . एक बड़ी और खूबसूरत झील के किनारे बसा हुआ यह शहर पेरिशर वैली तक के लम्बे सफर के बीच एक आरामदेह पड़ाव है . यहाँ हमें रात्रि विश्राम के अलावा बर्फीले मौसम के अनुकूल कपड़े जूते कार की चेन आदि सामान लेना था . 'मॉन्स्टर्स-डिपो'( monster depot) में गोरी, तन्वंगी ,अल्पवय और सुदर्शना युवतियाँ जिस तत्परता और सस्मित संवाद के साथ सबको सामान दे रही थीं , सामान के लिये दो घंटे की प्रतीक्षा मुझे बिल्कुल नहीं अखरी . यहाँ अठारह साल के बाद बच्चे ,लड़के हों या लड़कियाँ , अपना खर्च खुद उठाते हैं . सबसे बड़ी बात कि माता पिता को बेटियों की सुरक्षा की चिन्ता नहीं करनी पड़ती .

जिन्दबाइन झील



जिन्दबाइन टाउन




सामान लेने के बाद तय हुआ कि किसी रेस्टोरेंट में बैठकर पेट-पूजा की जाय लेकिन पर्यटकों की इतनी अधिकता कि जहाँ भी गए कोई सीट खाली नहीं थी . वेटिंग भी डेढ़ से दो घंटे ..पूरा  एक घंटा तलाश करने पर एक जगह स्वीकृति मिली वह भी एक घंटे बाद की .  हालाँकि घर से बनाकर लाया खाना ,फल, ब्रेड ,सब रखा था पर बाहर ताजा गरम पिज्ज़ा ( यहां शाकाहारियों के लिये एकमात्र यही भोज्य है ) खाने की इच्छा ने खूब भटकाया ..खैर 

  

8 जुलाई को सुबह नौ बजे हम लोग पेरिशर वैली को चल पड़े . जिन्दबाइन से पेरिशर वैली तक का सफर 30-35 मिनट का है . कुछ किमी चलने पर जंगल शुरु होगया . असल में यह पूरा क्षेत्र कॉजियस्को नेशनल पार्क (kosciuzko national park) का ही हिस्सा है . आस्ट्रेलिया का यह कठोर और वीरान क्षेत्र जून से अक्टूबर तक बर्फ और हिमपात के कारण पर्यटकों के लिये बेहद आकर्षक और रोमांचक रहता है .अक्टूबर से गर्मियाँ प्रारम्भ होजाती हैं .

हम लोग जैसे जैसे बढ़ते गए , पेड़ों के बीच बर्फ का विस्तार भी बढ़ता गया साथ ही हमारा उत्साह व रोमांच भी . और ..अन्ततः हम बहुप्रतीक्षित सर्वत्र हिमाच्छादित विशाल पेरिशर वैली में थे . हमने जिन्दबाइन से लिये कोट ,बूट ,ग्लब्ज पहने ,जो बर्फ के लिये खासतौर पर तैयार किये गए होते हैं .हमारे उत्साह का कोई ठिकाना न था . सब बच्चों की तरह किलक रहे थे . बर्फ का ऐसा वैभव पहली बार सामने था . दूर तक केवल प्रकृति का धवल हास ..मानो किसी ने सफेद नरम कालीन बिछा दिया हो . उजला कालीन जिस पर कठोर बूट रखते संकोच होता था . उसी समय और.. हिमपात (स्नो फॉलिंग) भी शुरु होगया .. अहा.. धवल फुहारों में खड़े हम... ,चेहरे पर , कपडों पर,  हिमकणों स्पर्श ...वह सचमुच एक अपूर्व अनुभव था .ऐसी फुहारें जो भिगो नहीं रहीं थीं . जैसे किसी ने रेशा रेशा कपास बिखराकर उड़ा दिया हो . पैरो के नीचे बर्फ का ढेर था ..शिलाखण्ड जैसी कठोर नहीं , रेत जैसी भुरभुरी और  गीली बर्फ जिसके गोले बनाकर लोग एक दूसरे पर फेंक रहे थे .हवा में हिमकण रेत की तरह उड़ रहे थे, ..जैसे हम बर्फ के रेगिस्तान में खड़े हों ..दूर दूर तक ठंडा सफेद रेगिस्तान जिसे पार करना  दुष्कर हो . पाँव मन मन भारी होरहे थे पर उत्साह ऐसा कि रोम रोम  ऊर्जा से भरा जा रहा था . हम जी भरकर फिसले , दौड़े , बर्फ के गोले बनाकर एक दूसरे पर फेंके ..लोग स्कीइंग कर रहे थे . जो अभ्यस्त थे वे दूसरे हिस्से में रोप वे से ऊपर जाकर स्कीइंग का आनन्द ले रहे थे 

बर्फ में बहुत देर तक रहना व चलना निश्चित ही हमारी क्षमता से ऊपर था . पास ही बने कैफे में कॉफी पीते हुए मैं उन लोगों के बारे में सोच रही थी जिन्हें महीनों बर्फ में ही रहना पड़ता है . हमारे जवानों को भी देश की सीमाओं पर दुश्मन से ही नहीं बर्फीले तूफानों से भी दो दो हाथ करने होते हैं . कितना कठिनाई भरा जीवन होता है उनका ! सोचकर मन कृतज्ञता से भर गया . 

जिन्दबाइन लौटते शाम होगई . पिछली शाम भूख मिटाने जिस तरह हमें जगह जगह भटकना पड़ा , तय हुआ कि स्टोव मिल जाए तो दाल चावल खुद ही बनालें . श्वेता सारा सामान साथ लाई थी . वह इंजीनियर होने के साथ साथ एक अच्छी गृहणी भी है .काफी प्रयास के बाद बीस डॉलर किराए पर एक घंटे के लिये स्टोव मिल गया . मैंने कहा एक घंटे के लिये बीस डालर ? (लगभग1150 रुपए  मेरे दिमाग में हमेशा रुपया रहता है ) श्वेता हँसकर बोली –"माँ कल खाना तो सौ डालर का था .  

9 जुलाई को हम जैसे ही जिन्दबाइन से चलने लगे अदम्य महाशय का रोना शुरु होगया . काफी पूछने पर बोले—"मुझे घर नहीं जाना ."

"तो फिर ?"

"मुझे स्नोई माउंटेन ही और जाना है .” 

वहाँ उसने खूब मस्ती की थी .पर यह संभव नहीं था .  उसे किसी तरह मनाया और केनबरा रुकने और बहुत सारी चीजें दिखाने का वादा करके चुप काराया .

पार्लियामेंट ऑफ ऑस्ट्रेलिया का अग्रभाग

पत्रविहीन पेड़ जो वसन्त में फूलों से लद जाएंगे .

केनबरा में पहले से बुकिंग नहीं थी इसलिये कोई होटल नहीं मिला .
हमें पार्लियामेंट हाउस देखकर ही सन्तोष करना पड़ा . लेकिन केनबरा एकबार फिर आना होगा जब वसन्त होगा और पत्रहीन खड़े बेशुमार पेड़ लाल गुलाबी फूलों से भर जाएंगे ..केनबरा से चलते पाँच बज गए . इन दिनों सूर्यास्त होते ही अँधेरा होने लगता है  . घर लौटने तक धूमिल आसमान के नीचे सारा शहर जगमगा रहा था .  

मंगलवार, 5 जुलाई 2022

सिडनी डायरी ---3



 
हरा भरा हैरिस गार्डन

पैरामेटा में एक उन्नीस मंजिला बिल्डिंग में अठारहवीं मंजिल पर दो कमरों वाला फ्लैट जिसमें सबसे सुन्दर है बड़ी बाल्कनी जहाँ से सुदूर तक विहंगम देखा जा सकता है . यहाँ सभी इमारतों में शीशे के पर्दे हैं जिनके आरपार स्पष्ट देखा जा सकता है . मैं जहाँ बैठी हूँ मेरा व अदम्य का कमरा है . इसमें भी बड़ी सी खिड़की जिसे खिड़की की बज़ाय दरवाजा कहना अधिक उपयुक्त है . पलंग पर लेटे या बैठे मैं शीशे के पार सुदूर सब कुछ देख सकती हूँ . 

कमरे में चांद
 एक साथ कितने रंग 
मेरे सामने बड़ा सा पार्क और चर्च है .पार्क ऊँचे सघन वृक्षों से घिरा हुआ है .वृक्ष भी कितने प्रकार और कितने रंगों के . हरियाली में ही हल्की से गहरी तक कितनी छायाएं हैं .. वृक्षों का वैभव तो देखते ही बनता है . कोई इतना सघन कि धूप पत्तों के बीच से नीचे उतरने की कोशिश करके हार जाती है . घनी टहनियों में गुँथे हुए से पत्ते धूप को हाथों हाथ या कहें आड़े हाथ लेकर लौटा देते हैं .अधिकतर वृक्ष सदाबहार हैं .उनके गहरे हरे और चिकने पत्ते जैसे हमेशा ऐसे ही बने रहने का वरदान लेकर आए हैं . पर कहीं कुछ पेड़ सारे पत्ते उतार कर अवधूत की तरह भी जमे हैं . 
सघन विरल का साथ 

बेशुमार कलियाँ जो फूल बनने तैयार हैं .

किसी पेड़ के पत्ते , हर हाल कुर्सी से चिपके रहने की लालसा वाले नेताओं की तरह ,सूख जाने पर भी टहनियों में अटके हुए हैं . कोई पेड़ पतझड़ में लाल हुआ जा रहा है तो कोई पीला . किसी पेड़ की टहनियों में पत्तों को हटाकर छोटी छोटी बेशुमार कलियाँ आकर जम गई हैं और कुछ ही दिनों में हल्के गुलाबी .फूलों में बदल जाने वाली हैं . कहीं छोटी छोटी झाड़ियाँ फूलों की लड़ियाँ गला में डाले इतराती हुई लगती हैं .

सामने छोटी सी नदी है जो शहर के केन्द्र 

तक पहुँचते पहुँचते समुद्र हो जाती है .  

नदी किनारे खूबसूरत जोड़ा 

नदी के किनारे पेड़ों से घिरा बहुत ही हराभरा मैदार है .नदी के साथ साथ सुन्दर फुटपाथ हैं जहाँ इक्का दुक्का  लोग टहलते दौड़ते मिल जाते हैं . भीड़ नहीं हैं क्योंकि जगह ज्यादा और लोग कम हैं . नदी में नियमित रूप से स्टीमर चलते हैं ,जिन्हें फेयरी कहा जाता है . पैरामेटा से सिटी तक जाने के लिये यह एक बहुत सुन्दर सुहाना साधन है . 


सजने के अजब ढंग

यहाँ सबसे 

फेयरी 

अच्छी बात है सड़क के साथ फुटपाथ जो पूर्ण सुरक्षित है . बस सड़क पार करने के लिये दस से पन्द्रह सेकण्ड रुककर सिग्नल के दौड़ते हुए आदमी के हरे होने की की प्रतीक्षा करनी है . फिर पार करने के बीच भले ही सिग्नल लाल होगया हो , गाड़ियाँ तब तक रुकी रहती हैं जब तक पार करने वाला सड़क पार न कर जाय . बिना सिग्नल निकलने वालों पर भारी जुर्माना लगता है चाहे वह गाड़ी वाला हो या पैदल चलने वाला . तो सही व्यवस्था लोगों की जागरूकता से कहीं अधिक सजा का डर है . फिर लोग नियम से चलने के आदी हो ही जाते हैं . राज्य कानून सजा की आवश्यकता है ही इसलिये .तभी स्पेंसर ने राज्य को बुराई मानते हुए भी आवश्यक कहा है .

सोमवार से शुक्रवार यहाँ दिनचर्या एक सी है . सुबह चाय नाश्ते के बाद अदम्य को स्कूल छोड़कर श्वेता मयंक का ऑफिस वर्क शुरु हो जाता है . मैं टहलने के लिये आधे से एक घंटा पार्क में या नदी किनारे निकल जाती हूँ . जहाँ अपने देश के बहुत से लोग मिलते हैं . संवाद न हो तो भी स्वदेशी होने का एहसास हो जाता है . वातावरण काफी साफ सुथरा और सुन्दर है . शनिवार रविवार अवकाश का होता है . आसपास ही मयंक और श्वेता के कई मित्र हैं . अमर , शिवम् ,सौरभ , रवि आदि ..ये दोनों दिन अक्सर इन्हीं मित्र-परिवारों के साथ खाते पीते हँसते खेलते गुजरते हैं . और तब सब भूल जाते हैं कि हम अपने देश में नहीं हैं ....

जारी.......