उन दिनों जब
तुम्हारे पत्र
हुआ करते थे
मँहगाई के दौर में
जैसे सब्जी और राशन
या पहली तारीख को
मिला हुआ वेतन .
पत्र जो हुआ करते थे
तपती धरा पर बादल और बौछार
जैसे अरसे बाद
पूरा हो किसी का इन्तज़ार
पत्रों का मिलना
मिल जाना था
अँधेरे में टटोलते हुए
एक दियासलाई
या कि,
कड़कती सर्दी में
नरम-गरम
कथरी और रजाई
उदासी भरे सन्नाटे में
पोस्टमैन –की गूँज
गूँजती थी
जैसे कोई मीठा सा नगमा
पत्र जो होते थे
कमजोर नजर को
सही नम्बर का चश्मा .
मेल और मैसेज छोड़ो
और लिखो फिर से
तुम वैसे ही पत्र,
जैसे भेजा करते थे
भाव-विभोर होकर
हाथ से लिखकर
हाथों से लिखे टेढ़े-मेढ़े
गोल घुमावदार अक्षर
होते थे एक पूरा महाकाव्य ...
लिखो फिर से ऐसे ही पत्र
खूब लम्बे
जिन्हें पढ़ती रहूँ हफ्तों , महीनों , सालों
आजीवन ..
बहुत जरूरत है उनकी
मुझे , हम सबको
आज कोलाहल भरी खामोशी में
बहुत सुंदर। इन हर्फ़ों में लिपटे जज़्बातों को वही समझ सकता है जिसने चिट्ठियों के इंतज़ार में उन गुज़रते लमहों को ख़ुद जिया है। आभार और बधाई!
जवाब देंहटाएंबहुत धन्यवाद कि आपने बहुत ध्यान से कविता पढ़ी .
हटाएंसादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार
(03-07-2020) को
"चाहे आक-अकौआ कह दो,चाहे नाम मदार धरो" (चर्चा अंक-3751) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है ।
…
"मीना भारद्वाज"
धन्यवाद मीना जी .
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ३ जुलाई २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
जरूर . धन्यवाद
जवाब देंहटाएंहाथों से लिखे टेढ़े-मेढ़े
जवाब देंहटाएंगोल घुमावदार अक्षर
होते थे एक पूरा महाकाव्य ...
लिखो फिर से ऐसे ही पत्र
खूब लम्बे
जिन्हें पढ़ती रहूँ हफ्तों , महीनों , सालों
आजीवन .
- अपने हाथ से लिखे पत्रों की वह आत्मीयता ,मन अब भी खोजता है.
आभार माँ . आपका आशीष मिलना रचना का सार्थक होना है .
हटाएंवाह अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंधन्यवाद विमल जी
हटाएंहाथ से लिखे शब्द
जवाब देंहटाएंमात्र शब्द नहीं होते
उनमें हृदय की संवेदना भी छिपी होती है
मस्तिष्क की सूक्ष्म तंत्रिकाओं का कम्पन भी
गहरा हो जाता है कभी कोई शब्द
कभी कोई हल्का
कभी व्यक्त हो जाती है उनमें
लिखने वाले की ख़ुशी
कभी दर्द
जो एक बूंद बन छलक जाये
क्यों न हम फिर से लिख भेजें संदेश
स्वयं के गढ़े शब्दों से
चाहे वे कितने ही अनगढ़ क्यों न हों
न हो उनमें कोई दार्शनिकता या कोई सीख
बस वे हमारे अपने हों
क्यों न पुनः पत्र लिखें
अपने हाथों से
चाहे चन्द पंक्तियाँ ही
कोरी, खालिस अपने मन से उपजी
शुद्ध मोती की तरह पावन !
आहा , कितनी पावन ..सचमुच मोती सी शब्दावली आपकी . रचना से सुन्दर टिप्पणाी के लिये आभार अनीता जी .
हटाएंतुम्हारे पत्र
जवाब देंहटाएंहुआ करते थे
मँहगाई के दौर में
जैसे सब्जी और राशन
या पहली तारीख को
मिला हुआ वेतन ....
बेहतरीन...
सादर..
बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंउदासी भरे सन्नाटे में
जवाब देंहटाएंपोस्टमैन –की गूँज
व्वाहहह..
सादर नमन..
चिठ्ठी और पोस्टमैन पहले संदेश के साथ साथ पत्र भेजने वाले की भावना भी लाते थे
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
पत्र जो हुआ करते थे
जवाब देंहटाएंतपती धरा पर बादल और बौछार
जैसे अरसे बाद
पूरा हो किसी का इन्तज़ार
बहुत सुंदर आदरणीया,हमारी पीढ़ी उन लम्हों को बहुत सिदत से याद करती हैं,
पत्र के मनोभाव को उजागर करती ह्रदयस्पर्शी रचना ,सादर नमन आपको
सच अपनेपन का गहरा रिश्ता तो चिट्ठियों से ही मिलता था जिसकी आज इस आभासी दुनिया में फिर से सख्त जरूरत है
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी प्रस्तुति
कई यादें ताजा हो उठीं
वो पत्र नहीं होते थे गिरिजा जी संजीवनी बूटी हुआ करते थे ! एकाकी पलों के साथी, ममता से भरा आँचल, आँसू पोंछने में सक्षम हाथ या फिर शुष्क आँखों में नमी ले आने वाले भावनाओं के प्रबल ज्वार ! अब कहाँ आते हैं ऐसे पत्र ! मेरे पास अभी तक रखे हुए हैं ढेर सारे पत्र; मम्मी के, बाबूजी के, सहेलियों के, दीदी के, भैया के! अभी भी जब देख लेती हूँ उस बॉक्स को तो पढ़ती रहती हूँ उन्हें देर तक !
जवाब देंहटाएंजी दीदी . आपका यहां हृदय से अभिनन्दन
जवाब देंहटाएंआज के समय मे पत्रों का जो महत्व है वो खत्म सा हो गया है , आपके इस ब्लॉग को पड़कर बहुत खुसी महसूस हुई ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ।
मुझे भी खुशी हुई आपको यहाँ देखकर . धन्यवाद
हटाएंबहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंमैं कभी-कभी कोशिश करता हूँ...
बहुत ही सुंदर हृदयस्पर्शी आदरणीय दी ..
जवाब देंहटाएंबदलते दौर ने बदल दिया इंसान को
इतने हुए क़रीब की दिल से दूर हो गए...भूली बिसरी यादों से बतियाती बेहतरीन प्रस्तुति ..
जो पात्र चिट्ठी के दौर से गुज़रे हैं वो इसका महत्त्व बाखूबी समझते हैं ...
जवाब देंहटाएंजीवन का सार, सम्व्र्दना सिमित के जाती थी शब्दों में ...
सुन्दर रचना है भावनाओं रची ...
आभार कि आप यहाँ आए
हटाएंगुल्ज़ार साहब की एक नज़्म है " न न रहने दो मत मिटाओ इन्हें" जिसमें उन्होंने एक बच्चे की टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों के मिटाने पर अपना विरोध प्रकट करते हुये कहा है कि
जवाब देंहटाएंक्या हुआ शक्ल बन सकी न अगर
मेरे बच्चे के हाथ हैं इनमें
मेरी पहचान है लकीरों में
और यही बात हाथ के लिखे पत्रों में भी होती है... एक एक शब्द में छिपा हुआ स्पर्श...!! पत्र मानो लिखने वाला सामने बैठा बातें कर रहा हो!
बहुत सुंदर!!