शुक्रवार, 20 नवंबर 2020

एक पेन की तलाश

यह हास्य-व्यंगात्मक संस्मरण लगभग 25 वर्ष पहले लिखा . लिखकर भूल भी गई . आज नजर पड़ी तो पोस्ट करने का विचार आया . पात्र और स्थान का नाम परिवर्तित है . आप पढ़ें  और मुस्कराएं ) 

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बक्की-झक्की राधे दर्जी को जाने क्या सूझी कि सबके सामने ही पं. सूधेलाल माड़साब की तारीफ कर गया .—

भाई कोई बुरा मानो या भला ,मास्टर हो तो पंडित सूधेलाल जैसा . कि पढ़ाए तो आवाज पूरे गाँव में गूँजे . क्या बुलन्द आवाज है भाई .जरूरत पड़ जाए है तो जन-जन तक अपना सन्देश बिना माइक के ही पहुँचा सकते हैं .और लोग भले ही बैठे-बैठे गप्प हाँकते रहें पर पंण्डित सूधेलाल को हमने कभी फालतू नही बैठे नही देखा ...

पुराने समय के मैट्रिक पास पंडित सूधेलाल मुखरैया जबसे सुरावली गाँव के प्राथमिक विद्यालय में आए हैं ,गाँवभर में चर्चित होगए हैं .मझोला कद , लम्बा चेहरा ,इक्का-दुक्का बालों के अलावा खोपड़ी सफाचट्ट हैं जिसकी आबरू बचाए रखने कानों के ऊपर चारों ओर दीवार बने हुए से सफेद बाल ,गेहुँआ रंग ,माथे पर रोली की बिन्दी ,चेहरे और पैरों के बीच दीवार बना हुआ सा पेट और पेट को हिलाती हुई तेज चाल ,सफेद झकाझक धोती-कुरता और उन्ही के रंग से मेल खाती भौंहें , दाढ़ी और कानों के ऊपर उगे बाल जो उनकी पचास पार आकर स्थिर सी होगई उम्र का ऐलान करते हैं .आँखें कान और दाँत आश्चर्यजनकरूप से दुरुस्तहैं .रोज कम से कम पन्द्रह किमी पैदल चलते हैं लेकिन तोंद की सेहत पर कोई असर नही है पैरों में हमेशा चप्पलें ही होती हैं जिनका पिछला एक सिरा चलते-चलते घिस गया है . नई चप्पलें पूरा घिस जाने पर ही आतीं हैं ..चलते समय धोती का एक सिरा हाथ में थामे वे चलते-चलते स्कूल में आकर साँस लेते हैं और लोगों की ओर देखते हुए जताते हैं कि उनसे पहले स्कूल में कोई नही आया .

"वाह पंडित जी ..भई नौकरी करो तो पंडिज्जी की तरह ."—लोग सुनाते हैं तो उनका निष्ठाभाव कई गुना बढ़जाता है .

"क्या करें भाई ,जिसका खा रहे हैं उसकी तो बजानी पड़ेगी .अब लोग घर के कामों में उलझे रहते हैं , टूसन-ऊसन करते हैं स्कूल में लेट आते हैं तो यह नौकरी के प्रति ....."

एम एल शर्मा समझ जाते हैं कि इशारा उन्ही की ओर है पर मुस्कराकर रह जाते हैं . पं. सूधेलाल से किसी की नही चलती. वशभर वे अपनी बात ही आगे रखते हैं जैसे कि एक दिन लता बहिन जी कक्षा में बच्चों की अधिक संख्या से परेशान थी . पहली कक्षा और उसमें साठ-पैंसठ बच्चे .किसको सम्हाले ,किसे पढ़ाए ..

"कक्षा में ज्यादा से ज्यादा चालीस बच्चे होने चाहिये .'एल टू आर' ( लर्निंग टू रीड) वाले तो बीस बच्चे ही कहते हैं .."

लता की बात सुनकर पंडितजी चुप कैसे रहते .बोले--

"लता बहनजी , जब एक चरवाहा सौ बकरियों को घेर सकता है तो क्या एक मास्टर साठ बच्चों को नही घेर सकता ..?"

"हाँ मास्टरजी ,घेर तो सकते हैं ..लेकिन सिर्फ घेर ही सकते हैं ."-–लता ने हँसकर कहा .

मास्टर साहब खाने के बेहद शौकीन हैं .उनका हाजमा किसी को भी चकित कर देने वाला है. कनागतों ( श्राद्ध-पक्ष) में वे भोजन के लिये आमन्त्रित करने वाले किसी भी व्यक्ति को निराश नही करते . बस आधा-एक घंटे के अन्तराल से हलवा-पूरी और दहीबड़ा खाकर कम से कम चार लोगों को कृतार्थ कर देते हैं .जब  

लेकिन सबसे ज्यादा चकित करता है उनका आत्मविश्वास भरी बुलन्द आवाज

सूधेलाल जी की आवाज तो उनके लिये एक वरदान है .किसी को अपनी बात कहने के लिये जोर नही देना पड़ता .यह बात अलग है कि उनके बार बार कहनेपर भी बच्चे शान्त नही होते .लोग पंडित जी की बातों का रस लेते हैं . तभी तो राधे दर्जी मुँह पर ही मास्टर जी की तारीफ कर गया . और सबकी आफत होगई .

सबका पढ़ाना बन्द . चाहे मिसरा जी हों या सरमा जी ,अपनी कक्षा में बच्चों को पढ़ाना छोड़ पं. सूधेलाल के व्याख्यान सुनने विवश होजाते हें .पंडित जी पढ़ाते हैं तो सिर्फ उनकी आवाज सुनाई देती है . पंडितजी का धाराप्रवाह ओजस्वी भाषण जो अक्सर एक ही तरह का होता सब अपना मुँह बाँधे सुनते हैं .और दबे दबे मुस्कराते हैं गाँव वाले भी आ खड़े होते हैं 

और सबसे पहले लेट आने वालों की जोरदार खबर लेते हैं –.."ओय कल्यान ..तू आज फिर लेट आया !..देखो तुम अब लेट आओगे तो जीवनभर लेट ही होते रहोगे .जिसने अनुशासन नही सीखा, वह कुछ सीख ही सकता .कुछ बन नही सकता  तुमने सुना होगा कि अनुशासन ही देश को महान बनाता है .जब अनुसासन एक देश को महान बना सकता है तो बच्चों को क्या नही बना सकता ?..विद्या मनुष्य को मनुष्य बनाती ..मानोगे तो फायदे में रहोगे नही तो हमारा क्या बिगड़ेगा . फिर वे बाहर खड़े गाँववालों की तरफ देखकर और जोश से भर जाते हैं—अगर गाँव में थानेदार आजाए तो लोग जी हजूरी करते हैं पर शिक्षक के लिये ठीक से दुआ-सलाम भी नहीं ..टेढ़ि जानि संका सब काहू...

उनके पीरियड में कोई पढ़ता नही है ,पढ़ ही नही सकता है इसलिये ज्यादातर छात्र खुश रहते हैं .कुछ नही रहते और पंडित जी से कोई पाठ पढ़ाने का आग्रह करते हैं तो पंडित जी का पारा चढ़जाता है –--"पाठ पढ़ा दीजिये ..अरे अभी क्या मैं झक मार रहा हूँ .पढ़ाने को कहो तो कोई भी पढ़ा सकता है पर मैं ऐसी बातें बता रहा हूँ जो मेरे पचास साल के अनुभवों का निचोड़ है .मैंने धूप में बाल सफेद नही किये ."

"पंडिज्जी आप हमें कोई कविता समझा दीजिये . अभी तक एक भी पाठ नही हुआ .."

"कविता पढ़ादो ..कविता पढ़कर क्या कवि बनोगे ?..कवियों को कोई दो कौड़ी नही पूछता . कविताओं में इतनी रुचि ठीक नही ..."

छात्र उनकी टालमटोलका मतलब खूब जानते हैं इसलिये अक्सर जटिल सवाल करते रहते हैं और पंडित जी के बगलें झाँकने का आनन्द लेते हैं .

बच्चे मुस्कराते हैं और दूसरे शिक्षक खीजते हैं कि कब इनका पीरियड खत्म हो और गाँव के लोग उन्हें सुनाकर कहते हैं-पंडीजी सही तो बोल रहे हैं .पंडीजी के चेहरे पर विजयी भाव चमक उठता है .

आज जब पंडितजी कक्षा में गए तो जाते ही उन्हें शिकायत मिली—-"पंडिज्जी ,किसी ने पप्पू के बस्ते में से उसका पेन निकाल लिया ."

"अच्छा !"--–पंडितजी को अचरज हुआ —" किसने ले लिया ?"

"यही तो पता नही है ."

"मैं लगाता हूँ पता . मेरी कक्षा में और चोरी !..राम राम चोरी सबसे बड़ा पाप है .कबसे नही मिल रहा ?"

"कल से ."

"तो मूरख ,तुझे कैसे पता कि स्कूल में ही खोया है ?"

"मैं यहाँ से सीधा घर गया . घर जाते ही मैंने हिन्दी का काम पूरा करने के लिये कापी पेन निकालना चाहा तो केवल कापी निकली . पेन बस्ते में था ही नही .."

"होसकता है रास्ते में गिर गया हो ."

"मेरा बस्ता फटा नही है .."

"हूँ ..समझा . देखो बच्चो ! तुम अभी छोटे हो विद्यार्थी हो अभी से ऐसे गुण मत सीखो कि लोग तुम्हारे ही नही तुम्हारे माँ-बाप के नाम पर थूकें .आज का बच्चा कल का नागरिक है .आज चोरी करेगा तो कल बैंक लूटेगा .लगता है तुम पर मेरी बातों का असर जरा भी नही हुआ .कहते हैं न कि कुत्ते की पूँछ को बारह साल दबाकर रखो( किसने दबाकर रखी )तो भी वो टेढ़ी ही निकलेगी . यह बहुत चिन्ता की बात है .देखो मेरे पास ऐसी चीज भी है जिसे मुँह में रखते ही चोर खुद चोरी कबूल लेता है पर मैं नहीं चाहता कि ऐसी चीज बच्चों को खिलाऊँ ....चलो, मैं पचास तक गिनती गिनूँगा . देखता हूँ कि कौन आता है खुद पेन लेकर ..एक दो ..तीन .दस ...बीस .तीस ..और पचास ..अरे कोई नही आया ."

"चलो सब खड़े हो जाओ...लातों के भूत बातों से नही मानते .बच्चे खड़े होगए तो पंडितजी हाथ में डण्डा घुमाते हुए सबको गहरी निगाहों से देखते हुए गुजरने लगे .पहला डण्डा पप्पू को मारने उठाया –" हाथ कर आगे .."

"यह क्या पंडिज्जी ..मेरा ही पेन खोया है और मुझे ही ...क्या मैं खुद अपना ही पेन चुराऊँगा ?"

"मेरी नजर में सब बराबर हैं .आजकल इन्सान का कोई भरोसा नही जब वह अपना अपहरण करवा सकता है ..तुमने समाचार नही पढ़ा ..तो क्या अपना पेन नही चुरा सकता ?"

कक्षा में हँसी का फव्वारा फूट पड़ा . लोग खिड़कियों से सटे हुए पंडित जी की प्रतिभा का आनन्द ले रहे थे .. 

"चुप रहो ."—पंडितजी दहाड़े—--"किसी पर भी हँसना आसान है .तुम लोग कुँए के मेंढ़क हो . कूपमण्डूक .बाहर की दुनिया देखो तो पता चले कि तुम....."

"हे भगवान. क्या हम यहीँ टर्र..टर्र करते रहेंगे ?"—बच्चों में से कोई बोला तो पंडितजी उधर मुड़े –

"अच्छा ! ठहर बिरमा के ! ..कमीन !..पेन तूने ही चुराया है ..लोगों के खेतों से गन्ने और बूट उखाड़ता है ..मूँगफलियाँ खोदकर ले जाता है ..मुझे सब पता है . पप्पू का पेन तूने ही चुराया है ."

इसके साथ ही अरुण की के कानों की जोरदार मालिश और खिंचाई हुई . जब पंडिज्जी को लगा कि कुछ ज्यादा होगया तो कुछ नर्म हुए -- "देखो बेटा ,पेन का न मिलना तुम्हारे साथ मेरी भी हार है इसलिये डरो मत जो पेन को ढूँढ़ने में सफल होगा उसे मैं परीक्षा में दस नम्बर ऊपर से दूँगा ..चलो बताओ ..होसकता है भूल से तुमने ही रख लिया हो ..कई बार मैं भी रख लेता हूँ .."

"ओ ..याद आया पंडितजी !"--पप्पू बोला 

"आपने कल मुझसे पेन लिया था फिर मैं लेना भूल गया और आप भी ..."

"हें !!.." पंडितजी ने कुरते की जेब तलाशी .एक पेन हाथ में आया तो बोल पड़े–--

"अरे हाँ ..हाँ ..मैंने कहा था न कि कभी कभी गलती होजाती है ."

"सो तो ठीक है पर मुझे दस नम्बर तो मिलेंगे ना ?"

"हाँ दूँगा तुझे बड़े-बड़े लड्डू ..नालायक ! शैतान लड़के मुझे ही उल्लू बनाते हैं .."

इसके साथ ही स्कूल में एक तेज ठहाका बुलन्द हुआ .

शुक्रवार, 2 अक्टूबर 2020

बन्द

बलबीर बहुत खुश था .आज पलभर में ही टेम्पो ठसाठस भर गया . और दिनों उसे इन्तजार करना पड़ता था . कई बार तो एक दो सवारियों को लेकर ही बाड़े तक चक्कर लगाना पड़ता है . कितने ही साथी टेम्पोवाले सवारियों को ले जाते हैं पर आज तो चार चक्कर ही उसे दिनभर की कमाई दे जाएंगे . मालिक को हिसाब देकर भी इतने रुपए बच जाएंगे कि आज दो दिन का राशन और बढ़िया मनपसन्द सब्जी खरीद लेगा .बच्चों की पनीर की सब्जी खाने की बहुत दिनों की माँग भी पूरी कर दूँगा . पर जैसे ही टेम्पो स्टार्ट किया कि कुछ लोग नारे लगाते हुए आए और बलवीर को खींचकर सीट से उठाकर बाहर निकाला .

क्यों बे ! देख नही रहा कि सड़क पर एक भी टेम्पो ऑटो नहीं है ?...साले पेपर नही पढ़ा क्या ? सरकार ने गलत कानून पास किया है . पन्द्रह दिन से लगातार चिल्ला रहे हैं कि दो तारीख को भारत बन्द रहेगा .

बन्द कहाँ है ? सड़कों पर आदमी , साइकिल, बाइक, कारें सब तो दिख रहे हैं .

अबे वे 'परसनल' हैं ...तुझे एक भी दुकान दिख रही है खुली ?..चल ज्यादा सवाल मत कर . टेम्पो सीधे घर ले जा नहीं तो किसी भी नुक्सान का जिम्मेदार तू ही होगा .

बलवीर ने हताश होकर टेम्पो बन्द कर दिया .उतरती सवारियाँ जेब से गिर गए नोटों जैसी लग रही थीं .बन्द हो या हड़ताल, जब देखो केवल ऑटो, टेम्पो पर ही गाज गिरती है या उन लोगों पर जो आने जाने के लिये टेम्पो के भरोसे रहते हैं . पता नहीं गरीबों का रास्ता बन्द करके कौनसा तीर मारते हैं ये लोग . बन्द कराना ही है तो कार , स्कूटर और बाइक सबको बन्द कराएं ना ...

बलवीर सोच रहा था कि आज भारत बन्द हो कि न हो एक बार फिर उसके घर की चहलपहल जरूर बन्द होगई थी .

रविवार, 23 अगस्त 2020

कितने चौराहे

 

हर सुबह करती हूँ एक प्रण

फेंककर आवरण

आलस्य का

करनी ही है पूरी

आज कोई कहानी

नई या पुरानी ..

या कुछ नहीं तो लिख ही डालूँ

एक सार्थक कविता

कबसे नहीं लिखी गई !

बहुत हुआ भटकाव

यहाँ वहाँ अटकाव

पर सवाल ,

कि पहले करूँ किस विधा का चुनाव ?

कहानी, गीत, संस्मरण ,यात्रा-वृत्तान्त

उपन्यास कोई दुखान्त या सुखान्त

प्लॉट तो पड़े हैं कितने ही

भवन खड़ा करना है .

उसी में जीना मरना है

कितनी कहानियाँ अधूरी हैं

देखना उनको को भी जरूरी है .

लेकिन ,

अभी एक ताजा संस्मरण भी कुलबुला रहा है

मुझे देर से बुला रहा है .

अरे हाँ ,आत्मकथा भी तो

छोड़ रखी है शुरु कर

पर इनके पारावार में उतरकर

संभव नहीं कुछ और भी लिखना

कुछ भी दिखना ..

इससे तो अच्छा है

फिलहाल लिखलूँ एक गीत ,

दिल-दिमाग में उगा है अभी अभी

पर...लिखूँ कैसे !

कितना कुछ तो बिखरा पड़ा है 

मुद्दों का अम्बार अड़ा है रास्ते में 

किसे उठाऊँ किसे छोड़ूँ !

उफ् ....एक बीमारी ही है

जुनून लिखने का

सबके बीच कुछ दिखने का.

अनुभवों को पीसते छानते   

रबर सा तानते 

बीत गया कितना समय !

कहाँ लिख पाई वह ,

जो शेष है अभी तक 

तल में जमे रेत सा 

बारिश का इन्तज़ार करते खेत सा 

कितना थकान भरा होता है 

सूखे बंजर खेत को सोचना

सोचे हुए को लिखना .

लिखकर छपने की चाह

आह या वाह 

अरे छोड़ो अभी सोच--विचार ,कुतर्क,फितूर

आज जरूरी है रहना तनाव से दूर

कल करूँगी पूरी कोई कहानी

मनमानी . 

बीत रही हैं सुबह शाम ,

दिन अनगिन...इसी तरह 

कुछ किये बिन,

सिर्फ सोचते हुए .

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

एक गीत पुरानी डायरी से

 आज ही पढा--अगर किसी पर भरोसा करो तो पूरी तरह , बिना सन्देह के करो ।क्योंकि तब दो में से एक मिलना तो तय है---या तो जिन्दगी का सबक या एक अच्छा साथी ।...बात सही है पर सबक को सहने-स्वीकारने के लिये तैयार होना बडे साहस का काम है । गहन विश्वास व स्नेह का प्रतिफल भी यदि सबक के रूप में सामने आए तो उस वेदना का कोई अन्त नहीं है । पूरी जिन्दगी बिखर जाती है ,आलपिन निकले दस्तावेजों की तरह.....। निराशा भी बडे निराशाजनक तरीके से अभिव्यक्त होती है ,इस गीत की तरह---


बीहडों की कंकरीली राह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?

यह जो सन्ताप है ,
किसका अभिशाप है ।
गीत बन सका न दर्द,
बन गया प्रलाप है ।
सौतेले रिश्तों के डाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?

उम्मीदें काई पर चलतीं ,फिसलतीं हैं ,
जितना समेटूँ ये और भी बिखरतीं हैं ।
मुट्ठी से रेत के प्रवाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?

याद नहीं अपना सा ,
कौन कब हुआ ।
बीच में हमेशा ,
दीवार था धुँआ।
गैरों के घर में पनाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?

आशाएं ठगतीं हैं ।
ठहरी सी लगतीं हैं ।
टूटी हुईं शाखें 
मधुमास तकतीं हैं ।
शाम ढले धूमिल निगाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ? 

बीहडों की कंकरीली राह सी हुई ।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ।

रविवार, 26 जुलाई 2020

कानू


उस दिन सुबह सुबह चिड़ियों गिलहरियों की चीख पुकार के साथ ही गुलाब की क्यारी में एक नन्हा सा जीव आ गिरा था .
वह गिलहरी का बच्चा था ,जिसे पैदा हुए ज्यादा दिन नहीं हुए थे . हमारे आँगन में नींम का पड़ा पेड़ है ,उन दिनों नीबू अमरूद आदि के पेड़ भी थे . गिलहरियाँ दिनभर धमा चौकड़ी मचाया करतीं थीं .कभी कभी कौआ भी खास इरादे के साथ वहाँ आ जाता था . वह बच्चा कौआ के इरादों का शिकार हुआ या किसी चिड़िया की रंजिश का यह तो नहीं मालूम पर गुल्लू (प्रशान्त) ने देखा तो झपटकर उठा लिया . उसमें यह हौसला जिया ( मेरी माँ) से आया है . जिया किसी भी जीव को हाथ में ले सकती थीं . उसकी जान बचा सकतीं थीं और बहुत खतरनाक होने पर मार भी सकती थीं . एक बार उन्होंने कोबरा को भी मार दिया था . चूहा पक़ने में तो वे सिद्धहस्त थीं . घर में किताबों कपड़ों का , यहाँ तक कि कुतर कुतरकर लकड़ी के किवाड़ों तक का सत्यानाश करने वाले बड़े बड़े चूहों को देशनिकाला दिया था ..वह हिम्मत मुझमें नहीं आई . मैं किसी मरी हुई छिपकली या चूहे को भी हीं उठा सकती . गुल्लू ने उठा लिया . उस नन्हे गिल्लू के शरीर पर अभी रोंए निकलने भी शुरु नही हुए थे . उसकी एक आँख से खून निकल रहा था .
मम्मी जल्दी से फस्टएड वाला डिब्बा ले आओ .”
गुल्लू ने किसी डाक्टर जैसी तत्परता दिखाते हुए आदेश दिया . रुई से उसका घाव पौंछा . मरहम लगाई रुई के सहारे ही मुँह में एक दो बूँद दूध डाला और रुई के फाहे में लपेट कर कमरे में रख दिया . इतने में आठ दस गिलहरियों ने प्रशान्त को घेर लिया जैसे गंभीर रूप से घायल हुए मरीज के परिजन अस्पताल में इकट्ठे होजाते हैं . 
हाँ यह बताना रह गया है कि उन दिनों हमारा घर गिलहरियों का मैस बना हुआ था . प्रशान्त बी ई की डिग्री के बाद घर पर ही रहकर गेट की तैयारी कर रहा था . उन्ही दिनों उसकी दोस्ती गिलहरियों से होगई .. प्रशान्त ने भीगे व भुने चने दिखा दिखाकर गिलहरियों को लुभाना शुरु कर दिया था ..पहले एक –दो गिलहरियाँ आईँ और दाना खाकर चली गईं . धीरे धीरे उन्होंने गुल्लू की दोस्ती स्वीकार करली . अब वे गुल्लू की आवाज पहचानने लगीं थी . वह जब भी आ आ ..बोलते हुए आवाज लगाता तो वे गिलहरियाँ छत की मुँडेर पर धूप सेक रहीं होतीं या नीम की शाखाओं में आराम फरमा रहीं होतीं या फिर कहीं से लाया कोई फल कुतर रही होतीं , झट से उतरकर आँगन में आ जातीं थी और गुल्लू के कन्धे , बाहों और हथेली पर आ बैठतीं और निर्भय चना कुतरती रहतीं थीं . भीगे चने चाहे बच्चों को न मिलें पर गिलहरियों के लिये जरूर तैयार रहते थे . एक दिन तो उनकी स्वादप्रियता देख हम हैरान रह गए . उस दिन चने नहीं थे पर वे तो तैयार होकर आ गईं नौते हुए मेहमान की तरह . प्रशान्त ने रसोई में डिब्बे खंगाले . ज्यादातर खाली खड़खड़ा रहे थे पर एक में मूँगफली दाने मिल गए जो मैंने पोहे में डालने के लिये सम्हालकर रखे हुए थे .मैंने कहा कि आज कुछ नहीं भी खिलाओगे तो रूठ नहीं जाएंगी वे ...कल से तैयार रखूँगी ..
मम्मी मैं एक दिन खाना नहीं खाऊँगा तो आपको कैसा लगेगा ?”
यह तो गिलहरियों की माँ होगया . मैं मन ही मन भुभुनाई पर उसने कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाई . चुपचाप डिब्बे से  मूँगफली दाने निकाले और टुकड़ा टुकड़ा कर गिलहरियों को खिला दिये . पर मजेदार बात तब हुई जब अगले दिन गिलहरियों ने भीगे चनों को सूँघा तक नहीं . अब उनके लिये मूगफली के दाने लाए जाने लगे . किसी दिन प्रशान्त घर में नहीं होता तब यह दायित्त्व मयंक ने सम्हाला हुआ था . मँझला विवेक बी-टेक के लिये एन. आई. टी. वरंगल चला गया था .
उन्हीं दिनों की घटना है . एम.टैक के लिये प्रशान्त को आई.आई. टी. रुड़की में प्रवेश मिल गया था . वह कुछ दिन बाद रुड़की जाने वाला था .यह खुशी का अवसर था पर मेरा दिल बार बार भर आता था . पहली बार वह मेरी नज़रों से दूर जा रहा था पर उसका पूरा ध्यान गिलहरी के घायल बच्चे पर था , जो अब थोड़ा बड़ा लगने लगा था . उसकी घायल हुई आँख बचाई नहीं जा सकी पर घाव सूख गया था . रुई के सहारे दूध से उसका पेट भर जाता था . शरीर पर रोंए दिखने लगे थे और शरारत के इरादे झलकने लगे थे .
हम इसे गिल्लू कहेंगे ,गिलहरी का बच्चा गिल्लू .”—मैंने कहा पर प्रशान्त बोला--
मम्मी यह नाम तो महादेवी वर्मा जी ने अपने गिलहरी के बच्चे का रखा था . मैंने उनका संस्मरण गिल्लू पढ़ा है . हम तो इसे कानू कहेंगे .
प्रशान्त का दिया यह नाम पुकारने में अच्छा भी था और अर्थपूर्ण भी .फिर सबने उसका यही नाम मान लिया .  प्रशान्त उसे हथेली पर लिये आँगन में घूमता रहता . गिलहरियाँ कौतूहल से देखतीं रहतीं ..वह अपनी इस उपलब्धि पर बहुत खुश था . अगर रुड़की जाने के इतने बड़े अवसर को छोड़ने का विकल्प उसके सामने होता तो वह जरूर दूसरा विकल्प चुन लेता .
मम्मी ! इसका ध्यान रखना .—चलते हुए प्रशान्त बोला .
हाँ बेटा .--मैंने आँसू छुपाते हुए कहा .
मम्मी , हाँ तो करदी है आपने पर पता है उसे रखना कैसे है ?..यह बाँस की टोकरी है इसमें रुई और मुलायम कपड़ा मैंने बिछा रखा है . आपको नियमित इसे दूध पिलाना है . और ढक्कन बन्द ही रखना कभी कभी खोल देना पर बिल्ली से जरूर बचाना ...मम्मी सुन रही हो ना ..?”
उसकी ट्रेन ओझल हुई तो मैं आँसू पौंछती हुई जल्दी से घर आई . कानू को देखा . टोकरी में चिपका सा सोया हुआ था . वह अब मेरी जिम्मेदारी था . जिसे मयंक ने बखूबी सम्हाल लिया  . बीच बीच में गुल्लू के लम्बे लम्बे पत्र आते उनमें चार-पाँच वाक्य कानू के बारे में जरूर होते . कि अब कितना बड़ा लगता है . एक आँख से ठीक से देख तो लेता है .दूध टीक से पीता है वगैरा वगैरा...
जब कानू थोड़ा और बड़ा होगया तो उसकी निगरानी में सख्ती करनी पड़ी ..क्योंकि अब वह टोकरी से निकलकर बाहर जाने का इरादा रखने लगा था और जैसे ही हम उसे हाथ में लेते वह उछलकर भागने की कोशिश करता . और एक दिन वही हो भी गया . जब मैंने उसका कपड़ा बदलना चाहा जिससे दूध की बदबू आने लगी थी ,देखा , टोकरी खाली पड़ी हमारी तमाम सावधानियों को चिढ़ाती हुई सी . बड़ी चिन्ता हुई और उलझन भी कि कानू कब कैसे निकल गया . मैं स्कूल और मयंक कॉलेज जाता तब हम उसे कमरे में बन्द कर जाते थे . फिर भी दबे पाँव आकर कहीं बिल्ली ने तो झपट्टा नहीं मार दिया .पत्र में प्रशान्त को क्या लिखेंगे . यह तो हरगिज़ नहीं कि हम देख नहीं पाए और वह गायब होगया . फिर पत्र में हमने लिख दिया कि कानू ठीक है पर यह झूठ बोझ सा प्रतीत हो रहा था .
खैर ,धीरे धीरे कुछ माह बीत गए तब हमने बता दिया कि कानू अब आजाद होकर अपने परिजनों से जा मिला है .
हाँ अब तो उसे जाना ही था . इससे ज्यादा उसे नहीं रखा जा सकता था . अब तो वह सरपट दौड़ने लगा होगा --प्रशान्त ने कहा . यह सुनकर मेरे दिल पर रखा झूठ का बोझ भी उतर गया . धीरे धीरे हम ,खास तौर पर मैं कानू को भूल गई .
पर प्रशान्त नहीं भूला कुछ माह बाद वह दो तीन दिन के लिये घर आया तो सारा घर-आँगन जैसे खिल उठा , दीवारें गा उठीं . मेरी आँखें उसके चेहरे से नहीं हट रहीं थीं पर उसकी आँखें किसी और को तलाश रही थीं .
मम्मी , उसके बाद कानू कहीं दिखा  ? पता नहीं कैसा होगा ! कहाँ होगा ! अब तो वह शाखों टहनियों पर खूब उछलकूद करने लगा होगा . आपने एक बार भी नहीं देखा न ?”
मैं उसके इस सवाल पर थोड़ा अचकचाई . कुछ कहती इससे पहले ही एक गिलहरी आकर प्रशान्त के कन्धे पर चढ़ गई . और ऊपर नीचे ऊपर नीचे चक्कर काटकर मानो खुशी जाहिर कर रही हो . मैं चकित . इतने दिनों में कई गिलहरियाँ रोज मयंक से आकर दाना तो ले जातीं थीं पर इतनी खुशी तो किसी ने नहीं दिखाई . प्रशान्त ने उसे हथेली पर लेकर उसे सिर से पूँछ तक ध्यान से देखा  और खुशी के साथ चिल्लाया –मम्मी ! कानू .

रविवार, 19 जुलाई 2020

हम कच्ची दीवार हैं


बन कजरारे मेघ वो, उमडे चारों ओर ।
रिमझिम बरसीं टूट कर अँखियाँ दोनों छोर ।

घिरी घटा घनघोर सी यादों के आकाश ।
बिजली सा कौंधे कहीं अन्तर का संत्रास ।

चातक , गहन हरीतिमा , झूला , बाग, मल्हार ।
इनसे अनजाना शहर ,समझे कहाँ बहार ।

भीग रहा यों तो शहर पर वर्षा गुमनाम ,
कोलतार की सडक पर क्या लिक्खेगी नाम ।

उमड-घुमड बादल घिरे , भरे हुए ज्यों ताव ।
टूटे छप्पर सा रिसा फिर से कोई घाव ।

उनको क्या करतीं रहें , बौछारें आक्षेप ।
कंकरीट के भवन सा मन उनका निरपेक्ष।

टप्.टप्..टप्...बूँदें गिरें , उछलें माटी नोंच ।
हम कच्ची दीवार हैं गहरी लगें खरोंच ।

बुधवार, 1 जुलाई 2020

लिखो पत्र फिर से

उन दिनों जब
तुम्हारे पत्र 
हुआ करते थे 
मँहगाई के दौर में
जैसे सब्जी और राशन
या पहली तारीख को
मिला हुआ वेतन .

पत्र जो हुआ करते थे
तपती धरा पर बादल और बौछार  
जैसे अरसे बाद
पूरा हो किसी का इन्तज़ार 

पत्रों का मिलना
मिल जाना था
अँधेरे में टटोलते हुए
एक दियासलाई  
या कि,
कड़कती सर्दी में
नरम-गरम 
कथरी और रजाई

उदासी भरे सन्नाटे में
पोस्टमैन –की गूँज  
गूँजती थी
जैसे कोई मीठा सा नगमा
पत्र जो होते थे
कमजोर नजर को
सही नम्बर का चश्मा .

मेल और मैसेज छोड़ो
और लिखो फिर से  
तुम वैसे ही पत्र,
जैसे भेजा करते थे
भाव-विभोर होकर
हाथ से लिखकर
हाथों से लिखे टेढ़े-मेढ़े
गोल घुमावदार अक्षर
होते थे एक पूरा महाकाव्य ...
लिखो फिर से ऐसे ही पत्र
खूब लम्बे
जिन्हें पढ़ती रहूँ हफ्तों , महीनों , सालों 
आजीवन ..
बहुत जरूरत है उनकी
मुझे , हम सबको
आज कोलाहल भरी खामोशी में 

शनिवार, 27 जून 2020

बचपन के शिलालेख

(सन् 2001 में लिखा गया एक संस्मरण)
समय की लहरों से मानस तट पर लिखे नाम धीरे धीरे मिट ही जाते हैं . फिर मेरा नाम कौनसा कोई संग्रहणीय शिलालेख है . रेत पर लिखे नाम कौन याद रखता है ...
मैं पहले तो यही सोच रही थी जब लगभग पैंतीस साल बाद उस गाँव में पहुँची थी .ऐसा सोचना निराधार नहीं था .कल्पना के विपरीत मैं वहाँ एक अजनबी की तरह लोगों से जानकारी लेने खड़ी थी .
लगभग पैंतीस साल पहले मैं जब शायद छह-सात वर्ष की थी ,वहाँ खुशी से नहीं गई बल्कि पढ़ाई के लिये ले जाई गई थी . काकाजी (पिताजी) वहाँ के स्कूल में दो साल पहले नियुक्त हुए थे . वह ठेठ पथरीला पहाड़ी गाँव था .शुरु में मुझे वहाँ जाना बहुत अखरा था .
पर धीरे धीरे मैंने सब स्वीकार कर लिया था . गाँव में जल्दी ही मेरे बहुत सारे दोस्त भी बन गए . केसन , गन्धू , आसा ,रामरती केसकली ,पुरन्दर , भूरी आदि कुछ नाम अब भी याद हैं .
बचपन के दिन कितने ही मुश्किलों और अभाव भरे हों पर बचपन की यादें हमेशा बड़ी खुशनुमा होतीं हैं उस जगह को हम कभी भूल नहीं पाते जहाँ बचपन बीता हो . उस गाँव में बीते तीन साल मेरे लिये खूबसूरत छोटी सन्दूक जैसे हैं जिसमें कई अनमोल चीजें सहेज रखी हैं . मैं रास्ते भर उन दिनों को याद करती रही कि कैसे हम लोग गोला का मन्दिर’ (रेलवे स्टेशन) से छोटी लाइन में बैठकर रिठौरा उतरते थे फिर बड़बारी के लिये पगडण्डियों पर मैं लगभग दौड़ दौड़कर चलते हुए काकाजी का पीछा किया करती थी क्योंकि उन्हें तेज चलने की आदत थी . .
उस दिन यही सब याद करके बस से उतरते हुए मन उल्लास और पुलक से भरा था . मेरी वर्षों की लालसा पूरी होने जा रही थी . मैं एक बार फिर वह स्कूल देखना चाहती थी जिसका एक छोटा सा कमरा हमारी पूरी दुनिया हुआ करती थी . जहाँ काकाजी ने मेहनत करके सूखी पथरीली जमीन में फूल खिलाए थे . जहाँ सिरस (शिरीष) का एक बड़ा पेड़ था जिसके सुनहरे रेशे वाले फूल पूरी हवा को महक से भर देते थे .पता नहीं कासिम दादा और उनकी वह झोपड़ी अब भी होगी या नहीं जिसमें मैं अक्सर सफेद रेशम से मुलायम रोओं वाले चूजे देखने जाया करती थी . मैं उस तालाब की लहरें गिनना चाहती थी जिसकी ऊँची ऊँची नीली लहरें सुन्दर कम डरावनी अधिक लगतीं थीं . बारिश में जिसकी पार की चिकनी मिट्टी बहुत फिसलन भरी हो जाती थी .काकाजी कहते थे --गीली मिट्टी में पैरों के अँगूँठे गड़ाते हुए चलना चाहिये .ताकि फिसलन से बचा जा सके .
मैं खजूर की झाड़ियों से घिरे उस कुँआ को भी देखना चाहती थी जो गाँव भर के लिये पानी का एकमात्र साधन था और जहाँ से पानी लाना दैनिक कार्यों में सबसे कठिन और शाम के बाद बड़े साहस ...नहीं ,दुस्साहस का काम माना जाता था क्योंकि अँधेरा होते ही वहाँ डाकू आते हैं , ऐसा सब लोग कहते थे . अब डाकू समस्या तो नहीं ही होगी .....आहा, क्या वह नीम का पेड़ भी अभी होगा जिसकी नीची शाखों पर बैठकर हम गा गाकर गिनती पहाड़े और हिन्दी के मायने याद करते थे ? और हाँ वह अलाव भी मेरी स्मृतियों का खूबसूरत हिस्सा है जहाँ शाम को लोगों के बीच बैठकर काकाजी देर रात तक 'नील-सरोवर' और 'रूप-वसन्त' ,राजा हरिश्चन्द्र और सिंहासन बत्तीसी जैसे तमाम किस्से कहानियाँ सुना करते थे . सरपंच काका की बतखों और कमला पति के आतंक को कैसे भूल सकती हूँ .
क्वार-कार्त्तिक में धान के हरेभरे खेतों से उठती खुशबू , बगुलों की पाँतें और उन्ही की रंगत के तलैयों में खिले फगुले ( सफेद कमल) , साफ पानी से लहलहाता तालाब .. टेसू के फूलों से लदा हुआ शनीचरा का जंगल जिससे गुजरते हुए हर शनिवार हम साइकिल से बानमोर के पास उस गाँव आते थे जहाँ माँ की सर्विस थी . यह सब मेरे मानस पटल पर एक खूबसूरत चित्र की तरह अंकित है . डाकुओं के भयावह किस्से उस समय भय और आज मनोरंजक कहानी जैसे लगते हैं . ....खूबसूरत यादें हमारी अनमोल पूँजी होतीं हैं . मैंने वे सहेजकर रखी हैं . उन्हें एक बार फिर ताजी करने जा रही थी .
बस से उतरकर चारों ओर देखा तो लगा कि मैं कहीं गलत जगह पर तो नहीं उतर गई . आस पास कितने खेत हुआ करते थे . यहाँ तो तमाम फैक्टरियाँ बसी हुई थीं . टेसू के हल्के सिन्दूरी फूलों की जगह गुलमोहर ने सुर्ख लाल गुच्छों ने ले ली है . अच्छा यही मालनपुर है . तब छोटा सा गाँव हुआ करता था . मुझे याद है कि बस के लिये हम मालनपुर जाते थे और रेल के लिये रिठौरा . बड़बारी इन दोनों के बीच में है .पर अब दिशाएं ही गड़बड़ लग रही थी . कंकरीली पगडण्डी की जगह पक्की सड़क थी . बड़बारी किधर है ? क्या वह ऊँचाई पर बसा छोटा सा गाँव ?
हाँ हाँ वही बड़बारी है .”--एक आदमी सरसरी निगाहों से देखता हुआ बता गया . सड़क से गाँव तक का रास्ता अभी तक कंकड़ पत्थरों वाला था . आसपास झरबेरियाँ खड़ी थीं और खदानों के गड्ढे भी वैसे ही गहरे थे जो बारिश में पानी भरने पर खतरनाक हो जाते थे . यह सब उस गाँव के बड़बारी होने की पुष्टि कर रहे थे .
गाँव की गलियाँ शान्त थीं . दूर कहीं लाउडस्पीकर पर कोई लोकगीत सुनाई दे रहा था . कुछ पलों के लिये लगा कि मैं सचमुच अजनबी जगह पर आ गई हूँ . इतने सालों कौन किसको याद रखता है . वैसे भी मैं यहाँ परिचय के लिये नहीं बल्कि शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति विषयक जानकारी लेने आई हूँ .परिचय तो कहीं धूल में दबकर मिट ही गया होगा . फिर भी मन में कौतूहल और मोह था . इधर ही कहीं केसन (कृष्ण) का घर था . केसन जाटव जो मेरा सहपाठी था जो अपने पीले दाँतों के लिये गुरूजी से खूब डाँट खाया करता था . आसपास ही मुरली कोरी भी रहता था जो काकाजी का परम मित्र और भक्त था . उदयसिंह कक्का , करन सिंह दद्दा क्या अब होंगे ?..रामबरन ,आसाराम ..कहाँ कैसे होंगे ...कोई तो दिखता ...बचपन की छोटी उथली सी गलियाँ अब कहाँ थीं . एक दो महिलाएं घूँघट की झिरी से झाँकती हुई चली जा रही थीं . बच्चे मुझे सुई लगाने वाली बाईसमझकर छुप रहे थे . चबूतरों पर झोपड़ियाँ डालकर बैठे अधेड़ और बूढ़े लोग मुझे सवालिया नजरों से देख रहे थे .परिचय का भाव तो कहीं नहीं था . कोई तो मुझे पहचान लेता ..तब मुझे लगा कि समय के साथ सब धूमिल होजाता है . खैर मुझे अपने काम के लिये सरपंच से तो मिलना ही था .
अरे भैया जरा सुनो .” –मैंने एक अधेड़ से आदमी को पुकारा जो भूसे का गट्ठर सिर पर लादे जा रहा था ये रामबरन जी कहाँ मिलेंगे ?”
क्या काम है रामबरन से ?” ---–उसने मुड़कर कुछ जिज्ञासा के साथ देखा .
मैं ही रामबरन हूँ .
रामबरन .....!”---हवा एक तेज झोंका आया और आसपास की सारी धूल जैसे मेरी आँखों में भर गई .कहाँ मेरी स्मृतियों में रामबरन एक किशोर , हमेशा साफ -सुथरा चुस्त-दुरुस्त रहने वाला काकाजी का सबसे प्रिय शिष्य और कहाँ यह काम के बोझ से थका हारा सा अधेड़ !..अजनबी !! ..समय की धूप में मुरझाया ..बत्तीस साल का अन्तराल ..
तो क्या उस धूप ने मुझे नहीं बदल दिया होगा ?” मुझे भी तो भला कोई कैसे पहचानेगा .
मुझे पहचाना ?....नहीं ?
".........."
"याद करो .उन दिनों जब तुम कक्षा पाँच में थे और मैं .... अपने .गुरुजी याद हैं....?”
अरे ! तुम गिरिजा हो ?”–-उसकी आवाज में अविश्वास और जिज्ञासा के साथ कुछ पुलक भरी मिठास भी थी . तेज रोशनी से जैसे सारा अँधेरा तिरोहित होगया . पैरों में झुकते हुए बोला –--“इतने सालों बाद इधर कैसे भूल पड़ी बहिन ?”
" यहाँ सरपंच जी से मिलना था "
" मिलवा देंगे , पहले घर चलो "
फिर तो न सवालों का अन्त था न जबाबों का .अब मेरे सामने वही किशोर सहपाठी था , काकाजी का भक्त .शादी के समय जिद पर अड़ गया था कि गुरुजी बारात में नहीं जाएंगे तो वह ब्याह ही नहीं करेगा . माँ ने उसकी शादी में खूब गीत गाए थे ... क्या दिन थे वे . समय का अन्तराल मिट गया था . आनन फानन में मूँज की खाट पर नई दरी चादर डालदी गई .. हाथ का बुना बीजना लेकर भाभी आगई ..बेटी गाढ़े दही की लस्सी बनाकर ले आई . वह उल्लास के साथ बता रहा था –--“ ये बहिन जी है ..पहचानो ..अरे वही अपने गुरूजी की बेटी . मास्टरनी हैं ...अच्छा ! अरे ! ये हैं ? ...ओ हो गिरिजा बहिन जी ...?”
इसके बाद एक भीड़ ने मुझे घेर लिया . सब काकाजी को याद कर रहे थे . अतीत सामने था .मैं हैरान हुई देख रही थी कि क्या बदला है ! बस महाराणा प्रताप जैसे दिखने वाले उदयसिंह कक्का की बड़ी बड़ी आँखों पर मोटा चश्मा लग गया है . पर मूँछे एकदम सफेद होगई हैं पर आवाज अब भी वैसी ही रौबीली है . मानसिंह काका तो दुबले ही थे पर बाल पूरी तरह सफेद होगए हैं ..काकी का चेहरा कुछ झुर्रा गया है . रसाल भैया वाली भाभी अब भी उतनी ही गोरी और सुन्दर हैं . कमाल है .तो क्या तब बचपन में ही ब्याह कर आगईं थीं !
शायद बचपन में हमें जो काफी उम्रदराज लगते हैं ,वे होते नहीं . मुझे अपनी माँ जैसी बचपन में दिखती थीं वैसी ही अपनी युवावस्था में लगतीं थीं और बाद में भी ..या कि शायद मुझे ऐसा लगा हो ...आसाराम की हँसती हुई मुखाकृति पर मूँछे बनावटी लग रही थीं ,भूरी के बाबा झुक कर चलने लगे थे .रामरती केसकली सब ससुराल में थीं .मैं चकित थी .मुझे लग रहा था कि यह सब पिछले जन्म की बात है .कल्पना भी नही थी कि इतने साल बाद ये सब लोग मिलेंगे . करनसिंह दद्दा चले गए . करतारा की अम्मा अपनी खुरदरी हथेलियों से बार बार मेरे बाल सहला रही थीं . रूखी हथेलियों में उभर आए काँटे मुझे चुभने की बजाय स्नेहमय कोमलता का अहसास करा रहे थे . मानोमौसी पीठ की पसलियों पर हाथ फिराती कहे जा रही थीं---लली कितनी दूबरीहैं . कुछ खाती पीती नहीं . चिन्ता तो नही करती पर चिन्ता काहे की ? सरकारी नौकरी है . लल्लू भी ( मेरे पति) भी स्यातमास्टर हैं .घर का मकान है .बच्चे पढ़ रहे हैं ..
अरे तो का मास्टर साब को नहीं देखा, डेढ़ पसुरिया के थे .” –काकी ने हँसकर कहा . वे बड़े स्नेह से काकाजी को जबरन भोजन कराया करती थीं .
मन में कई सवाल थे जिनके उत्तर मिले कि तालाब सूख गया है उसमें खेती होती है .पानी भरने अब कुँआ पर जाने की जरूरत नहीं घर घर नल लग गए हैं .कासिम दादा अब नहीं है . नए लड़के ज्यादातर ग्वालियर जाकर बस गए हैं . अधिकतर खेत फैक्ट्रियों में बदल गए हैं . लोग भी खेती करने की बजाय फैक्ट्रियों में काम करना ज्यादा पसन्द करते हैं .
बाई साब तुम तो जहीं आ जाओ . बच्चनि कौ उद्धार हुइ जावैगौ .”—कई आवाजें एक साथ उभरीं . पता चला कि स्कूल फिर से उसी दशा में था जिसमें काकाजी के आने से पहले था . शिक्षक हफ्ते में दो-तीन दिन आते हैं . आकर भी कौनसा पढ़ाते हैं ..बच्चों को दो तीन घंटे घेरकर ,हाजिरी भरकर छुट्टी कर जाते हैं और टिकते भी मुश्किल से साल डेढ़ साल ..तबादला करा ले जाते हैं . जम कर रहें तो पढ़ाने में मन लगे ..
मैंने देखा उन्नति के नाम पर चलाए गए अभियानों में फोन और टीवी तो घर घर में होगए हैं पर शिक्षा के नाम पर केवल दिखावा रह गया है .मध्याह्न भोजन योजना और शत-प्रतिशत परीक्षा परिणाम की अनिवार्यता ने पढ़ाई को बहुत पीछे छोड़ दिया है .
सबके बीच दो-तीन घंटे कब बीत गए पता ही न चला . मैंने सरपंच को अपने आने का उद्देश्य बताया जो एक शिक्षाकर्मी की नियुक्ति से सम्बन्धित था .और सबसे विदा ली . सब लोग नंगे पाँव ही मुझे गाँव के बाहर तक छोड़ने आए . सबकी आँखें स्नेह से छलकी जा रही थीं . पीछे देखते हुए मेरी दृष्टि भी धुँधला रही थी .
तब मुझे महसूस हुआ कि मन के गीले आँगन में उकेरे गए हस्ताक्षर समय की धूल में छुप भले ही जाएं पर मिटते नहीं हैं . कभी नहीं .
सन् 2001 में लिखित
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