रविवार, 21 अप्रैल 2019

हिमाचल में सात दिन --अन्तिम भाग -- यादों के उजाले


सोलांग घाटी
आज भी हमारी आँखें कटराई की सुहानी सुबह देखते हुए खुली . आज भ्रमण के अन्तिम दिन सबसे पहले हम मनाली में हिडिम्बा देवी के मन्दिर गए .
हिडिम्बा देवी का मन्दिर (सामने)
हम सभी जानते हैं कि लाख के महल से जीवित बच निकले पाण्डवों ने अनेक वर्ष वन में बिताए . वन में ही उन्हें हिडिम्बा मिली . वह राक्षस कुल की थी . वह भीम से मन ही मन प्रेम करती थी . जबकि उसका भाई हिडिम्ब पाण्डवों से युद्ध करते मारा गया  ,और हिडिम्बा अकेली रह गई , कुन्ती ने भीम से उसका विवाह करवा दिया .वही हिडिम्बा बाद में घटोत्कच जैसे वीरपुत्र की माँ बनी . श्री कृष्ण की प्रेरणा से हिडिम्बा लोक कल्याण के कार्यों में रम गई . कुल्लू के शासक विहंगमणि पाल को राजा होने का वरदान हिडिम्बा ने ही दिया . कुल्लू में हिडिम्बा देवी की बहुत मान्यता है . कुल्लू का दशहरा तब तक शुरु नही ता जबतक देवी न पहुँच जाएं
ऊँचे विशाल देवदार के वृक्षों के बीच स्थित पैगोड़ा शैली में बना यह मन्दिर बहुत भव्य और कलात्मक दृष्टि से उत्कृष्ट है .मनाली से केवल एक कि.मी.दूरी पर है . मन्दिर के भीतर एक चट्टान है जिसे स्थानीय भाषा में ढूँग कहा जाता है इसलिये हिडिम्बा देवी को ढूँगरी देवी भी कहा जाता है .. वहाँ सवारी के लिये याक खूब मिलते हैं . मान्या अश्विका ने याक की  सवारी का आनन्द लिया .
वाटर राफ्टिंग से आते हुए प्रशान्त
मन्दिर से लौटकर प्रशान्त, सुलक्षणा, कार्तिक ,चारु ,मान्या,और अश्विका ने  व्यास के उछलती मचलती बर्फीली वेगवती धारा में रोमांचक वाटर-राफ्टिंग का आनन्द लिया . यह थोड़ा साहसिक कार्य है .राफ्टिंग बोट लहरों साथ ही उछलती है, लहराती है . बच्चों के आग्रह के बावजूद मैं उसमें शामिल नही हुई . धारा के साथ ही चलती गाड़ी में से मैंने उसके रोमांच का अनुभव किया .
शाम को वशिष्ठ मन्दिर गए .
मनाली से ढाई कि.मी.दूर वशिष्ठ नामक गाँव में भगवान राम और वशिष्ठ मुनि के दो छोटे मन्दिर हैं .ये काठकुणी शैली के परिचायक हैं जिसमें देवदार की लकड़ी का प्रयोग ज्यादा हुआ है . लोगों के आवास गृहों में भी लकड़ी का उपयोग अधिक हुआ है .भी यहाँ गर्म जल के दो प्राकृतिक स्रोत हैं जहाँ पुण्यलाभ के अलावा चर्मरोगों से छुटकारा पाने के लिये लोग स्नान करते हैं . हमने वहाँ विदेशी पर्यटकों ( महिलाएं भी )की भीड़ देखी जो अपनी शैली में स्नान कर रहे थे .कहने की आवश्यकता नही कि वे भीड़ के आकर्षण का खासा केन्द्र बने हुए थे .
मन्दिर के गर्भगृहों में मनु ऋषि व हिडिम्बा देवी की प्रतिमाएं हैं . यहाँ सुन्दर बाजार भी है .हमने कुछ सूट खरीदे .लौटकर मनाली के बाजार में जलेबी का आनन्द लिया .हालाँकि मुझे तो नाम बड़े दर्शन छोटे लगे . वहाँ से ज्यादा स्वादिष्ट जलेबियाँ हमारे 'लवली स्वीट्स' पर मिलतीं हैं . वहाँ सेव का अचार और आलूबुखारे का जैम भी खूब मिलता है .
शॉल की बुनाई

कुल्लू एयरपोर्ट
अँधेरा होते ङोते हम कटराई वापस आ गए . रात में सोने से पहले यह विचार हल्की सी उदासी के साथ आया कि यहाँ बीते ये खूबसूरत तीन दिन कल के बाद सिर्फ याद रह जाने वाले हैं . सुबह 23 अप्रैल को गृहस्वामियों ने दही पराँठे और पपीता का स्वादिष्ट नाश्ता दिया . हमने इतने अच्छे आतिथ्य के लिये उन्हें हार्दिक धन्यवाद कहा और कुल्लू एयर पोर्ट की ओर चल पड़े . दिल्ली से मैं ग्वालियर और प्रशान्त आदि सब लोग बैंगलुरु के लिये रवाना हुए . 

घर लौटकर फिर वही पीड़ा थी, माँ को खोने की लेकिन उस पीड़ा भरी याद के साथ स्मृतियों में , चिन्तन में आकाश की ओर तने देवदार के शानदार वृक्षों का अनन्त वैभव , बर्फ के शॉल ओढ़े ऊँचे शिखर ,मण्डी से मनाली तक प्रतिपल साथ चलती कलकल निनादिनी चंचल व्यास नदी का अपार सौन्दर्य , पहाड़ों के चकित कर देने वाले घुमावदार रास्ते ,सेव अखरोट के बगीचे ,रात में पहाडों पर जुगनू की तरह टिमटिमाते चार-छह घरों वाले गाँव....और बहुत कुछ था जो अँधेरी रात में चन्द्रमा की तरह चमक जाता था जो अँधेरे को पूरी तरह दूर तो नही करता पर उसे बहुत हल्का कर देता है . इतना कि हम खुद को देख सकें ,पहचान सकें. 

खूबसूरत यादें हमारी बहुमूल्य पूँजी होतीं हैं, अँधेरे में मिले उजाले जैसी यकीनन...

बुधवार, 17 अप्रैल 2019

हिमाचल में सात दिन भाग --5 बर्फ में आग

बर्फ में आग 
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कटराई में होम स्टे 
आज की सुबह बहुत ही खूबसूरत और ताजगी भरी थी . ताजगी नींद अच्छी तरह से पूरी होने की तो थी ही, साथ में वहाँ का वातावरण भी बड़ा मोहक था .हल्की सुहानी सर्दी ,चारों ओर सेव, आलूबुखारा , नाशपाती और आडू के पेड़ ,उनमें कलरव करते पक्षी , लॉन में जगह जगह लाल, सफेद और गुलाबी गुलाबों लदी झाड़ियाँ , दूब का कोमल कालीन और निरभ्र आकाश प्रकृति की शुचिता व सौन्दर्य का जैसे उत्सव मना रहे थे  .
टहनियों में आलूबुखारे ,सेव और नाशपाती अभी शैशवावस्था में थे .हवा जैसे उन्हें झूला झुला रही थी .

"सर यह वह समय है जब फूल झर चुके हैं और फल बहुत छोटे हैं . एक माह पहले सभी पेड़ फूलों से लदे हुए थे .वह देखने लायक होता है . अगर आप अगस्त सितम्बर में आते तो डालियाँ सेव नाशपाती आलूबुखारे के फलों से लदी देखना भी एक अनोखा अनुभव है .अगली बार आए तब ऐसा ही कोई समय चुनें ."—बहुत शिष्ट और विनम्र गृहस्वामी ने बड़ी आत्मीयता से बताया . मै सोच रही थी कि अब भी अनुभव क्या कम प्यारा है ! 

प्रशान्त वैसे तो स्वभाव से ही बच्चों जैसा सादा सरल है पर ऐसे समय उसका उत्साह छलका जाता है .उसे सुबह किसी का बिस्तर में रहना बिल्कुल नापसन्द है उसपर सुबह इतनी सुहानी हो ,उसने सबको  जगाया . सुलक्षणा एक तो थकी हुई थी फिर हमेशा ड्यूटी की भाग-दौड़ और तनाव से मिले दुर्लभ अवकाश में वह मीठी नींद के आनन्द को खोना नही चाहती थी इसलिये वह मुझे ही बाहर खींच ले गया और सेव के कुंजों में दूर तक टहलता रहा .उधर टहनियों के झुरमुट से किरणें झाँकने लगीं और इधर प्रांगण में ही नाशपाती के पेड़ के नीचे , दूब के फर्श पर एक पेड़ के तने पर बड़ी कलात्मकता से बनाई टेबल पर हमारे लिये चाय बिस्किट तैयार थे . यह सब देख मैं अभिभूत थी .सचमुच धन का ऐसा व्यय मुझे अपव्यय नहीं लगता है .
आलू के पराँठे, दही ,अचार ,पापड़ ,पपीता आदि का स्वादिष्ट नाश्ता लेकर हम लोग निकल पड़े . आज हमें हम्फ्टा वैली और सोलांग घाटी जाना था .
हम्प्टा वैली ---
यों तो हम्प्टा हिमाचल के श्रेष्ठ ट्रेक्किंग स्थलों में से एक है लेकिन हम सबका आकर्षण था बर्फ तक पहुँचना . उसे छूना ,फिसलना .रोहतांग तक जाने का लेह मार्ग किसी कारण से बन्द था इसलिये हम्प्टा जाना ही तय हुआ .यह हमारी सबसे रोमांचक , कुछ कठिन लेकिन लुभावनी यात्रा थी .
गाड़ी ने हमें यहाँ छोड़ा
हम्प्टा वैली लगभग 4200-300 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है . वहाँ जाने के लिये अलग जूते व ट्रैक सूट लेना होता है .अलग गाड़ी ड्राइवर भी जिसकी व्यवस्था शायद स्थानीय प्रशासन की ओर से होती है या फिर निजी सेवा द्वारा . हमने अपने नाप और पसन्द के जूते व ट्रैक सूट लिये . और चल पड़े .हमारा ड्राइवर ट्रैवलर के साथ नीचे ही रुक गया .मुझे इतना तो नही मालूम कि हमें कितनी ऊँचाई तक ले जाकर गाड़ी ने छोड़ा लेकिन वह शायद कोई चेकपोस्ट थी जहाँ से ट्रैक शुरु होता है .वहाँ हमने ट्रैक सूट व जूते पहने . एक छड़ी भी मिली सहारे के लिये . कार्तिक की माँ और पिताजी वहीं रुक गए .
शुरु में तो चलने में बड़ा उत्साह रहा .पर जल्दी समझ आगया कि बात उतनी आसान नही है .ऊँचाई पर जाना सचमुच आसान नही होता चाहे ऊँचाई भौगोलिक हो या ऐतिहासिक .सैद्धान्तिक हो या व्यावहारिक . उस पर पहुँचना और फिर वहाँ टिके रहना तो और भी कठिन है . रास्ता कहीं सँकरा  और पथरीला था और कहीं जगह जगह रिसते पानी के कारण फिसलन भरा .भी था . पाँव मन मन भारी हो रहे थे लेकिन लक्ष्य के प्रति मोह रास्ते की परवाह कहाँ करता है . बर्फ तक पहुँचना हमारा लक्ष्य था इसलिये पैरों की न मानकर हम मन के साथ थे .दूर तक चढ़ने के बाद एक चमकती सफेद पट्टी सी दिखी . प्रशान्त व कार्तिक ने एक साथ  उत्ल्लातेजित होकर कहा -- वो देखो बर्फ .     
मेरा मन बुझ सा गया . इस जरा से टुकड़े के लिये हम इतनी दूर कठिनाई को नजरअन्दाज करके साँस रोके चले आए ! कल्पना में तो बर्फ का लम्बा-चौड़ा मैदान था . 
"वहाँ पहुँचकर तो देखिये आंटी जी !" कार्तिक मुस्कराया .मैंने दो-चार गहरी साँसें लेकर खुद को आराम दिया .वैसे भी वही ठहरकर रह जाने का तो सवाल ही नही था . सोच लिया कि वहाँ पहुँचना ही है तो बस पाँव चल पड़े . हमारे और बर्फ के बीच एक लम्बा हरा भरा  सपाट अन्तराल था . बीच बीच में बर्फीले पानी के छोटी छोटी नालियाँ बह रही थीं . बाजू में खड़ी चट्टानों वाला शिखर शीश ताने अटल खड़ा था ,नीचे .बर्फीले पानी की शुभ्र निर्मल धारा कलकल कुलकुल करती बह रही थी .उत्साह भरने के लिये काफी था. अन्ततः हम बर्फ तक पहुँच गए थे .वहाँ बर्फ सचमुच ही एक सँकरी पट्टी में थी विस्तार काफी ऊँचाई पर था पर लोग उतनी ही छोटी हिमपट्टिका पर मुग्ध थे . बर्फ के लिये हमेशा से ही कैसा आकर्षण था . ओले बरसते तब यह जानते हुए भी कि ओले फसल को तबाह कर देते हैं , हम लोग उन सफेद कंचों को हथेली में रख कितने पुलकित होते थे .    
बर्फ में बैठना फिसलना सचमुच एक अनौखा ही अनुभव था .यह जीरो पॉइंट (सिक्किम वहाँ ठण्ड बर्दाश्त से ऊपर थी ) से अलग, भला सा उत्साहजनक अनुभव . धूप और ठिठुरन का अनूठा मेल . वहीं बर्फ के बगल में ही आग जलाकर गरम गरम मैगी खिलाने वाली दो चार उद्यमी महिलाएं भी अपना साज-सामान लिये बैठी थीं और मैगी खाने का आग्रह कर रही थीं . हैरानी की बात यह कि ये नीचे से पैदल ही ,सिर पर सामान लादे चढ़कर यहाँ तक आतीं हैं .कहीं कहीं जीवन कितना कठिन होता है . 
बर्फ में आग 
इनसे मैगी जरूर लेना चाहिये –हमने सोचा . ऊँची सर्द जगहों पर गरम गरम मैगी की प्लेट किसी नियामत से कम नही लगती .मुझे लगा ये महिलाएं जीविका से कहीं बहुत ज्यादा पर्यटकों की सेवा कर रही है .जीविका कितनी कमा पातीं होंगी .स्वच्छता के प्रति जागरूकता ऐसी कि जूठी प्लेटों व चाय के कपों के लिये अलग कट्टा रखतीं हैं . और खुद ही उठा ले जातीं हैं . मैं नत होगई उनकी जीवटता देखकर . हमने लगभग एक घंटा वहाँ बिताया .सभी लोग बर्फ पर खूब फिसलते खेलते रहे . 
लौटना अपेक्षाकृत आसान रहा . मन न जाने कैसी कृतज्ञता और आनन्द से भरा हुआ था----
हिमालय तुम सचमुच महान हो .सजग प्रहरी .अनेक जीवनदायिनी नदियों के जनक.. तुम्हें धरती का ताज यों ही नही कहा जाता .
 शाम को खूबसूरत सोलांग घाटी गए जहाँ रोहतांग के लिये सुरंग का काम चल रहा था . वहाँ सबने रोप वे का आनन्द लिया . रात को देर तक मन आँखें हम्प्टा वैली की सैर करतीं रहीं .    

सोमवार, 15 अप्रैल 2019

हिमाचल में सात दिन भाग 4 व्यास और विपाशा


भाग--3 से आगे व्यास और विपाशा
19 अप्रैल 2016

बीर गाँव में सूर्योदय 
भागसूनाग में छोटी छोटी दुकानों के हमें आकर्षित किया . वहाँ से रंगीन मनकों वाली कुछ खूबसूरत मालाएं और मान्या की पसन्त की चीजें खरीदीं . और आगे चल दिये क्योंकि हमारी मंजिल तो मनाली था जो अभी काफी दूर था . रास्ते में पालमपुर के सौन्दर्य ने हमें बरबस ही कुछ देर रोक लिया . यह काँगड़ा घाटी का बहुत खूबसूरत शहर है . सुदूर हरी भरी हिमाच्छादित श्रृंखलाएँ ,कल कल निनादिनी सलिला , चाय के बागान ,बेशुमार गुलाब के फूल, बौद्धमठ ...सब कुछ तो है वहाँ . चिड़ियाघर ने अवश्य निराश किया .
पालमपुर
पालमपुर से 16 कि.मी. दूर बैजनाथ धाम है . कहा जाता है कि पाण्डवों ने अज्ञातवास के दौरान इस मन्दिर का निर्माण करवाया था .बाद में सन् 1214 में दो स्थानीय आहुक व मनुक नाम के व्यापारियों ने इसका पुनर्निर्माण कराया .यहाँ परिसर में नन्दी की प्रतिमा है . कहा जाता है कि नन्दी के कान में अपनी कोई अभिलाषा कहने पर वह पूरी होती है . लोग ऐसा कर भी रहे थे .मैंने कौतूहलवश एक छोटी सी बात नन्दी के कानों में कही . मजे की बात यह कि वह पूरी हुई . जरूरी नही कि सदा ऐसा हो ही पर मान लेने में भी क्या हर्ज है .
उस रात हम लोग बीर नामक गाँव के सागरमाथा होटल में ठहरे .सागरमाथा नाम बड़ा अच्छा लगा जो कि हिमालय पर्वत का ही एक नाम है . चारों ओर हरियाली से समृद्ध यह स्थान पैराग्लाइडिंग के लिये जाना जात है .यहाँ अनेक सुन्दर बौद्धमठ भी हैं .


मान्या और अश्विका
कल कल निनादिनी व्यास
व्यास  यहाँ गंभीर है . 

20 अप्रैल को सुबह आठ बजे हम लोग मनाली की ओर निकल पड़े जो हमारा गन्तव्य था .यह एक बहुत ही मनोहर और सुहाना सफर था .मण्डी से मनाली तक पूरे रास्ते सड़क के समान्तर (लेकिन विपरीत दिशा में) बहती व्यास नदी की निर्मल चंचल धारा रोम रोम में स्फूर्ति भरती रही .व्यास का सौन्दर्य हिमाचल के प्राकृतिक वैभव को चार चाँद लगाता है . यह पथरीली और चट्टानी राह में बहने वाली प्रखर वेग वाली नदी है पर कहीं कहीं मन्थर गति में काफी गहरी भी है . पीरपंजाल पर्वत श्रृंखला में रोहतांग दर्रा व्यास का उद्गम-स्थल है . ,जहाँ महर्षि वेदव्यास का मन्दिर है . 470 कि.मी. का सुहावना सफर पूरा करके सतलुज से मिल जाती है . 
नदियाँ जीवन रेखा होतीं हैं पर अपनी अवमानना भी इन्हें बर्दाश्त नहीं . ड्राइवर ने हमें वह स्थान भी दिखाया जहाँ खेल खेल में 24 छात्र व्यास की धारा में समा गए थे .उसे याद कर ह़दय एक बार फिर दहल गया . तब इसका विपाशा ( बन्धन-मुक्त ) नाम सार्थक लगा और गुप्त जी की प्रकृति विषयक वह पंक्ति याद आई –अनजानी भूलों पर भी वह अदय दण्ड तो देती है ..फिर यह तो उनकी जानी मानी लापरवाही थी .खैर हमें आगे बढ़ना था .
आगे भुन्तर नामक स्थान पर व्यास और पार्वती नदी का संगम है .वह दृश्य बहुत ही लुभावना है . हम लोग वहाँ कुछ देर ठहरे . संगम के सौन्दर्य को आँखों में भरा , कैमरे में भी .प्रशान्त को फोटो लेना ज्यादा पसन्द नहीं . कहता है कि फोटो लेने के चक्कर में हम दृश्यों का पूरा आनन्द नही ले पाते .ठीक है लेकिन यह भी सही है कि फोटो खूबसूरत और जीवन्त यादें होते हैं , घर बैठे उन जगहों का बार बार भ्रमण कराते हैं .
पार्वती और व्यास का मिलन 
नग्गर आर्ट गैलरी –
कुल्लू घाटी में 1800 की ऊँचाई पर नग्गर शहर भी एक ऐतिहासिक पर्यटन-स्थल है . यहाँ हमने निकोलाई रोरिक की आर्ट गैलरी देखी . ये महान रूसी चित्रकार थे . अपने जीवनकाल में लगभग 7000 पेन्टिंस बनाईं .जो विश्व की प्रत्येक वीथिका में ससम्मान स्थापित हैं . इनमें से अनेक सुन्दर दुर्लभ चित्र इस म्यूजियम में हैं . हिमालय से उन्हें इतना लगाव था कि एक लम्बा समय उन्होंने हिमाचल में बिताया . उनकी सुन्दरतम कृतियों में हिमालय ही है .हम उनकी पेन्टिंग्स के फोटो नही ले पाए लेकिन गूगल पर उनकी बहुत सारी सुन्दर पेंन्टिंग्स हैं . देखी जा सकतीं हैं . आपने देखी भी होंगी .
शाम को मनाली का मुख्य बाजार देखा .
कुल्लू घाटी के उत्तरी छोर पर व्यास नदी की घाटी में 1950 मीटर ऊँचाई पर स्थित मनाली एकदम शान्त .वाहनों के शोर से मुक्त हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा छोटा सा सुन्दर शहर है .आज सभी काफी थके हुए थे . विश्राम के लिये कुल्लू मनाली के बीच कटराई नामक गाँव के एक खूबसूरत होम-स्टे बुक किया हुआ था . चार पाँच दिन के सफर में पहली बार इतना स्वादिष्ट खाना और आरामदायक शयन कटराई में मिला .सुबह चिड़ियों के कलरव ने जगाया तब रोम रोम स्फूर्ति से भरा था . 

जारी ....... 

रविवार, 14 अप्रैल 2019

हिमाचल में सात दिन भाग --3 धर्मशाला की ओर

भाग--2 से आगे -----
धर्मशाला की ओर
18 अप्रैल  
जिस समय डलहौजी से नीचे उतर रहे थे हमारे साथ सुनहरी रेशमी किरणें भी चीड़ व देवदार की फुनगियों से नीचे उतर रही थीं . उसके बाद हमारे सामने सड़क थी और आजू-बाजू रह रहकर अचानक से गुजर रहे पीले-सफेद फूलों वाले अनाम अजनबी पेड़ थे . धूप का मिज़ाज भी क्रमशः तेज हो रहा था . दोपहर होते होते हम धर्मशाला पहुँच गए .
पढ़ा था कि धर्मशाला हिमाचल प्रदेश की शीतकालीन राजधानी है . यह काँगड़ा जिले का मुख्यालय है. हमारा विश्राम-स्थल मैकलॉडगंज में था . यह काँगड़ा जिले में धर्मशाला का सुन्दर उपनगर है ,जो धौलाधार पहाड़ियों के बीच 2082 मी. ऊँचाई पर स्थित है इसलिये जहाँ धर्मशाला से गुजरते हुए धूप और गर्मी से सामना हुआ ,वहीँ मैकल़ॉडगंज में ठंडक ने हमारा स्वागत किया . वहाँ एक तिब्बती होटल नोरबू-हाउस में हमारा रात्रि विश्राम था .शाम को विशाल बौद्ध-विहार गए वहाँ भगवान बुद्ध की अत्यन्त दर्शनीय विशाल भव्य प्रतिमा है .मठ गजब की शान्ति थी .जगह जगह आध्यात्म-चिन्तन में लीन हर उम्र के सन्यासी दिखाई देते थे .वहाँ जो कुछ लिखा था या चल रहा था मैं समझ नहीं सकी पर जिज्ञासा थी कि पूरे प्रांगण में जिन गोल आकृतियों (प्रेयर-व्हील्स यह नाम मेरी एक मित्र ने बताया) को हम भी, घुमाते हुए चल रहे थे वह क्या है ,उसका क्या महत्त्व है .शायद वह माला फेरने जैसा कुछ हो . जो भी हो धार्मिक अनुशासन हमें इनसे सीखना चाहिये . किसी ने कहा था कि आस्था विश्वास पर टिकी होती है उसमें तर्क व सन्देह का कोई स्थान नहीं होता . वास्तव में यही सच है .सच्ची आस्था ही पत्थर को भगवान बनाती है ,पूजा भजन का आडम्बर नही . आस्था और विश्वास का मार्ग न केवल हमें ईश्वर की ओर उन्मुख करता है , बल्कि हमारे जीवन को भी स्थिर व्यवस्थित व सार्थक बनाता है .
बौद्धमठ में प्रेयर-व्हील्स
नोरबू-हाउस का खाना मेरे गले से नहीं उतरा . न कोई मसाला न स्वाद .पानी में उबली कुछ अनचीन्ही सब्जियाँ ,साथ में कच्चे आटे के गोले जैसा कुछ .कोई सॉस भी था . मोमोज मुझे पसन्द नहीं . मजे की बात यह कि अण्डा वहाँ शाकाहारी भोजन के साथ था .प्रशान्त ने कहा --"मम्मी यह सेहत के लिये निरापद है ." वह ठीक है पर थोड़ा स्वाद तो आना चाहिये न .सो मैंने दूध कॉफी से काम चलाया .पर यह मेरे लिये अच्छा ही रहा . कम खाकर मैं ज्यादा सक्रिय रह सकती हूँ .
अगली सुबह यानी 19 अप्रैल को हमारी गाड़ी पहाड़ की ऊँची गोलाइयों पर घूमती–चढ़ती नड्डी गाँव पहुँची . यहाँ से लगभग पाँच किलोमीटर की ट्रैकिंग भी हमारी यात्रा में शामिल थी .कहते हैं यहाँ सन-पॉइन्ट भी काफी खूबसूरत जगह है लेकिन इतना समय नहीं था हमारे पास .वास्तव में ऐसी हर जगह के लिये अलग समय होना चाहिये .
भाग सू नाग मन्दिर  का अमृतकुण्ड
ट्रैकिंग का अनुभव बड़ा खूबसूरत , रोचक और अविस्मरणीय रहा .हरे भरे ऊँचे वृक्षों वाले सघन वन के बीच चलते बुराँश और दूसरे तरह के सुन्दर फूलों पर मुग्ध होते , जाने अनजाने पेड़-पौधों और पक्षियों को देखते बिना थके ऊबे पहले चढ़ते और फिर काफी नीचे नीचे उतरते हुए हम लोग कब जंगल को पार कर आए बहुत पता नहीं चला . बीच बीड में किसी जानवर से सामना होने की आशंका ने कुछ डराया भी लेकिन साथ में अनुभवी गाइड था इसलिये आशंका ही रही भय तक बात नही पहुँच सकी .कुछ देर बाद हम भागसूनाग मन्दिर पहुँच गए . चारु के माता--पिता ट्रैकिंग नही कर सकते थे इसलिये वे मैकलॉडगंज से सीधे ही वहाँ पहुँच गए .सच कहूँ तो इतना चलने के बाद मिला यह स्थान मुझे केवल धार्मिक दृष्टि से ही महत्त्वपूर्ण लगा . हिमाचल में जहाँ पग पग पर सृष्टि-सौन्दर्य बिखरा पड़ा है उस दृष्टि से यहाँ जाकर कुछ निराश हुआ जा सकता है .
समुद्रतल से1765 मीटर की ऊँचाई पर स्थित यह मन्दिर मुख्य रूप से नागदेवता का है .साथ ही शिव हनुमान गणेश व दुर्गा जी की भी प्रतिमाएं हैं . यहाँ सुन्दर जलाशय और उससे पाँच धाराओं में बहते झरने हैं . इस मन्दिर का निर्माण द्वापर काल में हुआ बताते हैं . इसके निर्माण की वहाँ कथा भी लिखी है जिसके अनुसार भागसू नामक राजा अपनी प्रजा को प्यास और अकाल से बचाने नागों की झील का सारा पानी एक कमण्डल में भर लाया . इससे नाग नाराज होगये . उन्होंने राजा पर हमला कर दिया और परास्त कर दिया . युद्ध के दौरान जल भरा कमण्डल लुढ़क गया उसी जल से यह जलाशय बना जिसे अमृतकुण्ड कहा जाता है .  

जारी......... 

शनिवार, 6 अप्रैल 2019

हिमाचल में सात दिन भाग --2 हिमालय का श्रंगार-देवदार

भाग--1 से आगे) हिमालय का श्रंगार---देवदार
17 अप्रैल

सुबह नींद खुली तो देखा प्रशान्त व सुलक्षणा बाहर घूमकर आ रहे हैं .
"मम्मी! बाहर देखो कितना खूबसूरत नजारा है !"--प्रशान्त चहकते हुए बोला .
दोनों बहुत खुश थे . उनकी खुशी देख मुझे अपना दुख में डूबे रहना उचित नहीं लगा .उठी तैयार हुई .
पर्वत की छाती पर परिश्र्म के शिलालेख 
बाहर निकल कर देखा तो आँखें पलक झपकना भूल गईं . एक तरफ चीड़ देवदार के सघन वृक्षों से ढँके उच्च श्रृंग और दूसरी ओर हरी भरी घाटी . सुदूर तक फैले सीढियों वाले खेत मानव की कहीं भी अपनी राह बना लेने की उद्यमी प्रवृत्ति की पुष्टि करते हैं तो 'सारा पहाड़ हमारा' के भाव से जहाँ तहाँ कहीं भी बने सुन्दर मकान प्रकृति की गोद में निर्भय सोये शिशु जैसे लगते हैं .  सामने पीरपंजाल की हिमाच्छादित चोटी ,जिस पर सुबह सुबह सोना बिखर गया लगता था..आसपास खड़े चीड़ के पेड़ों में गहरे हरे पत्तों के बीच तोतिया रंग की कोंपलें अनूठा रंग संयोजन प्रस्तुत कर रही थीं .घन ऊँचे वृक्षों के बीच सर्पाकार लहराती हुई सी सड़क जो आगे जंगल में गुम हुई लग रही थी ... सब कुछ अद्भुत .... 
खजियार 
नाश्ता करके हम लोग खजियार के लिये निकले .खजियार झील और घास के मैदान के लिये खास तौरपर जाना जाता है . इसे भारत का मिनी स्विटजरलैंड माना जाता है . डलहौजी से खजियार तक का रास्ता जितना मनमोहक है उतना ही खूबसूरत है खजियार का हरा भरा मैदान . आसमान से बातें करते देवदार के शानदार पेड़ मैदान के चारों ओर प्रहरी की तरह खड़े हैं .कौतूहल और रोमांच से भर देने वाला देवदार का मनोहर विशाल वृक्ष यहाँ की सबसे बड़ी सम्पदा है .ऊँचाई को अपना लक्ष्य बनाए हुए ही मानो यह शाखाओं को पीछे छोड़ आगे ऊँचा निकल जाता है कि शाखाओ ,टहनियो ,तुम आती रहना ,मुझे जरा जल्दी है .शाखाएं मानो उतनी ऊँचाई तक पहुँचने में असमर्थ नीचे ही अपना आरामगाह बना लेतीं हैं .
मैदान में नकली फूलों के साथ टोकरी में असली खरगोश लिये महिलाओं व बच्चों को फोटो खिंचवाने का आग्रह करते बहुतायत से देखा जा सकता है . यही उनकी जीविका है .

खजियार झील ने अवश्य निराश किया . झील के नाम पर अभी बस पोखर लग रही थी . लम्बी बेतरतीब सी घास ने इसे और अपरूप बना दिया है .सफाई भी नहीं की गई थी.रैपर पॉलीथिन आदि चीजें पर्यटकों की लापरवाही दिखा रही थीं .
शायद वर्षा के बाद यह खजियार झील अपने नाम को सार्थक करती हो .फिर भी डलहौजी आकर खजियार नहीं देखा तो भ्रमण अधूरा ही माना जाएगा . यहाँ घुड़सवारी का बढ़िया आनन्द लिया जा सकता है . प्रशान्त आदि सभी हॉर्स-राइडिंग के लिये गए . चारु की सासु माँ साड़ी पहने थीं ,इस कारण नहीं गईं .कुछ उनका साथ देने और कुछ डर के कारण मैं भी नहीं गई .बच्चों के लिये यहाँ बहुत से आकर्षण हैं .पैराग्लाइडिंग , गुब्बारा ,उछलने-कूदने वाले घर ..मान्या और अश्विका (चारु की बेटी) ने कुछ भी नहीं छोड़ा .
खजियार (खज्जर)का नाम खजीनाग के नाम पर पड़ा है . कहा जाता  कि एक बार शिव-पार्वती यहाँ आए . जब वे जाने लगे तो उनके खजी नाम के एक नाग ने वही रुक जाने की इच्छा जताई तो शिवजी ने खजी नाग को वहीं छोड़ दिया वहीं छोड़ दिया .और इस तरह इस जगह का नाम खजियार या खज्जर पड़ा .
यहाँ एक सुन्दर मन्दिर भी है . उस दिन वहाँ किसी बच्चे के विवाह की पूजा करने लोग बैंड बाजे के साथ आए . पूजा के बाद मन्दिर के बाहर वे लोग लगभग आधा घंटा नाचे . पहाड़ी नाच को देखना सचमुच एक अनौखा अनुभव था . शान्त-सलिला नदी के मन्थर प्रवाह सा वह नृत्य इतना नयनाभिराम था कि मुझे हमारे यहाँ डीजे के शोर पर नृत्य के नाम पर की जातीं कलाबाजियाँ घटिया लगने लगी .आनन्द में झूमना यही है . मोर की तरह तल्लीन होकर झूमते हुए .सुलक्षणा तो इतनी उत्साहित हुई कि उनके साथ जा मिली .इससे वे महिलाएं भी बड़ी प्रसन्न हुईं .

खजियार से लौटते हुए पंजपुला गए पर वहाँ झरने के नाम पर पतली सी धारा चल रही थी . गलती हमारी थीं कि जो उस मौसम में झरने के बड़े व तेज प्रवाह की कल्पना की .मेरा विचार है कि अगर झील झरनों का पूरा सौन्दर्य देखना हो तो वहाँ सितम्बर अक्तूबर के समय जाना चाहिये . 

जारी......

गुरुवार, 4 अप्रैल 2019

हिमाचल में सात दिन भाग --1 एक सर्द धुँधली शाम, दर्द के नाम



आज जिया को गए तीन साल पूरे होगए . उसी समय का आधा अधूरा पड़ा यह वृत्तान्त अब दे पा रही हूँ  
(1)
एक सर्द धुँधली शाम, दर्द के नाम
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 तुम्हारे बिना सब कुछ कितना सूना है . 
15 अप्रैल 2016 की रात के बारह बजे जब मैं प्रशान्त के साथ दिल्ली जाने की तैयारी कर रही थी , लोगों का आना जारी था .माँ का त्रयोदशा था और रसोई की सारी व्यवस्था हमारे आँगन में ही थी क्योंकि अन्यत्र व्यवस्था नहीं हो पाई थी , आंगन सब कुछ फैला हुआ था ,ऐसे में प्रशान्त के साथ चलने के प्रस्ताव पर मन में असमंजस होना स्वाभाविक था .दिन के दिन जाना भला कैसे संभव होगा ? चार माह तक तो माँ की पीड़ा उपचार और तमाम तनाव और उलझनों के चलते हम भाई बहिन फुरसत में मिल-बैठकर कोई बात भी नहीं कर पाए हैं दस बारह दिन से आने-जाने वालों के साथ व्यस्तता रही . अब इतनी जल्दी निकल जाना क्या उचित होगा ? क्या परिजनों को अजीब नही लगेगा ? और क्या इसके लिये मैं सहर्ष तैयार हो पा रही हूँ ? अपनी माँ को खोने के बाद क्या इतनी जल्दी सहज हुआ जा सकता है ? .....
काँगड़ा की ओर 
"सहज तो होना पड़ता है मम्मी और होना भी चाहिये." –प्रशान्त ने समझाया . आपने जिया के साथ जो वक्त बिताया वही उनका था वही आपका है .अब आप रोएं हँसें..दुख और उदासी में डूबे रहें या सहज होने के लिये कुछ बदलाव लाएं जिया के लिये अब कोई अर्थ नही रहा . रहा लोगों की दृष्टि की बात तो महत्त्वपूर्ण यह है कि आप क्या सोच रही हैं ?. क्या लोग आपको समझते हैं ?...जिया का पूरा जीवन देखें तो क्या लोगों ने उन्हें समझा ?...जो आपकी संवेदना और भावनाओं को नही समझते उनकी परवाह आपको नही करनी चाहिये ... फिर मम्मी ऐसे कार्यक्रम आसानी से नही बन पाते . एक बार सोचकर देखिये कि हम लोग सिक्किम गए थे तब कैसा लगा था आपको.. उन अनुभवों को याद करो मम्मी . आपको हिमालय में पहुँचकर अच्छा लगेगा. यहाँ रहोगी तो गुजरे समय को याद करोगी .दुख बढ़ेगा ही और तमाम शिकायतें भी .वह मैं नही चाहता . कुछ नहीं आप हमारे साथ चल रही है...."
छोटी बहिन और भाइयों ने भी कहा कि "चली जाओ जीजी ! यहाँ की चिन्ता मत करो . हम सब समेट-सम्हाल लेंगे ." हम चारों भाई—बहिनों के बीच औपचारिकता जैसा कुछ नही . सभी सुलझे विचारों के हैं . परस्पर प्रेम का विश्वास है .
हालाँकि इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मैं अपनी राय को प्रायः सुनिश्चित व अडिग नहीं रख पाती . किसी परिजन-प्रियजन की राय ,विचार और आग्रह को दृढ़ता के साथ नकार भी नहीं पाती . उस समय माँ के जाने की पीड़ा तो थी पर बहू--बेटे का आग्रह... हिमालय-दर्शन की लालसा भी थी . सिक्किम के सौन्दर्य का रेशमी कुहुक-जाल अभी आँखों से उतरा नहीं था .मन एक बार फिर महान हिमालय की सौन्दर्य व वात्सल्यमयी गोद में लेट जाने को लालायित था .फिर बहुत दिनों बाद मान्या व सुलक्षणा से मिलने , उनके साथ कुछ समय बिताने जैसे कुछ प्रलोभन तो थे ही .
मैंने भी खुद को समझा लिया .देखा जाए तो जन्म से लेकर लगभग बारह-तेरह सालों को छोड़कर सन् 1973(नौवीं कक्षा) से मैं माँ के पास ही तो रही थी .विवाह के बाद भी बुनियादी प्रशिक्षण का एक वर्ष पूरा कर जब जुलाई 1977 में जब द्वितीय वर्ष के लिये स्कूल में पोस्टिंग हुई तो सुयोग से अपने ही गाँव में हुई . वहाँ लगभग सोलह वर्ष (1993 में ग्वालियर आ गई ) हम एक दूसरे का सम्बल बनी रहीं .फिर जब भाई ने ग्वालियर में हमारे बाजू में ही मकान ले लिया तो जिया का आना जाना लगा ही रहा था . अब लगभग चार-पाँच माह तो माँ के बिस्तर के पास ही समय गुजरा था . उनकी शारीरिक और मानसिक पीड़ा को उनके साथ ही भोगा भी . आज उनके सारे कार्यक्रम भी सम्पन्न हो चुके हैं . वे चली गईं . अब किसके लिये रुकना . सात-आठ माह बाद मिले बेटे को निराश करना भी ठीक नहीं .शायद वह भी इसीलिये लेजाने पर जोर दे रहा है कि मैं दुख में डूबी न रहूँ ..ठीक ही कहा गया है कि जो सामने है उसकी चिन्ता करो . फिर पता नहीं इस तरह जाने का मौका कभी मिले न मिले . प्रशान्त और मैं रात को ही दिल्ली निकल गए .
सुलक्षणा और मान्या बैंगलोर से दिल्ली एक दिन पहले ही पहुँच चुकी थीं . सुलक्षणा के साथ सी-डॉट की ही चारुलता भी सपरिवार आई थी जिसमें चारु के पति कार्तिक उनके माता पिता और बेटी अश्विका थी . चारु बहुत व्यवहारकुशल विनम्र और सलौनी युवती है और सुलक्षणा की अच्छी मित्र . मैं और प्रशान्त पहले गुड़गाँव स्थित सी-डॉट के गेस्ट-हाउस पहुँचे जहाँ वे सब रुके थे . 16 अप्रैल का वह दिन काफी गरम था आठ बजे ही धूप काफी तेज और चुभने वाली थी लेकिन पर मन शान्त था .यह मान्या से मिलने का प्रभाव था . सोचा मैंने ठीक किया जो प्रशान्त के साथ चली आई .
नहा-धोकर नाश्ता लेकर आठ बजे एयरपोर्ट की ओर रवाना हुए .साढ़े दस बजे बोर्डिंग थी .जिस समय हवाईजहाज ने उत्तर की ओर उड़ान भरी तो मन अनायास ही दक्षिण की ओर उड़ने लगा . मैं उसे पूरी ऊर्जा लगाकर अपने आसपास .बाहर तैरते बादलों ,नीचे घाटियों-पहाड़ों में लगाती रही पर वह बार बार फिसल कर घर की ओर दौड़ रहा था . अब सब लोग सफाई में लगे होंगे . आने वाले सब जा चुके होंगे . भाई भाभी अब विश्राम की दशा में होंगे . गुड्डी अकेली सुबक रही होगी . वह हममें सबसे छोटी है . पर अब उसे सम्हलना चाहिये . रोने से जिया वापस तो नहीं न आएंगी ..... मैं खुद को समझा रही थी पर जाने क्यों खुद को अनचाहे ही धकेली गई दशा में महसूस कर रही थी . ऐसा अक्सर होता है मेरे साथ कि मैं जाना नही चाहती पर जा रही हूँ .करना नही चाहती पर कर रही हूँ . जैसे वह मैं नही कोई और हो .
लगभग बारह बजे हम लोग काँगड़ा एयरपोर्ट पर उतरे तब मैंने देखा ,चटकती धूप में वहाँ क्यारियों में नए रोपे गए पौधों की पत्तियाँ मुरझाकर लटक गईँ थीं . नई जमीन को वे अभी स्वीकार नही कर पाए थे .उसमें कुछ समय लगेगा . वैसे अक्सर नई जगह नए रास्तों पर मैं उत्साहित रहती हूँ पर जाने क्यों मुझे अपना मन कुछ कुछ पौधों जैसा प्रतीत हो रहा था . उस समय मेरी मनोदशा उस व्यक्ति की हो रही थी जो किसी प्रियजन के साथ उसकी पसन्द का बेहद उबाऊ धारावाहिक देखने विवश हो . प्रशान्त बीच बीच में मुझे देख आश्वस्त होना चाहता था कि मैं ठीक हूँ . मैं मुस्कराकर उसे आश्वस्त कर रही थी . कई घंटों जाने कितने पहाड़ों को पार कर जब 'डलहौजी' पहुँचे तब तक अँधेरा होचुका था . पहाड़ों में जगह जगह रोशनी के गुच्छे लटके दिखाई देने लगे थे . डलहौजी लगभग दो हजार चालीस फीट की ऊँचाई पर बसा पहाड़ी शहर है . सर्पिलाकार रास्ते पर दौड़ती ट्रैवलर ( गाड़ी) शहर के अन्त में सत्यम् होटल पहुँची .उस समय हल्की सी कँपकँपी वाली सर्दी थी .
मैंने महसूस किया कि मैं किसी ऐसी जगह पर अकेली आ गई हूँ जहाँ सब कुछ अनजाना है लोग भाषा भाव ..सब कुछ . डेढ़-मेढ़े अँधेरे पहाड़ी रास्तों की तरह मेरा मन भी अजीब सी जटिलता ,व वीरान अँधेरे से भर गया है . उजाले के साथ-साथ मेरा उत्साह जाने कहाँ विलीन हो गया .
मैं उस समय देवदार के सघन वृक्षों , ऊँचे शिखर व घाटी के बीच बने सत्यम होटल के बढ़िया कमरे में थी पर जैसे एकदम निष्प्राण . मन यादों के कँटीले तारों से लहूलुहान हुआ ग्वालियर के आँगन में भटक रहा था . दिन भर जिस अनुभूति से मैं नजर बचा रही थी ,वह टूटे बाँध की तरह फूट पड़ी . सारी आँतें जैसे बाहर निकलने को बैचैन थीं . महसूस हुआ कि मैंने जिन्दगी के सबसे बड़े सम्बल को खो दिया है .मैं एकदम बेसहारा हो गई हूँ .  माँ की याद मेरे रोम रोम में बर्फ की नदी बनकर बह रही थी .पीड़ा का सैलाब सा उमड़ पड़ा था .उस सैलाब में फँसी मैं बिल्कुल अकेली थी . मन बोरवेल में फँसे बच्चे जैसी हालत में था .अजीब सी घुटन थी. मेरा मन खूब जोर से हुलक हुलककर रो लेने का हो रहा था . जिया को याद करके चीख चीखकर सारा विषाद बहा देना चाहती थी . मुझे समझ में आया कि दुख के आवेग में खुलकर रोना कितना जरूरी है .जो लोग खुलकर रो लेते हैं उनका दर्द आँसुओं के साथ बह जाता है . मैं खुलकर रोना चाहती थी पर नही रो सकती थी . ऐसा करना बच्चों के सामने कमजोर पड़ना था , जो दुख से उबारने मुझे ले आए थे . ..इसलिये कम्बल में मुँह छुपाए मैं लगभग रातभर रोती रही .पछताती रही और खुद पर तरस खाती रही कि कैसे अक्सर अपनी पीड़ा में हमेशा ही अकेली रही हूँ....काश कोई होता जिसके गले लगकर मैं खूब रो सकती .....
इन्सान के जाने के बाद ही संवेदना के सोते फूट पड़ते हैं ..पहले क्यों नहीं ...
मैं इस समय डलहौजी की खूबसूरत वादियों में खुद को ही कोस रही थी कि यहाँ क्यों चली आई . बेटे को प्यार से मना भी कर सकती थी . कितनी छुद्र व लालची हूँ मैं .काश उड़कर ग्वालियर पहुँच पाती और उस आँगन में बहन-भाइयों के गले लगकर चीख चीखकर मनभर रो लेती . कम्बल के अन्दर रुलाई के कारण हिल रही हूँ मैं . ओ माँ ..मैं खुद को कभी माफ नही कर सकूँगी ...
सत्यम होटल के सामने का दृश्य
"मम्मी सर्दी ज्यादा लग रही है ?" प्रशान्त पूछ रहा था .सुलक्षणा मेरे लिये अच्छी गरम चाय लाने का ऑर्डर दे रही थी पर मुझे उनकी आवाज दूर से आती लग रही थी .वे लोग सोगए पर मुझे नींद नहीं आई .उसी रात वहाँ किसी कॉलेज के लड़के-लड़कियों का कैम्प-फायर था .रात भर पीना-पिलाना और अमर्यादित नाचना-गाना होता रहा . यह सब समाज से फिल्मों में आता है या फिल्मों से समाज ग्रहण करता है, पता नहीं पर आज समाज और रुपहले पर्दें में ज्यादा अन्तर नहीं रह गया .अन्तर सिर्फ इतना है कि असल जिन्दगी में रीटेक नहीं होता . 
बाहर रात भर नाच-गाना होता रहा और मैं कल्पनाओं में डूबी अपने आँगन में बैठी आँसू बहाती जिया को बचपन के दिनों से याद करती रही .  
यह सच है कि दुख में मन को बहलाना खुद को धोखा देना है . दर्द को पूरी तरह जिये बिना दर्द से मुक्ति नहीं मिल सकती . ज़मीन के अन्दर चले गए कीड़े मकोड़ों की तरह दुख कुछ समय भले ही विलुप्त हो जाए पर बरसात होते ही दर्द कुलबुलाने लगता है कीड़े मकोड़ों की तरह .मैं इस सच को तीन साल से महसूस कर रही हूँ . 
 बेदम से एहसास और लफ्ज़ों में लाचारी
ठीक नही होती है अपने ग़म से गद्दारी .

जारी........