खाली
पड़े गमले में
अनायास
ही उग आए थे
घासपूस
जैसे छोटे छोटे पौधे
अनजाने
, अनचाहे .
उखाड़
फेंकना था
हटानी
थी खरपतवार
गेंदा
,डहेलिया जैसे फूलों के लिये..
तैयार
करना था गमला
एक
पौधे के पत्ते लहलहाए ,
“मुझे मत निकालो अभी रहने दो .
जो
बात है , उसे कहने दो .”
मैंने
उसे रहने दिया
मुझे
सुननी थी उसकी बात .
आज आँखें
खिल उठीं
देखकर
कि वह पौधा मुस्करा रहा है
एक सुन्दर
गुलाबी फूल की सूरत में .
जिजीविषा
और आत्मविश्वास से भरपूर
मानो
कह रहा है ,
“मैं खरपतवार नहीं हूँ .
कोई
नहीं होता खरपतवार
नितान्त
निजी है वह विचार
मापदण्ड
हैं उसकी
उपयोगिता
,अनुपयोगिता .
स्थान
,भाव-बोध और सौन्दर्यप्रियता के .
मुझे
देखकर भी तो कोई खुश होसकता है
जैसे
तुम खुश होते , होना चाहते थे
डहेलिया
या गेंदा के फूल देखकर .
“अहा ,मैं तो अब भी खुश ..., बहुत खुश हूँ
तुम्हें
देखकर यकीनन .”
अनायास
ही कह उठा मेरा मन .