शनिवार, 27 जून 2020

बचपन के शिलालेख

(सन् 2001 में लिखा गया एक संस्मरण)
समय की लहरों से मानस तट पर लिखे नाम धीरे धीरे मिट ही जाते हैं . फिर मेरा नाम कौनसा कोई संग्रहणीय शिलालेख है . रेत पर लिखे नाम कौन याद रखता है ...
मैं पहले तो यही सोच रही थी जब लगभग पैंतीस साल बाद उस गाँव में पहुँची थी .ऐसा सोचना निराधार नहीं था .कल्पना के विपरीत मैं वहाँ एक अजनबी की तरह लोगों से जानकारी लेने खड़ी थी .
लगभग पैंतीस साल पहले मैं जब शायद छह-सात वर्ष की थी ,वहाँ खुशी से नहीं गई बल्कि पढ़ाई के लिये ले जाई गई थी . काकाजी (पिताजी) वहाँ के स्कूल में दो साल पहले नियुक्त हुए थे . वह ठेठ पथरीला पहाड़ी गाँव था .शुरु में मुझे वहाँ जाना बहुत अखरा था .
पर धीरे धीरे मैंने सब स्वीकार कर लिया था . गाँव में जल्दी ही मेरे बहुत सारे दोस्त भी बन गए . केसन , गन्धू , आसा ,रामरती केसकली ,पुरन्दर , भूरी आदि कुछ नाम अब भी याद हैं .
बचपन के दिन कितने ही मुश्किलों और अभाव भरे हों पर बचपन की यादें हमेशा बड़ी खुशनुमा होतीं हैं उस जगह को हम कभी भूल नहीं पाते जहाँ बचपन बीता हो . उस गाँव में बीते तीन साल मेरे लिये खूबसूरत छोटी सन्दूक जैसे हैं जिसमें कई अनमोल चीजें सहेज रखी हैं . मैं रास्ते भर उन दिनों को याद करती रही कि कैसे हम लोग गोला का मन्दिर’ (रेलवे स्टेशन) से छोटी लाइन में बैठकर रिठौरा उतरते थे फिर बड़बारी के लिये पगडण्डियों पर मैं लगभग दौड़ दौड़कर चलते हुए काकाजी का पीछा किया करती थी क्योंकि उन्हें तेज चलने की आदत थी . .
उस दिन यही सब याद करके बस से उतरते हुए मन उल्लास और पुलक से भरा था . मेरी वर्षों की लालसा पूरी होने जा रही थी . मैं एक बार फिर वह स्कूल देखना चाहती थी जिसका एक छोटा सा कमरा हमारी पूरी दुनिया हुआ करती थी . जहाँ काकाजी ने मेहनत करके सूखी पथरीली जमीन में फूल खिलाए थे . जहाँ सिरस (शिरीष) का एक बड़ा पेड़ था जिसके सुनहरे रेशे वाले फूल पूरी हवा को महक से भर देते थे .पता नहीं कासिम दादा और उनकी वह झोपड़ी अब भी होगी या नहीं जिसमें मैं अक्सर सफेद रेशम से मुलायम रोओं वाले चूजे देखने जाया करती थी . मैं उस तालाब की लहरें गिनना चाहती थी जिसकी ऊँची ऊँची नीली लहरें सुन्दर कम डरावनी अधिक लगतीं थीं . बारिश में जिसकी पार की चिकनी मिट्टी बहुत फिसलन भरी हो जाती थी .काकाजी कहते थे --गीली मिट्टी में पैरों के अँगूँठे गड़ाते हुए चलना चाहिये .ताकि फिसलन से बचा जा सके .
मैं खजूर की झाड़ियों से घिरे उस कुँआ को भी देखना चाहती थी जो गाँव भर के लिये पानी का एकमात्र साधन था और जहाँ से पानी लाना दैनिक कार्यों में सबसे कठिन और शाम के बाद बड़े साहस ...नहीं ,दुस्साहस का काम माना जाता था क्योंकि अँधेरा होते ही वहाँ डाकू आते हैं , ऐसा सब लोग कहते थे . अब डाकू समस्या तो नहीं ही होगी .....आहा, क्या वह नीम का पेड़ भी अभी होगा जिसकी नीची शाखों पर बैठकर हम गा गाकर गिनती पहाड़े और हिन्दी के मायने याद करते थे ? और हाँ वह अलाव भी मेरी स्मृतियों का खूबसूरत हिस्सा है जहाँ शाम को लोगों के बीच बैठकर काकाजी देर रात तक 'नील-सरोवर' और 'रूप-वसन्त' ,राजा हरिश्चन्द्र और सिंहासन बत्तीसी जैसे तमाम किस्से कहानियाँ सुना करते थे . सरपंच काका की बतखों और कमला पति के आतंक को कैसे भूल सकती हूँ .
क्वार-कार्त्तिक में धान के हरेभरे खेतों से उठती खुशबू , बगुलों की पाँतें और उन्ही की रंगत के तलैयों में खिले फगुले ( सफेद कमल) , साफ पानी से लहलहाता तालाब .. टेसू के फूलों से लदा हुआ शनीचरा का जंगल जिससे गुजरते हुए हर शनिवार हम साइकिल से बानमोर के पास उस गाँव आते थे जहाँ माँ की सर्विस थी . यह सब मेरे मानस पटल पर एक खूबसूरत चित्र की तरह अंकित है . डाकुओं के भयावह किस्से उस समय भय और आज मनोरंजक कहानी जैसे लगते हैं . ....खूबसूरत यादें हमारी अनमोल पूँजी होतीं हैं . मैंने वे सहेजकर रखी हैं . उन्हें एक बार फिर ताजी करने जा रही थी .
बस से उतरकर चारों ओर देखा तो लगा कि मैं कहीं गलत जगह पर तो नहीं उतर गई . आस पास कितने खेत हुआ करते थे . यहाँ तो तमाम फैक्टरियाँ बसी हुई थीं . टेसू के हल्के सिन्दूरी फूलों की जगह गुलमोहर ने सुर्ख लाल गुच्छों ने ले ली है . अच्छा यही मालनपुर है . तब छोटा सा गाँव हुआ करता था . मुझे याद है कि बस के लिये हम मालनपुर जाते थे और रेल के लिये रिठौरा . बड़बारी इन दोनों के बीच में है .पर अब दिशाएं ही गड़बड़ लग रही थी . कंकरीली पगडण्डी की जगह पक्की सड़क थी . बड़बारी किधर है ? क्या वह ऊँचाई पर बसा छोटा सा गाँव ?
हाँ हाँ वही बड़बारी है .”--एक आदमी सरसरी निगाहों से देखता हुआ बता गया . सड़क से गाँव तक का रास्ता अभी तक कंकड़ पत्थरों वाला था . आसपास झरबेरियाँ खड़ी थीं और खदानों के गड्ढे भी वैसे ही गहरे थे जो बारिश में पानी भरने पर खतरनाक हो जाते थे . यह सब उस गाँव के बड़बारी होने की पुष्टि कर रहे थे .
गाँव की गलियाँ शान्त थीं . दूर कहीं लाउडस्पीकर पर कोई लोकगीत सुनाई दे रहा था . कुछ पलों के लिये लगा कि मैं सचमुच अजनबी जगह पर आ गई हूँ . इतने सालों कौन किसको याद रखता है . वैसे भी मैं यहाँ परिचय के लिये नहीं बल्कि शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति विषयक जानकारी लेने आई हूँ .परिचय तो कहीं धूल में दबकर मिट ही गया होगा . फिर भी मन में कौतूहल और मोह था . इधर ही कहीं केसन (कृष्ण) का घर था . केसन जाटव जो मेरा सहपाठी था जो अपने पीले दाँतों के लिये गुरूजी से खूब डाँट खाया करता था . आसपास ही मुरली कोरी भी रहता था जो काकाजी का परम मित्र और भक्त था . उदयसिंह कक्का , करन सिंह दद्दा क्या अब होंगे ?..रामबरन ,आसाराम ..कहाँ कैसे होंगे ...कोई तो दिखता ...बचपन की छोटी उथली सी गलियाँ अब कहाँ थीं . एक दो महिलाएं घूँघट की झिरी से झाँकती हुई चली जा रही थीं . बच्चे मुझे सुई लगाने वाली बाईसमझकर छुप रहे थे . चबूतरों पर झोपड़ियाँ डालकर बैठे अधेड़ और बूढ़े लोग मुझे सवालिया नजरों से देख रहे थे .परिचय का भाव तो कहीं नहीं था . कोई तो मुझे पहचान लेता ..तब मुझे लगा कि समय के साथ सब धूमिल होजाता है . खैर मुझे अपने काम के लिये सरपंच से तो मिलना ही था .
अरे भैया जरा सुनो .” –मैंने एक अधेड़ से आदमी को पुकारा जो भूसे का गट्ठर सिर पर लादे जा रहा था ये रामबरन जी कहाँ मिलेंगे ?”
क्या काम है रामबरन से ?” ---–उसने मुड़कर कुछ जिज्ञासा के साथ देखा .
मैं ही रामबरन हूँ .
रामबरन .....!”---हवा एक तेज झोंका आया और आसपास की सारी धूल जैसे मेरी आँखों में भर गई .कहाँ मेरी स्मृतियों में रामबरन एक किशोर , हमेशा साफ -सुथरा चुस्त-दुरुस्त रहने वाला काकाजी का सबसे प्रिय शिष्य और कहाँ यह काम के बोझ से थका हारा सा अधेड़ !..अजनबी !! ..समय की धूप में मुरझाया ..बत्तीस साल का अन्तराल ..
तो क्या उस धूप ने मुझे नहीं बदल दिया होगा ?” मुझे भी तो भला कोई कैसे पहचानेगा .
मुझे पहचाना ?....नहीं ?
".........."
"याद करो .उन दिनों जब तुम कक्षा पाँच में थे और मैं .... अपने .गुरुजी याद हैं....?”
अरे ! तुम गिरिजा हो ?”–-उसकी आवाज में अविश्वास और जिज्ञासा के साथ कुछ पुलक भरी मिठास भी थी . तेज रोशनी से जैसे सारा अँधेरा तिरोहित होगया . पैरों में झुकते हुए बोला –--“इतने सालों बाद इधर कैसे भूल पड़ी बहिन ?”
" यहाँ सरपंच जी से मिलना था "
" मिलवा देंगे , पहले घर चलो "
फिर तो न सवालों का अन्त था न जबाबों का .अब मेरे सामने वही किशोर सहपाठी था , काकाजी का भक्त .शादी के समय जिद पर अड़ गया था कि गुरुजी बारात में नहीं जाएंगे तो वह ब्याह ही नहीं करेगा . माँ ने उसकी शादी में खूब गीत गाए थे ... क्या दिन थे वे . समय का अन्तराल मिट गया था . आनन फानन में मूँज की खाट पर नई दरी चादर डालदी गई .. हाथ का बुना बीजना लेकर भाभी आगई ..बेटी गाढ़े दही की लस्सी बनाकर ले आई . वह उल्लास के साथ बता रहा था –--“ ये बहिन जी है ..पहचानो ..अरे वही अपने गुरूजी की बेटी . मास्टरनी हैं ...अच्छा ! अरे ! ये हैं ? ...ओ हो गिरिजा बहिन जी ...?”
इसके बाद एक भीड़ ने मुझे घेर लिया . सब काकाजी को याद कर रहे थे . अतीत सामने था .मैं हैरान हुई देख रही थी कि क्या बदला है ! बस महाराणा प्रताप जैसे दिखने वाले उदयसिंह कक्का की बड़ी बड़ी आँखों पर मोटा चश्मा लग गया है . पर मूँछे एकदम सफेद होगई हैं पर आवाज अब भी वैसी ही रौबीली है . मानसिंह काका तो दुबले ही थे पर बाल पूरी तरह सफेद होगए हैं ..काकी का चेहरा कुछ झुर्रा गया है . रसाल भैया वाली भाभी अब भी उतनी ही गोरी और सुन्दर हैं . कमाल है .तो क्या तब बचपन में ही ब्याह कर आगईं थीं !
शायद बचपन में हमें जो काफी उम्रदराज लगते हैं ,वे होते नहीं . मुझे अपनी माँ जैसी बचपन में दिखती थीं वैसी ही अपनी युवावस्था में लगतीं थीं और बाद में भी ..या कि शायद मुझे ऐसा लगा हो ...आसाराम की हँसती हुई मुखाकृति पर मूँछे बनावटी लग रही थीं ,भूरी के बाबा झुक कर चलने लगे थे .रामरती केसकली सब ससुराल में थीं .मैं चकित थी .मुझे लग रहा था कि यह सब पिछले जन्म की बात है .कल्पना भी नही थी कि इतने साल बाद ये सब लोग मिलेंगे . करनसिंह दद्दा चले गए . करतारा की अम्मा अपनी खुरदरी हथेलियों से बार बार मेरे बाल सहला रही थीं . रूखी हथेलियों में उभर आए काँटे मुझे चुभने की बजाय स्नेहमय कोमलता का अहसास करा रहे थे . मानोमौसी पीठ की पसलियों पर हाथ फिराती कहे जा रही थीं---लली कितनी दूबरीहैं . कुछ खाती पीती नहीं . चिन्ता तो नही करती पर चिन्ता काहे की ? सरकारी नौकरी है . लल्लू भी ( मेरे पति) भी स्यातमास्टर हैं .घर का मकान है .बच्चे पढ़ रहे हैं ..
अरे तो का मास्टर साब को नहीं देखा, डेढ़ पसुरिया के थे .” –काकी ने हँसकर कहा . वे बड़े स्नेह से काकाजी को जबरन भोजन कराया करती थीं .
मन में कई सवाल थे जिनके उत्तर मिले कि तालाब सूख गया है उसमें खेती होती है .पानी भरने अब कुँआ पर जाने की जरूरत नहीं घर घर नल लग गए हैं .कासिम दादा अब नहीं है . नए लड़के ज्यादातर ग्वालियर जाकर बस गए हैं . अधिकतर खेत फैक्ट्रियों में बदल गए हैं . लोग भी खेती करने की बजाय फैक्ट्रियों में काम करना ज्यादा पसन्द करते हैं .
बाई साब तुम तो जहीं आ जाओ . बच्चनि कौ उद्धार हुइ जावैगौ .”—कई आवाजें एक साथ उभरीं . पता चला कि स्कूल फिर से उसी दशा में था जिसमें काकाजी के आने से पहले था . शिक्षक हफ्ते में दो-तीन दिन आते हैं . आकर भी कौनसा पढ़ाते हैं ..बच्चों को दो तीन घंटे घेरकर ,हाजिरी भरकर छुट्टी कर जाते हैं और टिकते भी मुश्किल से साल डेढ़ साल ..तबादला करा ले जाते हैं . जम कर रहें तो पढ़ाने में मन लगे ..
मैंने देखा उन्नति के नाम पर चलाए गए अभियानों में फोन और टीवी तो घर घर में होगए हैं पर शिक्षा के नाम पर केवल दिखावा रह गया है .मध्याह्न भोजन योजना और शत-प्रतिशत परीक्षा परिणाम की अनिवार्यता ने पढ़ाई को बहुत पीछे छोड़ दिया है .
सबके बीच दो-तीन घंटे कब बीत गए पता ही न चला . मैंने सरपंच को अपने आने का उद्देश्य बताया जो एक शिक्षाकर्मी की नियुक्ति से सम्बन्धित था .और सबसे विदा ली . सब लोग नंगे पाँव ही मुझे गाँव के बाहर तक छोड़ने आए . सबकी आँखें स्नेह से छलकी जा रही थीं . पीछे देखते हुए मेरी दृष्टि भी धुँधला रही थी .
तब मुझे महसूस हुआ कि मन के गीले आँगन में उकेरे गए हस्ताक्षर समय की धूल में छुप भले ही जाएं पर मिटते नहीं हैं . कभी नहीं .
सन् 2001 में लिखित
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शुक्रवार, 19 जून 2020

मैं भी तो ....


घरेलू हिंसा पर आमंत्रित एक लघुकथा 
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देखो सुमी, वह दूसरे की बच्ची है उसकी जिम्मेदारी तुम कैसे ले सकती हो ! हाँ वह अनाथ होती तो मैं मना नहीं करता . उसकी दादी है, चाचा-चाची हैं , कल किसी बात को लेकर उल्टा तुम्ही पर कोई इल्ज़ाम लगा दिया तो ? रुक्मी को क्या तुम नहीं जानतीं !..याद नहीं पिछली बार रुक्मी ने नम्रता भाभी पर वाची को उल्टी पट्टी पढ़ाने और भड़काने का आरोप लगाया था ? नहीं..नहीं तुम्हें इस झंझट में पड़ने की जरूरत नहीं ..—राजन् ने मुझे बहुत गंभीरता के साथ समझाया . पर मैं थोड़ी उलझन में पड़ गई .
वाची को मेरी जरूरत है . वह मेरे पास ही ज्यादा से ज्यादा समय गुजारना चाहती है . उसके माता-पिता नहीं है . चाचा -चाची और दूसरे परिजनों की नज़र में वह घर में पड़े अतिरिक्त सामान जैसी है . पानी बिना धूप में बढ़ रहे पौधे की तरह ठिठुर गई सी वह बारह साल की लड़की उम्र से पाँच साल पीछे लगती है देखने में भी और सोचने में भी . उसके पड़ोस में रहने वाली रज्जी बताती है कि बेचारी बिना कुछ खाए-पिये स्कूल जाती है , एक बजे तक भूखी रहती है . चचेरे भाई-बहिन उसे दुकान बाजार खदेड़ते रहते हैं ..घर में किसी से भी कोई काम बिगड़ जाता है ,सारा दोष वाची पर ही डाल दिया जाता है .वह कुछ बोलती है तो पिटती भी है ....
ओह ! बिन माँ की बच्ची .” –मेरी आह निकल गई .अभी तो उसकी उम्र गुड़िया से खेलने की है . झूले पर झूलने की है ..चिड़िया की तरह चहकने--उड़ने की है ..पर उसके लिये कोई आकाश नहीं..उसकी माँ होती तो..
उसे मैं दूँगी एक आकाश .—मैंने निश्चय किया . दूसरे बच्चों की तरह वह मेरे पास पढ़ने तो आती ही है .
कितना अच्छा होता आप ही मेरी सचमुच की दादी होतीं .”--–एक दिन उसने कहा था .
भला क्यों ?”--मैंने विस्मय और पुलक के साथ उसे देखा .
क्योंकि आपके साथ मुझे अच्छा लगता है . यहाँ मैं खेलती हूँ या मम्मी की बात करती हूँ तो आप नाराज भी नहीं होतीं ...
धीरे धीरे वह मेरे पास ज्यादा समय बिताने लगी . मैं उसे कहानियाँ सुनाती . सही पढ़ने ,लिखने के अलावा चलना ,बोलना जैसी बातों पर ध्यान देती .वह आँगन में खूब चहकती फुदकती ..उसकी बुझी सी आँखों में चमक आने लगी  .यह सुनकर मुझे एक उपलब्धि का अनुभव होता . इसलिये कि मैं एक मातृ-विहीना बच्ची को स्नेह का थोड़ा आधार दे पा रही थी . मुझे पता है कि बचपन को इस आधार की कितनी जरूरत होती है .
"लेकिन वह स्थायी नहीं है सुमि ." –राजन ने मेरी बात काटकर कहा . तुम अपने लिये विरोध की जमीन तैयार जरूर कर रही हो .
"मैं एक बच्ची को सिर्फ थोड़ा सहारा दे रही हूँ .."
"तुम्हारा सहारा उसके लिये हानिकारक ही सबित होगा देखना ." –मैंने हैरानी से पति की ओर देखा . वो कहे जा रहे थे --" देखो ,रहना उसे वहीं है . उसी माहौल में . तुम रोशनी दिखाकर उसके अँधेरे को ज्यादा भयावह बना रही हो . यहाँ उन्मुक्त वातावरण में रहकर उसे अपने परिजनों का बर्ताव और भी अधिक असहनीय लगेगा ..इसके परिणामस्वरूप जो कुछ भी होगा उसके लिये जिम्मेदार तुम्हें माना जाएगा . फिर वाची से हमारा कोई रिश्ता भी नहीं ..वाची उनकी जिम्मेदारी है . उन्हें निभाने दो . वरना वे और भी निश्चिन्त हो जाएंगे . अभी समझा रहा हूँ बाद में मत कहना कि ...
राजन् को दुनियादारी का ज्यादा अनुभव है . लेकिन यह अप्रत्यक्षतः एक चेतावनी या धमकी भी थी एक पति की अपनी पत्नी को ...
वाची के यथार्थ व आपसी तनाव की संभावना से आशंकित ..मैंने वाची को आने से मना कर दिया . अब वह नही आती पर उसकी खबरें आती रहतीं हैं . वह पहले से ज्यादा कमजोर और गुमसुम होगई है . मैं उसे छत पर उदास खड़ी देखती हूँ तो सोचती हूँ कि रोशनी दिखाकर फिर अँधेरे में धकेलकर क्या मैं और राजन् भी वाची के परिवार में ही शामिल नहीं होगए हैं ? और न चाहते हुए भी पति की बात मानने को विवश क्या मैं भी एक तरह की हिंसा की शिकार नहीं हूँ ? 

रविवार, 14 जून 2020

छत और आँगन



आँगन जिसके बिना घर अधूरा लगता है 9
मुझे बचपन से ही घर में आँगन और छत से बड़ा लगाव रहा है .  आँगन तो कवियों की रचनाओं में भी गूँजता रहा है चाहे कविताएं वात्सल्य की हों या श्रंगार की .देशभक्ति गीत हों या लोकगीत ..आँगन बिना घर अधूरा सा लगता है .आँगन पाँवों को जमीन देता है और उड़ानों को आसमान . 
गाँव के तो हर घर में आँगन जरूर हुआ करता है . लाल माटी से लिपे आँगन में खड़िया से पूरे गए सुरुचिपूर्ण 'चौक' हमारी परम्पराओं के उत्सव, सौन्दर्य और शुचिता के प्रतीक होते हैं ,जीवन के आनन्द से परिपूर्ण , लक्ष्मी और सरस्वती का एक साथ अवतरण . 
जहाँ तक छत की बात है मुझे याद नहीं कि किसी ने छत के भी गीत गाएं हों . शायद लोगों ने छत को उस नजर से देखा ही न हो पर उसका महत्त्व भी कम नहीं . छत का होना ,परिवार में पिता या पिता जैसे ही किसी व्यक्ति का होना है .
मुझे यह सोचना बड़ी राहत देता था कि छत चाहे सीमेंट की हो या खपरैल की या फिर छान-छप्पर की ,छत के कारण ही हम धूप और वर्षा से बचे रहते हैं . यही नही मेरे लिये छत का एक और महत्त्व है . वह यह कि उस पर चढ़कर वहाँ तक देखा जा सकता है जहाँ तक आँगन से कभी नहीं देखा जा सकता .छत पर चढ़कर चीजों को देखने का हमारी दृष्टि का दायरा विस्तृत होजाता है .सोचने का तरीका बदल जाता है . 
उन दिनों हमारा घर कच्चा था . माटी की दीवारें और खपरैल की छत थी जिसे हम 'पाटौर' कहा करते थे . पाटौर जो पत्थर के पतले समतल पाटों या उनके टुकड़ों को जमाकर बनाई जाती थी (हैँ) ढालू और काफी ऊबड़-खाबड़ होती थीं .चढ़ने के लिये कोई साधन भी न था फिर भी हम किसी तरह पाटौर पर जरूर चढ़ते थे .वह किसी बड़ी उपलब्धि से कम आनन्ददायी नहीं था .शाम को जाते जाते धूप का खेतों में सोना बिखेरना , सूरज का धीरे धीरे पहाड़ के पीछे उतरना, चिड़ियों की पाँतों को आसमान में दूर तक लहराते उड़ते देखना, ..बिना किसी व्यवधान के दूर धरती पर उल्टे कटोरे की तरह टिके आसमान को निहारना....हवा और बादलों की उन्मुक्त अठखेलियाँ ,....नदी पार खड़े पीपल और गूलर के विशाल वृक्ष .,हरे-भरे खेत ,.. ऐसे अनेक अभिराम दृश्य पाटौर पर चढ़ने के बाद ही देख पाते थे . गली में निकलते जुलूस व झाँकियों का असली आनन्द पाटौर पर चढ़कर ही लिया जा सकता था . नीचे भीड़ में कोई देखने ही नहीं देता था . साँझ ढलने पर जब कि आसपास के घरों से धुँआ उठने लगता था और हमें पाटौर से उतरना होता था तब साँझ का आना कुछ अखर जाता था .
बाद में महसूस हुआ कि एक आनन्दमय जीवन के लिये सीमेंट ,कंकरीट की छत ही काफी नहीं होती अगर सिर पर एक और 'छत' न हो . किसी का हाथ पीठ पर न हो . कोई कन्धा न हो जिसपर सिर टिका कर बोझ हल्का किया जा सके . ऐसे कितने ही लोग देखे हैं जो शानदार घरों में रहते हुए भी दुखी हैं . अकेले हैं या वैचारिक विसंगतियों से जूझ रहे हैं . ऐसी छत के बिना हमें असुरक्षा घेरे रहती है . 'तूफान' ,'बारिश' और 'धूप' से जिन्दगी त्रस्त होजाती है .  खैर..
छत से दुर्ग-दर्शन
अब हमारी छत है . हर तरह से एक छत . खुली, बड़ी और मजबूत छत . आँगन में नीम है पड़ोस में विशाल सघन बरगद है , कुछ ही दूर बाजू में किला है . लॉकडाउन के सवा तीन माह जबकि घर में ही बन्द हूँ , हर सुबह-शाम को सुन्दर और आनन्दमय बनाने में इस छत की अहम् भूमिका रही है . सुबह शाम पूरा मोहल्ला कोयल की कूक से गुंजित रहता है . लेकिन  'पाटौर' के उन दिनों की याद जब पीपल बरगद के पत्तों से बनी फिरकनी को चलाने के लिये हवा हमारा अनुशरण किया करती थी ,अब भी मन के सन्दूक में सँजोकर रखी हुई है . जिन्दगी के वे दिन सबसे मूल्यवान होते हैं, जब हमारे लिये 'छप्पर' और 'खपरैल' भी किसी शानदार इमारत से कम नही होते .एक छोटी सी 'पाटौर' पर चढ़ जाना एक बड़ी उपलब्धि हुआ करता था . 
बड़े महानगरों की बहुमंजिला इमारतों में ,जिनमें घर दूर से किसी कोटर से प्रतीत होते हैं , एक की छत ही दूसरे का फर्श होती है , फिर भी सालोंसाल परस्पर अपरिचित रहते हैं .एकाकी जीते हैं ,अपने ही भँवरों में फँसे हुए ...
शहरों में बढ़ती आबादी के कारण यह व्यवस्था एक विवशता ही है पर आँगन और छत की कमी से जिन्दगी ने क्या क्या खो दिया है यह भी अनदेखा नहीं किया जा सकता .
वास्तव में घर की दीवारों पर एक छत का होना क्या मायने रखता है इसे वही जान सकता है जिसने बिना छत के ही जीवन के सबसे महत्त्वपूर्ण दिन गुजारे हों .

मंगलवार, 9 जून 2020

कविता रूठ गई है


( तीन चार साल बाद लिखा एक गीत)

चलते चलते चट्टानों पर 
चट्टानों सा निर्मम मन
कैसे लिख पाता फूलों को,
विस्मृत हुआ सुरभि का वन.
बिखरी है वह माला सी , ,
भावों की डोरी टूट गई है .
कविता मुझसे रूठ गई है .

लक्ष्य खड़े हैं चौराहे पर
सुबह-शाम के दोराहे पर
गुमसुम सी हैं सभी दिशाएं ,
ऋतुए चुप चुप आएं जाएं .
कहीं भीड़ में बालक से ज्यों,
माँ की उँगली छूट गई है .
कविता मुझसे रूठ गई है .

कभी प्रतीक्षाओं के पनघट
भी आबाद रहा करते थे.
घाट उतरकर गागर में
जल का कलनाद भरा करते थे.
उम्मीदों के घाट नहीं हैं 
गागरिया भी फूट गई है.
कविता मुझसे रूठ गई है .

वक्त कभी लहरों का नर्तन
और कभी मेघों का गर्जन
मोती कभी मिला करते हैं 
जब होता है सागर-मंथन.
उठी लहर , जाकर ना लौटी .
रेत किनारे छूट गई है .
कविता मुझसे रूठ गई है.

पीड़ा के गह्वर गहरे हैं ,
जा उद्गार कहीं ठहरे हैं
समझेगा भी कौन उन्हें अब ,
सबके मापदण्ड दोहरे हैं . 
भाव नहीं देती भावों का  .
भाषा भी अब कूट हुई है .
कविता मुझसे रूठ गई है .

दीपक का भी स्नेह चुक गया  ,
बाती जलती जाती है .
गेह उजाला अब क्या होगा
रजनी भी गहराती है .
सूरज को छल जाते बादल ,
सरेआम यह लूट नई है .
कविता मुझसे रूठ गई हैं  .



रविवार, 7 जून 2020

'ऑनलाइन -काल'

( व्यंग्य )
देश-दुनिया इन दिनों 'लॉकडाउन' की दशा से गुजर रही है .और हम ऑनलाइन की महादशा से .
इसे समझने से पहले यह समझना जरूरी है कि अब साहित्य-सृजन कागज-कलम का मोहताज़ नहीं रहा . उसे किताबों और पत्रिकाओं से भी बड़े और लोकप्रिय बनाने वाले 'आशु-प्रसारक' मंच ब्लाग ,फेसबुक और  वाट्सएप उपलब्ध हो चुके हैं . टापते रहो सम्पादको ! बहुत भाव दिखा चुके . अब रचनाकार खुद ही अपना सम्पादक प्रकाशक और प्रसारक है . हर तरह का साहित्य आपकी आँखों के आगे चौबीसों घंटे सावन-भादों की सी झड़ी लगाए है . इसे सृजन और पठन् का स्वर्णकाल कह सकते हैं .वाट्सएप पर ही साहित्य-समूहों और रचनाकारों की ऐसी तेज आँधी चल पड़ी है कि रचनाएं 'आँधी के आम' हो रही हैं ,जिन्हें बीनते बीनते समय सूखे पत्ते सा उड़ा जा रहा है . मौसम अनुकूल पाकर कोई फसल जरूरत से ज्यादा मात्रा में पैदा होजाती है तो बाजार में फैली फैली फिरती है ,बिल्कुल उसी तरह करोनाकाल में फुरसत पाकर लोगों का कवित्त्व या कथात्त्व इस कदर जाग गया है कि छोटी मोटी तुकबन्दियाँ भी साहित्य की कतार में खड़ीं कुलबुला रही हैं . उन्हें जहाँ तहाँ चेंपने के लिये कविगण बेताब दिख रहे हैं . 

इधर हल्दी की गाँठ रखकर पंसारी बनने का सपने देखते हुए अनेक स्वनामधन्य रचनाकारों को सृजन से ज्यादा 'ग्रुप-एडमिन' बनना अधिक लाभकारी लग रहा है . प्रशासक होने की अनुभूति ही अलग होती है . हाल यह कि साहित्य--समूह बरसात के अंकुरों की तरह पीक रहे हैं और नवलेखन को धुँआधार बढ़ावा देकर हिन्दी की अविस्मरणीय सेवा कर रहे हैं . हिन्दी साहित्य के इतिहास में आधुनिक काल के साथ अब 'ऑनलाइन-काल' भी डेफीनेटली जुड़ जाना है . हाँ इस काल के प्रवर्त्तक के नाम कुछ फसाद जरूर होंगे . पर अन्ततः कोई धाँसू विद्वान समालोचक गहन विश्लेषण के बाद किसी स्वानुकूल व स्वरुचि वाले नाम को तय कर देगा , संभावना के लिये साथ में दो चार नाम और जोड़ दिये जाएंगे हिन्दी कहानी की तरह . फिर हमेशा वहीं पढ़े जाएंगे .और अमर हो जाएंगे खैर ..
ऐसे ही कुछ ‘ग्रुप-एडमिनों (हिन्दी में आ ही गए हो लाले ,तो फिर हिन्दी के ही होकर रहना होगा ) ने हमें अपने ग्रुप से जोड़ने की पेशकश की तो हमने तुरन्त स्वीकृति दे दी . ना कहने की तो वैसे भी अपनी औकात नहीं है . काहे कि हम जैसे कितने ही घरघुसरे रचनाकार सदियों से किस खेत की मूली का तमगा चिपकाए आए हैं और चले गए हैं . कई बार मंचों पर जहाँ उद्घोषक महोदय / महोदया प्रस्तोता कवि खासतौर पर कवियत्री की पूरी जन्म कुण्डली बाँचने के बाद किसी शायर की पंक्तियाँ उधार लेकर ही उसे ससम्मान बुलाते हैं वहीं हम किसी 'गैर-भाषा-भाषी' की तरह अलग-थलग पड़े अपनी रचना बोलकर चुपचाप अपनी जगह आ बैठते हैं . किसी को रचना अच्छी लगती भी है तो वह कानों में ही इस तरह फुसफुसाता है कि कोई और न सुनले –"आपकी कविता बढ़िया थी ." इस गुमनामी से तो बाज आए ..भला जंगल में मोर नाचा किसने देखा ..यहाँ ऑनलाइन मंच पर देश-विदेश में बैठे साहित्यकारों के बीच अपना नाम बोला जाएगा .फोटो आएगा...समझदार लोग धारा के साथ बहते हैं . जो नहीं बहते वे  किनारे पर रेत की तरह पड़े रह जाते है . सोचा कि उजाले में आने के ऐसे सुनहरे अवसर को छोड़ना तो हिमाकत ही होगी . पर शायद वह हिमाकत न करके बड़ी हिमाकत होगई है हमसे .
अब हाल यह है कि जहाँ जिस ग्रुप को देखो तमाम परिचित अपरिचित कवि अवतरित हो रहे हैं . और धड़ाधड़ लिख लिखकर ग्रुप में सबको अपने कवित्त्व से परिचित कराने बेताब हैं . उससे भी बड़ी बेताबी है अपनी रचना पर कमेंट पाने की और दूसरे की पर ठोकने की भी . रचना की पहली लाइन सुनते ही चिपका देते है--"वाह वाह ,... बधाई , बहुत सुन्दर .क्या कहने ..."  तुरत फुरत प्रत्युत्तर भी प्रकट होजाता है --"आभार ,..धन्यवाद ..." मानो तारीफ करना और पाना रचनाकर्म का अभिन्न अंग है ,रस में अनुभाव  की तरह . तारीफ करने की ऐसी प्रतिस्पर्द्धा तो मातहतों में अपने अधिकारी को खुश करने के लिये भी नही देखी गई ..
इनकी उर्वरा शक्ति देख एक तो हमें अपनी 'कछुआ-चाल' से बड़ी हीनता और वितृष्णा का बोध हो रहा है . ऊपर से हर रचना की तारीफ में दो शब्द लिखने की अनिवार्य विवशता .. विवशता यों कि 'इस हाथ दे , उस हाथ ले' का चलन इधर भी जोरों पर है अगर आपने आलस्य दिखाया तो आपकी रचना को कोई दो कौड़ी न पूछेगा .बनी रहे कैसी भी पठनीय .सो गज़ब यह कि अपनी एक रचना को पढ़वाने हमें पच्चीस रचनाएं पढ़नी होतीं हैं तारीफ की टिप्पणी करने सहित... 
साहित्य समूह इतने होगए हैं कि लगभग हर दूसरे दिन काव्य-गोष्ठी या कथा-गोष्ठी का आयोजन हो रहा है .तीन--चार घंटे मोबाइल सेट हाथ में लिये ऑनलाइन बैठे कविताएं सुनते हुए अपनी रचना पर मिले रेडीमेड कमेंट्स और साथ चिपकी 'पान' वाली इमोजी देखकर पुलकित होते रहते हैं .साथ ही विज्ञापन में जैम की गोलियों की तरह उमड़ती टिप्पणिय़ों को मिटाने के श्रमसाध्य कार्य में अनवरत लगे भी रहते हैं .गज़ब यह कि रचनाओं से अधिक 'बधाइयों और आभारों का अम्बार लगा हुआ है. पुराने जमाने के राजाओं की तरह हर रचना के आगे पीछे पच्चीस-पचास कमेंट्स चलते हैं. झन्न झन्न करते धड़ाधड़ आते मैसेज रचना को दबने से बचाने जिन्हें तुरन्त हटाना भी होता है .. इधर एक हटाया ,उधर रक्तबीज की तरह चार प्रकट ....मानो चुनौती दे रहे हों कि "मिटाओगे..! मिटालो .हम मिट मिटकर भी फिर तुम्हारे सामने आएंगे .."...अलबत्ता मैसेज हटाना भी अब एक बड़ा और जरूरी काम होगया है . मोबाइल फोन जो पहले घंटा दो घंटा आराम कर लेता था अठारह घंटे लगातार सेवा दे रहा है चार्जिंग पर लगे हुए ही....
"इतना समय ! भला क्यों ? गोष्ठी तो बमुश्किल तीन से चार घंटे की मानलो ."
आपके इस संभावित सवाल जबाब है हमारे पास . भई ऐसा है कि आँधी तूफान कितने समय के लिये आता है ,पर बाद में समेटने को कितना कुछ छोड़ जाता है , है कि नहीं ? ब्याह ,जन्मदिन आदि कार्यक्रमों में मिले लिफाफों और उपहारों की तरह अपनी रचना पर मिली टॉनिक टाइप टिप्पणियों का लेखा जोखा , और जबाब में उनकी रचनाओं पर टिप्पणियाँ करने का काम तो चलता ही रहता है न ! यह आपसी व्यवहार और शिष्टाचार है जो साहित्य में तो कतई नाजुक मोड में चल रहा है . जरा चूके नहीं कि आप प्योर खुदगर्जों में शामिल .. 
हाल यह कि अब हर लेखक श्रोता और पाठक गीता पर हाथ रख शपथ ले चुका है कि मैं जो कुछ कहूँगा तारीफ में ही कहूँगा ..तारीफ के सिवा कुछ नहीं कहूँगा . 
इस शिष्टाचार से अब सब खुश हैं . रचनाकार बेशुमार तारीफें बटोरकर और एडमिन जी कुशल संचालन का तमगा पाकर .एक हम हैं जो तय नहीं कर पा रहे कि खुश हैं या..... 



बुधवार, 3 जून 2020

धरती का तप ---'नौतपा'


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कल यानी दो जून को अखबार में पढ़ा कि आज 'नौतपा' की अवधि समाप्त हो रही है .हम बचपन से ही नौतपा के बारे में सुनते आ रहे हैं कि जेठ माह में नौ दिन की वह अवधि जिसमें सबसे सूर्य का ताप सबसे अधिक रहता है ,नौतपा या नवतपा कहताली है .. .ज्योतिष के अनुसार साल में एक बार रोहिणी नक्षत्र की दृष्टि सूर्य पर पड़ती है। यह नक्षत्र 15 दिन रहता है लेकिन शुरू के पहले चन्द्रमा जिन नक्षत्रों पर रहता है वह दिन नौतपा कहलाते हैं। इसका कारण इन दिनों में गर्मी अधिक रहती है। माँ कहती थीं कि 'नौतपा' पूरा हो जाता है तो वर्षा अच्छी होती है .अगर इस बीच बादल छा गए या वर्षा होगई यानी तप खण्डित होगया तो अच्छी वर्षा की संभावना कम होजाती है .
वास्तव में नौतपा का अर्थ 'नौ दिन का ताप ' महज शाब्दिक है . पर इसके मूल में तप ,संयम , व्रत संकल्प, त्याग जैसे भाव ध्वनित होते हैं . इन भावों से अनुप्राणित कार्य बिना तप के संभव नहीं . व्यक्ति की प्रवृत्ति के अनुसार उसमें लोककल्याण या स्वार्थ भी सम्मिलित रहता है .ग्रीष्मऋतु में धरती तपती है. नौतपा में उसे ज्यादा तपना होता है .तपना अर्थात् तप , तपस्या . ताप और वर्षा यानी तप और वरदान . पौराणिक कथाओं में कितने ही सुर असुरों की कठोर तपस्या और उनके वरदान के प्रसंग हैं . जब इन्द्रदेव किसी की कठोर तपस्या से भयभीत होजाते तो उसे भंग करने के कूट रचते थे और तपस्या पूरी होने से पहले ही भंग होजाती और फलेच्छु फल से वंचित हो जाता . नौतपा' के बीच बादल और वर्षा का आना कहीं इन्द्रदेव की ही एक कूटनीति का हिस्सा तो नहीं है ?
धरती के साथ साथ सुना है कि चातक पक्षी भी अच्छी वर्षा के लिये कठोर व्रत करता है उसका व्रत है कि वह सिर्फ बादल से गिरी बूँद से ही अपनी प्यास बुझाता है . इस तरह वर्षा होने तक वह प्यासा ही रहता है . उसके इस कठोर व्रत के कारण ही इन्द्रदेव प्रसन्न होकर वर्षा करते हैं . कोई इसे बुढिया-पुराण या कपोल कल्पना कहकर भले ही नकारदे पर जीवन में व्रत और संकल्प के महत्त्व को कभी नहीं नकारा जा सकता . हमारे मनीषियों विद्वानों का चातुर्य यह है कि इस सार्वभौमिक सत्य को धर्म से जोड़ दिया गया है .साथ ही प्रकृति को मानव के रूप में प्रस्तुत करती है .  इस तरह धर्म विज्ञान से अलग नहीं . विज्ञान के अनुसार भी तो गर्मी के कारण ही पानी से भाप बनती है .किसी किताब में पढ़ा था कि मानवीकरण पाश्चात्यशास्त्र की देन है  बड़ा आश्चर्य हुआ क्योंकि हमारे धर्मग्रन्थों में तो प्रकृति के हर अंग पर्वत सागर नदी वृक्ष सूरज चाँद सबको मानवीकरण द्वारा ही चित्रित किया है .  
नौतपा के सन्दर्भ में मुझे सियारामशरण गुप्त जी की कहानी कोटर और कुटीर याद आती है .कथ्य व शिल्प की दृष्टि से यह भी हिन्दी की एक अत्यन्त रोचक और उद्देश्यपूर्ण कहानी है .कहानी कोटर से शुरु होती है जिसमें चातक का बच्चा प्यास से व्याकुल होकर पानी पीने की जिद करता है .उसे पिता समझाता है कि -- "बेटा प्रथ्वी का यह निर्जल उपवास है। इसी पुण्य से उसे जीवनदान मिलेगा । भोजन का पूरा स्वाद और पूरी तृप्ती पाने के लिए थोड़ी-सी क्षुधा सहन करना अनिवार्य नहीँआवश्यक भी है ।"
लेकिन चातक-पुत्र विद्रोही है वह परम्पराओं को मानना नहीं चाहता . पिता के यह पूछने पर कि जल कहाँ ग्रहण करेगा ,पुत्र गंगाजल पीने की बात कहकर गंगा नदी की ओर उड़ जाता है .रास्ते में थकान अनुभव हुई तो सुस्ताने के लिये एक पेड़ पर उतर जाता है . यह पेड़ एक घर के आँगन में है . यह कुटीर है . इसमें अत्यन्त निर्धन किन्तु ईमानदार पिता बुद्धन और बेटा गोकुल है . गोकुल एक शाम देर से लौटता है .देरी का कारण था कि उसे रास्ते में रुपयों से भरा बटुआ मिला जबकि उसे रुपयों की सबसे ज्यादा जरूरत थी , घर में खाने तक को अनाज नहीं था,,उसने बटुआ उसके मालिक को लौटा दिया क्योंकि उसने बटुआ न मिलने पर उस आदमी के दुख और चिन्ता का अनुमान लगाया था . यह सुनकर पिता की आँखों से आँसू बहने लगे . उसने बेटे को गले लगाते हुए कहा कि इसी बल पर तो धरती थमी है. चातक पक्षी भी तो किस तरह कठिन निर्जल व्रत करके वर्षा के लिये कठोर व्रत करता है . जब वह पक्षी होकर अपने व्रत पर अडिग रह सकता है तो क्या हम अपने ईमान को अटल नहीं रख सकते ?..
पिता के इस संवाद को चातक-पुत्र ने सुना तो अपने मन की शिथिलता पर लज्जित हुआ और जल पीने  का विचार त्यागकर अपने कोटर की ओर उड़ गया .
प्रकृति हमारी अद्भुत पाठशाला है .वही हमें नियम , संयम और अनुशासन का पाठ पढ़ाती है जो सृष्टि के अटल और अनिवार्य सत्य है . व्रत ,संकल्प और संयम या आत्मनियंत्रण का ही दूसरा नाम है .सामान्य रूप से भी देखें तो कार्य छोटा हो या बड़ा कोई भी सृजन , शोध ,आविष्कार या कोई भी बड़ा काम बिना आत्मनियंत्रण या संकल्प के नहीं हो सकता . कोई चाहे इसे विज्ञान कहे चाहे धर्म के साथ जोड़कर अन्धविश्वास का नाम दे दे पर यह सत्य है कि बिना व्रत या संकल्प के बिना आत्मनियंत्रण के हम स्वयं को एक सुनिश्चित स्वरूप नहीं दे सकते .
जिनमें किसी व्रत का पालन कर पाने की दृढ़ता नहीं है , उनमें न तो आत्मविश्वास होता है न ही निर्णय लेने की क्षमता और न ही अपने कार्य के प्रति लगन .
व्रत संयम ,धैर्य , आस्था और कार्य के प्रति निष्ठा लाते हैं .इसी लिये हर धर्म में किसी न किसी तरह के व्रत का प्रावधान है . वह कोई आडम्बर नहीं , बल्कि विचारों को एक आधार , दृढ़ता और आत्मविश्वास लाने की एक सुन्दर हितकर जीवनशैली है .
( नौतपा की परिभाषा गूगल से साभार)