संवेदना की भाषा और निरक्षरता की पीडा---------बैंगलोर 16 जून ।
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वाणी अम्मा अब काम पर नहीं आती। लगभग दो माह से वह बीमार सी दिख रही थी ।अक्सर नागा भी करने लगी थी ।अब बिल्कुल नही आरही ।अभी दो दिन पहले ही सरोज अम्मा से पता चला कि डा. ने वाणी अम्मा को कैंसर बताया है । सरोज अम्मा नीचे सामने वाले घर में काम करती है ।वह हिन्दी समझ लेती है और टूटी-फूटी बोल भी लेती है, उसी तरह जिस तरह चलना सीखरहा बच्चा लडखडाते हुए ही सही कुछ कदम तो चल ही लेता है ।
इस दुखद सूचना से हम सब स्तब्ध हैं ।दुखी भी हैं ।वाणी अम्मा पिछले चार साल से हमारे यहां काम कर रही थी ।गहरे रंग.छरहरे बदन और सरल हँसी वाली तमिल-भाषी वाणी अम्मा इतने समय में हमसे इतनी घुल-मिल गई थी कि हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी का एक हिस्सा ही बन गई थी ।भाव-संचार के लिये भाषा का माध्यम न होने पर भी वह अपना सुख-दुख प्रकट करलेती थी ।जैसे कि मैं जब भी बैंगलोर आती ,वह अचानक सुबह-सुबह मुझे घर में देख खुशी के मारे दोनें बाँहें फैला कर कहती--आ...अम्मा----।इसीतरह जब मैं उसे उदास देख कर उसके कन्धे पर हाथ रख कर उदासी का कारण पूछती तो वह मेरे कन्धे पर सिर टिका कर फफक कर रो पडती थी ।तब मैं यह समझकर कि इसके साथ कोई गहरा दुख जुडा है ,उसे सान्त्वना तो दे देती थी पर......।मैं मानती हूँ कि प्रेम,पीडा,आनन्द,घ्रणा .आदि भाव व्यक्त होने के लिये शब्दों के मोहताज नही है। संवेदना की भाषा मानवीय,सर्वमान्य,और सर्वकालिक होती है ।वैसे भी उसे जो कुछ व्यक्त करना होता था कर लेती थी ।उसे कुछ शब्द अंग्रेजी के ---बकेट,सोप,क्लिप आदि---आते ही थे बाकी कामों ---खाना कपडा माँगने--वह संकेतों से का चलाती थी ।उसके लिये शायदयही काफी था ।पर मेरे लिये इतना काफी नहीं है ।मैं जानना चाहती हूँ कि उसने चप्पलें पहनना क्यों छोड दिया । कि ,वह बडे जतन से खाना बचा कर किसके लिये ले जाती है ।
कि ,सरोजअम्मा के कथनानुसार उसका बेटा उसे घर से चाहे जब निकाल देता है तो क्यों उसका विरोध करने की बजाय उसकी फिक्र करती है ।और कि ........और न जाने कितनी बातें ।मेरे लिये आँसू और मुस्कान की भाषा से आगे और ज्यादा महत्त्व शब्दों की भाषा का है ।वस्तुतः मानव जीवन दूसरे जीवनों से अभिव्यक्ति की क्षमता के कारण ही तो अलग है ।एक दूसरे की व्यथा-वेदना को,भाव-संसार को जानना ही नही उसे पूरी तरह समझना भी जरूरी है । मेरा मानना है कि अपने आस-पास से ...जमीन से जुडे बिना आत्मीयता नहीँ आसकती ।और जुडाव भाषा-संवाद के बिना नहीं होता ।मुझे यह अखरता है कि मैं बडे-बडे सिन्दूरी फूलों वाले और जहाँ-तहाँ विशाल छतरी की तरह फैले गुलाबी फूलों वाले इन पेडों के नाम भी नही जानती , या कि किसी प्रतिमा को सजा कर फूल बरसाते हुए बैंड-बाजों के साथ जो जलूस निकला वह क्या ,कौनसा उत्सव था ।क्यों कि मुझे यह सब समझाने वाली भाषा उन्हें नही आती जो इसे जानते होंगे । अगर सरोज नही होती तो वाणी अम्मा के बारे में हमें कहाँ से पता चलता ।
भाषायी समझ की आवश्यकता के अनुमान के लिये एक और प्रसंग याद आरहा है ।एक सुबह जब मैं पार्क में टहल ही थी एक हमउम्र महिला की अपनत्व भरी सी मुस्कान ने मुझे संवाद के लिये प्रेरित किया ।पर विडम्बना यह कि उन्हें अंग्रेज तक नही आती (,हिन्दी की तो बात ही नही है ) और मुझे कन्नड ।विवश होकर हमें मुस्कान और अभिवादन तक ही सीमित रहना पडा ।
बैंगलोर आकर मुझे निरक्षरता की पीडा का अहसास होता है ।जब मैं केवल कन्नड में(अंग्रेजी नही ) लिखी सूचना व विज्ञापनों को देखती हूँ,तो न पढ पाने की बेवशी कचोटती है ,एक अँधेरे का अनुभव होता है । ।अक्षर -ज्ञान की महत्ता व आवश्यक समझ आती है । अक्षर उजाले का स्रोत हैं , दिमाग के दरवाजों की कुन्जी है ।चेतना के द्वार हैं ।अक्षर जमीन हैं आसमान हैं ।
बुधवार, 16 जून 2010
संवेदना की भाषा और निरक्षरता की पीडा
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