आज ही पढा--अगर किसी पर भरोसा करो तो पूरी तरह , बिना सन्देह के करो ।क्योंकि तब दो में से एक मिलना तो तय है---या तो जिन्दगी का सबक या एक अच्छा साथी ।...बात सही है पर सबक को सहने-स्वीकारने के लिये तैयार होना बडे साहस का काम है । गहन विश्वास व स्नेह का प्रतिफल भी यदि सबक के रूप में सामने आए तो उस वेदना का कोई अन्त नहीं है । पूरी जिन्दगी बिखर जाती है ,आलपिन निकले दस्तावेजों की तरह.....। निराशा भी बडे निराशाजनक तरीके से अभिव्यक्त होती है ,इस गीत की तरह---
बीहडों की कंकरीली राह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?
यह जो सन्ताप है ,
किसका अभिशाप है ।
गीत बन सका न दर्द,
बन गया प्रलाप है ।
सौतेले रिश्तों के डाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?
उम्मीदें काई पर चलतीं ,फिसलतीं हैं ,
जितना समेटूँ ये और भी बिखरतीं हैं ।
मुट्ठी से रेत के प्रवाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?
याद नहीं अपना सा ,
कौन कब हुआ ।
बीच में हमेशा ,
दीवार था धुँआ।
गैरों के घर में पनाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?
आशाएं ठगतीं हैं ।
ठहरी सी लगतीं हैं ।
टूटी हुईं शाखें
मधुमास तकतीं हैं ।
शाम ढले धूमिल निगाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?
बीहडों की कंकरीली राह सी हुई ।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ।
सुन्दर गीत
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (09-08-2020) को "भाँति-भाँति के रंग" (चर्चा अंक-3788) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आभार आदरणीय
हटाएंआभार यशोदा जी
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति.
जवाब देंहटाएंवाह!बेहतरीन !
जवाब देंहटाएंलाजवाब सृजन.
जवाब देंहटाएंठहरी सी लगतीं हैं ।
जवाब देंहटाएंटूटी हुईं शाखें
मधुमास तकतीं हैं ।
शाम ढले धूमिल निगाह सी हुई।
जिन्दगी यूँ किसलिये गुनाह सी हुई ?
बेहतरीन सृजन।
हर व्यक्ति के जीवन में ऐसे अवसाद के पल आते हैं... आपका यह गीत हर पाठक के अंतस की व्यथा को व्यक्त करता है!
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