गुरुवार, 26 अप्रैल 2012

बोलो रामसहारे जी


भैया ,रामसहारे जी ।
क्यों हो हारे--हारे जी
क्यों तन्हा बेचारे जी ।
सोचो रामसहारे जी
अलग अलग ही रहते हो
उल्टे ही तुम बहते हो
जो जो सब कहते हैं ,
उससे क्यों हट कर
कुछ कहते हो ।
झुकना तुम्हें नहीं आता ।
रुकना तुम्हें नहीं भाता ।
अफसर की हाँ... हाँ कहने में
भला तुम्हारा क्या जाता !
"क्यों" हर जगह लगाते हो ।
सिर हर जगह उठाते हो
सही गलत का निर्णय तुम क्यों
करने में लग जाते हो ।
सीखा था जो बचपन में
नही चलेगा पचपन में ।
चश्मा अपना जल्दी बदलो
धुन्ध दिखेगी दर्पण में ।
सम्हलो रामसहारे जी
बदलो रामसहारे जी ।
दरवाजे यदि नीचे हैं तो
झुकलो रामसहारे जी ।
काम करो या नाम करो
या बैठ मजे- आराम करो
केवल पाँ--लागी अफसर की
सुबह और फिर शाम करो ।
या ठोकर खाते रहना ।
दुखडे ही गाते रहना ।
पेंशन तक दफ्तर के चक्कर
और लगाते ही रहना ।
आओ रामसहारे जी
गाओ रामसहारे जी
कुर्सी के गुण ,
फिर सुविधाएँ पाओ
राम सहारे जी ।

मंगलवार, 17 अप्रैल 2012

रमपतिया की तलाश में एक कविता

रमपतिया !
तुम हँसती थी
दिल खोल कर
एक बड़ी बुलन्द हँसी ।
छोटी-छोटी बातों पर ही
जैसे कि ,तुम्हारा मरद
पहन लेता था उल्टी बनियान
या दरी को ओढ़ लेता था
बिछाने की बजाय
या कि तुम दे आतीं थीं दुकानदार को
गलती से एक की जगह दो का सिक्का
तुम खिलखिलातीं थीं बेबाकी से
दोहरी होजाती थी हँसते-हँसते
आँखें ,गाल, गले की नसें ,छाती...
पूरा शरीर ही हँसता था तुम्हारे साथ,
हँसतीं थी घर की प्लास्टर झड़ती दीवारें
कमरे का सीला हुआ फर्श
धुँए से काली हुई छत
और हँस उठती थी सन्नाटे में डूबी
गली भी नुक्कड तक...पूरा मोहल्ला...।
ठिठक कर ठहर जाती थी हवा
हो जाते थे शर्मसार
सारे अभाव और दुख ,चिन्ता कि
शाम को कैसे जलेगा चूल्हा
या कैसे चुकेगा रामधन बौहरे का कर्जा
बढते गर्भ की तरह चढते ब्याज के साथ ।

रमपतिया !
तुम रोती भी थीं
तो दिल खोल कर ही
हर दुख को गले लगा कर
चाहे वह मौत हो
पाले-पनासे 'गबरू' की
या जल कर राख होगई हो पकी फसल
या फिर जी दुखाया हो तुम्हारे मरद ने
तुम रोती थीं गला फाड़ कर
रुदन को आसमान तक पहुँचाने
तुम्हारे साथ रोतीं थीं दीवारें
आँगन ,छत , गली मोहल्ला और पूरा..गाँव
उफनती थी आँसुओं की बाढ़
रुके हुए दर्द बह जाते थे
तेज धार में  .
नाली में फंसी पालीथिन की तरह.

ओ रमपतिया !
तुम्हें जब भी लगता था
कुछ अखरने चुभने वाला
जैसे कि बतियाते पकड़ा गया तुम्हारा मरद
साँझ के झुरमुट में,
खेत की मेंड़ पर किसी नवोढ़ा से
फुसफुसाते हुए ।
या  कि वह बरसाने लगता लात-घूँसे
बर्बरता के साथ
जरा सी 'ना नुकर 'पर ही
या फिर छू लेता कोई
तुम्हारी बाँहें...बगलें,
चीज लेते-देते जानबूझ कर
तुम परिवार की नाक का ख्याल करके
नही सहती थी चुप-चुप
नही रोती थी टुसमुस
घूँघट में ही
और दुख को छुपाने
नही हँसती थी झूठमूठ हँसी
चीख-चीख कर जगा देती थी
सोया आसमान ।
भर देती थी चूल्हे में पानी
जेंव लो रोटी
मारलो ।
काट कर डाल दो
रमपतिया नही सहेगी
कोई भी मनमानी ।
और तब थर्रा उठतीं थीं दीवारें
आँगन ,छत ,गली मोहल्ला गाँव ..
औरत को जूते पर मारने वाले
बैठे-ठाले मर्द भी...
बचो भाई ! इस औरत से,
क्यों छेड़ते हो छत्ता ततैया का ?

रमपतिया !
ओ अनपढ़ देहाती स्त्री !!
काला अक्षर भैंस बराबर
पर मुझे लगता है कि उस हर स्त्री को
तुम्हारी ही जरूरत है जिसने
नही जाना -समझा
अपने आपको ,आज तक
तुम्हारी तरह ।
रमपतिया तुम कहाँ हो ?

रविवार, 15 अप्रैल 2012

यह पगडण्डियों का जमाना है


"यार तुम्हारा पाठ्यक्रम अक्टूबर-नवम्बर तक कैसे पूरा हो जाता है "?
"पढाने से और कैसे ! मैं कोई पीरियड मिस नही करता । मेहनत करता हूँ मेहनत । समझे ।"
"तुम्हारा मतलब है कि मैं मेहनत नही करता ।"
"करते हो, लेकिन व्यर्थ एकदम बेकार ..।"
"वो कैसे ?" बताओ न यार । मुझे तो लगता है कि मैं सार्थक ही पढाता हूँ ।"
"क्या सार्थक पढाते हो ? जो पाठ्यक्रम में नही है उस पर अपना व विद्यार्थियों का समय खराब करते हो । नही ?"
"जैसे...?
"जैसे कि पाठ पठाते समय तुम शब्दार्थ, व्याख्या ,सन्धि ,समास,उपसर्ग ,प्रत्यय या कि बिन्दी व मात्राओं का सही प्रयोग बताने में लग जाते हो । या कि दो-दो दिन एक ही पाठ के पीछे पडे रहते हो । क्या जरूरत है बताने की कि रस निष्पत्ति क्या होती है ? कि उपमा व उत्प्रेक्षा में क्या अन्तर होता है । इतना समय नही होता मेरे भाई हमारे पास । गहराई में घुस जाओगे तो पाठ्यक्रम पूरा होगा कैसे ?"
"वह सब प्रसंगवश ही तो बताता हूँ । वैसे भी सन्धि-समास आदि तो हिन्दी के साथ चलते हैं इसलिये पाठ्यक्रम का ही हिस्सा हैं । तुम्ही बताओ अगर तुम्हें पता चले कि ग्यारहवीं का छात्र दिन को दीन लिख रहा है, गलत पढ रहा है याकि दीर्घ सन्धि तक नही जानता तो उसे नही बताओगे  ?"
"बिल्कुल नही । क्योंकि ऐसा करने का कोई लाभ नही है ."
"क्या हर काम केवल अपने लाभ के लिये करते हैं ? क्या जरूरी नही कि छात्र विषय को पूरी तरह आत्मसात् करले और इसमें हम उसकी मदद करें । छात्रों को कुछ सिखा सकें क्या यह भी लाभ नही है ?"
"तुम मदद करके लाभ ले रहे हो ना ? ...पर प्राचार्य की निगाह में तुम एक सुस्त व गैरजिम्मेदार शिक्षक हो । जो समय पर पाठ्यक्रम तक पूरा नही कर पाता । मेहनत भी करो और नाम भी न हो ऐसा काम किस मतलब का ।सोचो कि तुम्हें कभी बोर्ड की कक्षा क्यों नही दी जाती ? सो भैये ,जब चार कदम चलने से ही बात बनती है तो बीस कदम चलने की क्या जरूरत है । वैसे भी हमारे लिये पाठ्यक्रम और उसे पढाने का समय ,तय है । पर पाठ्यक्रम पूरा करने से भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है परीक्षा परिणाम । शिक्षक व छात्र दोनों की योग्यता परीक्षा परिणाम से ही आँकी जाती है । सबका ध्यान केवल परीक्षा-परिणाम पर रहता है । और उसे पाने के लिये इतने विस्तार से जाना आवश्यक भी नही है ।बस कुछ इम्पार्टेंट प्रश्न रटवा दो । तमाम प्रकाशक इतनी सीरीज व गाइडें निकाल कर हमारी मदद कर ही रहे हैं। गाइड पकडाओ और फटाफट कोर्स पूरा करो । सब लोग ऐसा ही कर रहे हैं और देखलो उनका रिजल्ट । तुमसे बेहतर ही होता है । तो फिर क्या अटकी पडी है इतनी मगजपच्ची करने की ।"
"वो कैसे बेहतर होता है क्या तुम नही जानते ।"
"अब तुम इन कुतर्कों में ही पडे रहो । कोई तुम्हें ताज नही पहना रहा ! क्या तुमने परसाई जी के एक व्यंग्य में नही पढा कि ----अब..राजमार्गों पर तो झाडियाँ उग आईं हैं । उन पर कोई नही चलता । लोगों ने पगडण्डियों को ही राजमार्ग बना लिया है ..राजमार्ग के दरवाजे पर लोहे के भारी किवाड लगे हैं । जो उन्हें खोलना चाहते हैं....उनके कपालों से खून बह रहा .है....। तुम्हें खून बहाने का शौक है तो खूब बहाओ नही तो पतली गली से निकल जाओ दोस्त । मजे में रहोगे ।"


रविवार, 8 अप्रैल 2012

एक साल पूरा हुआ



एक साल पूरा हुआ
उस दिन को
जब तेरे आने की आहट से
रोम-रोम तार बजे
तन-मन तम्बूरा हुआ ।

प्रतीक्षाओं व आशाओं के साथ समय का रास्ता कितना छोटा होजाता है । एक साल पहले दिल्ली में आज के दिन नेहा के माता-पिता और हम लोग सर गंगाराम हास्पिटल में नन्हे मेहमान के स्वागत में उत्सुक खडे थे । समय ठहर गया था । डा. खुल्लर खुद नेहा की देखभाल कर रहीं थीं । 9 अप्रेल को दोपहर बारह बज कर सात मि. पर एक मीठी सी आवाज सुनी तो ठहरा हुआ समय जैसे चल पडा । कुछ ही समय बाद वह नन्हा फरिश्ता मेरी बाँहों में था ।

आज वर्ष भर होगया । इस बीच विहान को मैं केवल दो बार ही मिल पाई हूँ । ( कम्प्यूटर पर देखना तो किसी प्यासे का दूर से पानी भरा गिलास देखने जैसा ही है )मैं मानती हूँ कि जीवन के वे पल बडे अनमोल और प्यारे होते हैं जब हम अपने शिशु को बढता हुआ देखते हैं । उसकी हर अदा पर निछावर होते हैं । उसकी हर नई गतिविधि का उत्सव मनाते हैं । मुझे तो नेहा या विवेक से ही पता चलता रहा कि अब वह मुस्कराने लगा है । ..अब पलटने लगा है .कि अब पेट के बल सरकने लगा है । कि अब बैठने लगा है कि अब ऊपर के दाँत आगए हैं । ..
और अब वह मान्या के बाल पकड कर खींचने लगा है और मान्या है कि उसकी हरकतों पर रीझती रहती है ।....यह सब मैं फोन पर ही सुन-सुन कर मुग्ध होती रहती हूँ । उसे अपनी साँसों में उतारने की प्यास अतृप्त ही है और अभी रहने वाली है मई के प्रथम सप्ताह तक । दो-दो टिकिट होने के बावजूद उसके जन्म-दिन पर नही जा सकी हूँ पर मन हर पल उसके आसपास है उसके लडखडाते कदमों में, उसके अस्फुट उच्चरित सम्बोधनों में ,उसकी किलकारियों में ,उसके मचलने में और खिलखिलाने में भी ।


दो कविताएं
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पाँखुरी के द्वार खोल
झाँकी मुस्कान है
पंख खोल चिडियों ने
भरली उडान है
नहा आई हवा भी लो
शायद किसी झरने में
कोयलिया छेड रही
भैरव की तान है
किरणें बुहार रहीं
गली-गली द्वार-द्वार
लेगया समेट चाँद
नींद के वितान हैं
मीठी सी धूप लिये
कोमल हथेलियों में
उतरा है आँगन में
मेरे- विहान है ।
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जरा इन्हें भी देखो
ये तो गंजे होगए हैं ।
बिखरे-निखरे शबनम-शबनम
बाल मुलायम रेशम-रेशम
आया कोई अगलम-पगलम
बाल उतारे अडगम-बडगम
अब कैसे क्या चोटी गुँथनी
चाँद होगई चिकनी-चिकनी
मक्खीरानी के तो
छक्के-पंजे होगए हैं ।
अब फिसलेगी सरपट-सरपट
जब चाहेगी चटपट-चटपट
चिडिया चुपचुप आएगी
चाकलेट खाजाएगी
मुन्ने को ललचा-ललचा कर ।
फुर्र र् से उड जाएगी ।