(कुछ संशोधन के बाद पुनः प्रकाशित)
“इतने सारे पटाखे –फुझड़ियाँ !”
सोनी पुलकित हुई बेटे सार्थक को देख रही थी . उसे बचपन
से ही कपड़ों मिठाइयों से ज्यादा पटाखों का शौक रहा है . कई महीनों पहले से पैसे जोड़ जोड़कर अपने मनपसन्द पटाखे फुलझडियाँ लाता था
और बड़े उत्साह से गली भर के बच्चों को दिखाकर चलाता था . अब अच्छी नौकरी है .पैसा
है .. इस दीपावली पर वह तीन साल बाद घर आया है . बहुत उल्लास में है . कई तरह की
मिठाइयाँ ,नए कपड़े ढेर सारे पटाखे और नई तरह की तमाम रोशनियों के डिब्बे लाया था
.लक्ष्मी-पूजन के समय सार्थक थैलों में से सारा सामान निकाल रहा था .
“अरे , चकरियों
वाला एक डिब्बा कहाँ गया ? इस बार तो मैं काफी बडी ,देर तक घूमने वाली चकरियों का बड़ा डिब्बा
लाया था !”
“ हे राम ,कहीँ दुकान पर ही तो नही छूट गया ? ” माँ को चिन्ता हुई . चकरी चलाना बचपन से
ही उसका सबसे प्रिय खेल है .जब चकरी सुनहरी रुपहली और रंगबिरंगी किरणें बिखराती
हुई घूमती थी तो उसका उल्लास देखते ही बनता था . कहता था--
“ माँ देखो ,बेशुमार किरणों के साथ चकरी पूरे आँगन में चक्कर लगाती हुई घूमती
है तो लगता है जैसे यह विष्णु भगवान का चक्र है जो अँधेरे को काट रहा है । या
अँधेरे की नदी में बेहद चमकीला भँवर है जो धारा को अवरुद्ध कर फैलता जा रहा है या
फिर आसमान से बिछडा कोई सितारा है जो जमीन पर गिर कर आकुल हुआ घूम रहा है .”
“एक बार दुकान पर जाकर
देखले बेटा ! जाने कितने का होगा.”
सार्थक ने दो पल इधर-उधर
देखा और झटके से बोला--
“ अरे जाने दो माँ....परेशान
न हो..और आजाएंगी ..”
पूजा के दिये सजाते हुए
माँ का सारा ध्यान बेटे के वाक्य पर था –“जाने दो माँ ..और आ जाएंगी .” बचपन में एक चकरी भी सार्थक के लिये खुशियों का
खजाना थी . आज पूरा डिब्बा भी उसके लिये कोई मायने नही रखता . चकरी उसके पैसों की
तुलना में छोटी होगई है , शायद वे बड़ी खुशियाँ भी जो छोटी छोटी चीजों से मिला
करती हैं .
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