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"बिजिन्दर ,तूने सुना कुछ ?"
कान्तीलाल ने ,जबकि बिजिन्दर तखत पर ठीक से बैठ भी नही पाया था कि यह घोर जिज्ञासा वाला सवाल कर ही दिया ।
वैसे छोटे भाई के लिये कान्तिलाल के मन में स्नेह नही कटुता भरी है । ईर्ष्या भरे कई सवाल रहते हैं । मन होता है ,मिलते ही तीर जैसे सवाल पूछ डाले कि 'क्यों रे बिज्जू ! आजकल तो बडे भाव बढे हुए हैं तेरे । जो बिना पूछे किसी के यहाँ पचास रुपए का व्यवहार नही करता था वह पांच-पाँच सौ के नोट रखता है लिफाफे में । अपने नाम से । लडके की नौकरी लगते ही क्या टकसाल खोल ली है ? हाँ भाई ,अब क्यों बात करेगा ! लडकी भी इंजीनियरी की परीक्षा में पास होगई है । अब तो वारे-न्यारे हैं । पर भूल गया कि इसी बडे भाई की बदौलत तुम सबके ब्याह-गौने होगए और आज हैं कि सूरत दिखाने तक नही आते...।
उधर बिजिन्दर के मन में भी उतने ही सवाल और मलाल भरे हैं । वह भी मौका मिलते ही कहना चाहता है कि सूरत दिखा कर क्या करेंगे भाईसाहब । कभी पूछते हो कि छोटा भाई कहाँ है ? भतीजे की सगाई अकेले-अकेले चढवा ली । पडोसियों को बुला लिया पर भाई को नही । भाभी ने माँ के गहनों का सही हिसाब आज तक नही दिया । सारे के सारे अपने 'बकस' में भर कर रख लिये । गाँव में इमली का पेड कब चुपचाप कटवा कर बेच दिया बताया भी नही । हजारों रुपए खुद रख लिये ।
अगर घरवाली कहीं से सुन कर न आती कि बडे भैया की तबियत खराब है । दो दिन बडे अस्पताल में भर्ती भी रहे तो वह मिलने भी नही आता । मन ही कहाँ होता है मिलने का ।
'आव नही आदर नही नैनन नही सनेह ।
तुलसी तहाँ न जाइये कंचन बरसे मेह...।' ....अब 'हारी--बीमारी' की सुन कर तो लोग दुश्मन से भी मिलने चले जाते हैं ।
कुल मिला कर बिजिन्दर और कान्तीलाल के बीच मतभेदों की गहरी खाई है । अगर वे केवल अपनी बातें करें तो बहुत संभावना होती है कि उनकी बातचीत बहस में ,फिर झगडे में बदल जाए और अन्ततः एक घोर हिंसक युद्ध में रूपान्तरित होजाए । पर ऐसा प्रायः होता नही है । उनका मिलन अक्सर बडा आत्मीयता भरा और सुखान्त होता है ।
ऐसी आपसी मुलाकातों को सन्तोषप्रद बनाने के गुर उन्हें ,खासतौर पर कान्तीलाल को खूब आते हैं । जो उसने अपने मामा से सीखे हैं ।
उसके मामा अशरफीलाल की कहें तो वे उम्र से सदा बीस साल कम दिखने की कोशिश में रहते हैं । पचास पार कर चुके हैं ।उन्हें परवाह नही होती कि घर में पत्नी इन्तजार करते-करते अकेली ही सोगई होगी और घर पहुँचने पर उन्हें पत्नी के कोप का शिकार होना पडेगा । इससे निपटने के लिये वे पूरी तरह तैयार रहते हैं और जैसे काँटा मछली को अटका लेता है ,वैसे ही ध्यान को अटका लेने वाले समाचारों की तेज बौछार कर देते हैं ---"अर् रे यार ,फूलबाग पर इत्...तना जोर का ऐक्सीडेंट हुआ है कि पूछो मत । जीवन में मैंने ऐसा भयानक 'सीन' नही देखा । पूरी सडक पर खून ही खून ...मन खराब होगया ...। अर्र रे सुनो तो वो तुम्हारे मामा के साले का भतीजा था न उसकी घरवाली को...।"
बस सीधी-सादी मामी सारी शिकायतें भूल कर ऐक्सीडेंट की हृदय-विदारक करुणा में या परिजन के अनिष्ट की आशंका में डूब जातीं हैं ।
कान्तीलाल को भी यह महारत हासिल है । वह कोई न कोई सुरक्षात्मक प्रसंग बीच में रख लेता है और बाहर केवल साफ-सुथरी बातें ही आने देता है किसी मध्यम निम्न वर्ग के ड्राइंगरूम की तरह ।
बिजिन्दर ने भाई की ओर सवालिया नजरों से देखा । वह आया तो भाई का हालचाल जानने लेकिन कान्तीलाल ने सबसे पहले एक बहुत महत्त्वपूर्ण सूचना दे डालने के लहजे में उसी तत्परता से कहा , जैसी न्यूज चैनल वालों को किसी खबर को सबसे पहले देने का श्रेय लेते हुए होती है ।
" देख आज मैं तुझे याद कर ही रहा था और तू आगया । ..इसे कहते हैं दिल की दिल से राह होती है ।"
"आप कुछ सुनाने वाले थे "---बिजिन्दर को जैसे भाई की इन बातों में कोई रुचि नही थी ।
"हाँ.. हाँ । वो नरेश है न ! अरे वही जो हमारे साथ बगल वाले घर में किराए से रहता था उसकी लडकी किसी जमादार के साथ भाग गई है ।वही लडकी जिसने अपने गत्तू पर इल्जाम लगाया था । "
"अरे नही..!!" बिजेन्द्र जो भाई के विगत व्यवहार को याद कर कुछ निरपेक्ष सा था एकदम उत्सुक और पुलकित हो उठा और काफी चकित भी ।
"आ इधर बैठ "..कान्तीलाल का अपनापन खुलकर निकलपडा .."अरे बिट्टो चाचा के लिये पानी ले आ ।"
"भाईसाब यह तो गजब ही होगया । नरेश अपनी नाक पर मक्खी नही बैठने देता था । अब...??" बिजिन्दर को ऐसा लगा जैसे उसके कूपन पर कोई इनाम निकल आया हो ।
"अब क्या । धुल गई सारी कलई । बडा फिरता था मूँछों पर ताव देते हुए । करमों का फल मिलता है । नरेश ने कसर नही छोडी भाई--भाई को अलग करवाने में।"
"ये दुनिया तो चाहती ही नही हैं कि दो लोग चैन से रहें ।"
"तुझे पता नही है बिजिन्दर , मंटू की घरवाली तेरी भाभी से जाने क्या-क्या कह जाती है नही तो वो ...दिल की बुरी नही है । तुम्हें चाहती तो है ।"
" छोडो भाईसाहब , मंटू से भी सम्हल कर रहना ,अच्छा आदमी नहीं है ।"-बिजिन्दर ने भाई की उस -"मिसरी में निरस बाँस की फाँस"- जैसी बात को एक तरफ सरका कर कहा--- मेरा पडोसी जरूर है पर मैं उसे घास नही डालता ।"
"अच्छा करता है ।...मैं तो साले को सीढियों तक भी नही आने देता । फूट डालो राज करो वाली नीयत है उसकी...."
और फिर तो चर्चाओं का दौर चल पडा ।
" शर्माजी के बेटे की बारात बिना बहू के लौट आई । दस लाख माँग रहे थे । अब पैसा भी गया और इज्जत भी । लडके वालों का तो मरना समझो । लडके को सारी जमापूँजी लगा कर पढाओ । शादी में दहेज भी नही और शादी के बाद सब कुछ बहू का । टापते रहो माँ-बाप..।....भाई मित्तल जी के यहाँ जैसी सजावट और दावत देखी वैसी हमने तो आज तक नही देखी । भई पैसा है । उसे आदमी कैसे भी तो ठिकाने लगाए ।...आजकल हनुमान जी और दुर्गाजी से से ज्यादा मान्यता सांई बाबा की होरही है । देखा नही गुरुवार को रोड पर जाम लग जाता है । भक्तों में नए लडके-लडकियाँ ज्यादा देखने मिलेंगे । ....आजकल देखो कैसे कैसे कानून बनाए जा रहे हैं । साले नेताओं की चाल है अपने कुकरम छुपाने के लिये...। यह मनमोहन सिंह तो देश को बेच कर छोडेगा ...फिर से देखना अँगरेजों का राज होगा । पर हमें क्या । कोऊ नृप होइ हमें का हानी.....।"
"अरे भाई साहब , बातों में कब दस बज गए पता नही चला ।
चलता हूँ । बच्चे खाने के लिये बैठे होंगे ।"
"अरे मैं फोन कर देता हूँ सब लोग यहीं आ जाएंगे ।खाना मिल ही कर खा लेंगे ।"
"नही भाई साहब ,खाना तैयार होगा । वहाँ भी आपका ही है । आप अपनी तबियत का ध्यान रखना । समय का कोई भरोसा नही ..।"
भाइयों के बीच आत्मीयता की बाढ सी उमड पडी थी ।
"तू भी चक्कर लगाता रहा कर । मन अच्छा होजाता है ...।"
विदा लेते समय बिजिन्दर का मन भी हल्का था ।
परचर्चा के बाद उनके बीच के सारे मतभेद मिट गए थे ।
सूरदास जी ने इसे ही 'सबद रसाल 'कहा है और परसाई जी ने 'भेदनाशक' अँधेरा । आप क्या कहते हैं ?