रविवार, 23 अगस्त 2020

कितने चौराहे

 

हर सुबह करती हूँ एक प्रण

फेंककर आवरण

आलस्य का

करनी ही है पूरी

आज कोई कहानी

नई या पुरानी ..

या कुछ नहीं तो लिख ही डालूँ

एक सार्थक कविता

कबसे नहीं लिखी गई !

बहुत हुआ भटकाव

यहाँ वहाँ अटकाव

पर सवाल ,

कि पहले करूँ किस विधा का चुनाव ?

कहानी, गीत, संस्मरण ,यात्रा-वृत्तान्त

उपन्यास कोई दुखान्त या सुखान्त

प्लॉट तो पड़े हैं कितने ही

भवन खड़ा करना है .

उसी में जीना मरना है

कितनी कहानियाँ अधूरी हैं

देखना उनको को भी जरूरी है .

लेकिन ,

अभी एक ताजा संस्मरण भी कुलबुला रहा है

मुझे देर से बुला रहा है .

अरे हाँ ,आत्मकथा भी तो

छोड़ रखी है शुरु कर

पर इनके पारावार में उतरकर

संभव नहीं कुछ और भी लिखना

कुछ भी दिखना ..

इससे तो अच्छा है

फिलहाल लिखलूँ एक गीत ,

दिल-दिमाग में उगा है अभी अभी

पर...लिखूँ कैसे !

कितना कुछ तो बिखरा पड़ा है 

मुद्दों का अम्बार अड़ा है रास्ते में 

किसे उठाऊँ किसे छोड़ूँ !

उफ् ....एक बीमारी ही है

जुनून लिखने का

सबके बीच कुछ दिखने का.

अनुभवों को पीसते छानते   

रबर सा तानते 

बीत गया कितना समय !

कहाँ लिख पाई वह ,

जो शेष है अभी तक 

तल में जमे रेत सा 

बारिश का इन्तज़ार करते खेत सा 

कितना थकान भरा होता है 

सूखे बंजर खेत को सोचना

सोचे हुए को लिखना .

लिखकर छपने की चाह

आह या वाह 

अरे छोड़ो अभी सोच--विचार ,कुतर्क,फितूर

आज जरूरी है रहना तनाव से दूर

कल करूँगी पूरी कोई कहानी

मनमानी . 

बीत रही हैं सुबह शाम ,

दिन अनगिन...इसी तरह 

कुछ किये बिन,

सिर्फ सोचते हुए .

शुक्रवार, 7 अगस्त 2020

एक गीत पुरानी डायरी से

 आज ही पढा--अगर किसी पर भरोसा करो तो पूरी तरह , बिना सन्देह के करो ।क्योंकि तब दो में से एक मिलना तो तय है---या तो जिन्दगी का सबक या एक अच्छा साथी ।...बात सही है पर सबक को सहने-स्वीकारने के लिये तैयार होना बडे साहस का काम है । गहन विश्वास व स्नेह का प्रतिफल भी यदि सबक के रूप में सामने आए तो उस वेदना का कोई अन्त नहीं है । पूरी जिन्दगी बिखर जाती है ,आलपिन निकले दस्तावेजों की तरह.....। निराशा भी बडे निराशाजनक तरीके से अभिव्यक्त होती है ,इस गीत की तरह---


बीहडों की कंकरीली राह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?

यह जो सन्ताप है ,
किसका अभिशाप है ।
गीत बन सका न दर्द,
बन गया प्रलाप है ।
सौतेले रिश्तों के डाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?

उम्मीदें काई पर चलतीं ,फिसलतीं हैं ,
जितना समेटूँ ये और भी बिखरतीं हैं ।
मुट्ठी से रेत के प्रवाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?

याद नहीं अपना सा ,
कौन कब हुआ ।
बीच में हमेशा ,
दीवार था धुँआ।
गैरों के घर में पनाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?

आशाएं ठगतीं हैं ।
ठहरी सी लगतीं हैं ।
टूटी हुईं शाखें 
मधुमास तकतीं हैं ।
शाम ढले धूमिल निगाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ? 

बीहडों की कंकरीली राह सी हुई ।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ।