यह गीत संग्रह यों तो जिसकी भी दृष्टि में गया है , सराहा गया है . किन्तु अपनी दृष्टि को शब्द सबसे पहले भाई सलिल जी ने दिये . अब बैंगलोर में भी कुछ विद्वानों ने इस पर प्रकाश डाला . यहाँ बहुत ही संवेदनशील लेखिका और विदुषी श्रीमती मंजू वैंकट के विचार प्रस्तुत हैं .
“कुछ ठहर ले अौर मेरी ज़िँदगी” —गिरिजा कुलश्रेष्ठ
हिन्दी काव्य जगत के आकाश पर एक सिंदूरी आभा बिखरी है, “कुछ ठहर ले और मेरी ज़िँदगी” .
कवियत्री गिरिजा कुलश्रेष्ठ का यह नया गीत संग्रह काव्य प्रेमियों के लिये एक अनुपम उपहार है । जिसे पढ़ते - पढ़ते मैं कई बार अपने अतीत की यादों में रमी हूँ, और समय के सत्य से उलझे हुए कई स्वप्न मुझे भी रह-रहकर याद आये हैं। गिरिजा कुलश्रेष्ठ की ये पुस्तक दरअसल गीतों भरी पुकार है, ज़िंदगी को संवारने की, इसे स्वप्न और विश्वास में बहलाने की।जहाँ कुछ गीत हमें चुभन के अभ्यास की प्रेरणा देते हैं, वहीं बुज़दिली पर ग़ौर फऱमाने की बात भी गीतों में ढली है।
गिरिजाजी की कवितायें ज़िंदगी के हर विषय पर आघात करने का हौसला रखती हैं । उनके गीतों में वेदना के स्वर हैं और अंतर-वीणा की पीड़ा का राग है। गिरिजा कुलश्रेष्ठ ने जीवन की प्रतिकूल हवाओं में स्रजन का कक्ष तलाशा और उसमें संवेदना और अनुभूतियों को साँस-साँस जीने दिया। उन्होंने अपने आत्मकथन में कहा है कि उनके इस कक्ष में खिड़कियाँ नहीं थीं, लेकिन मुझे लगता है कि उसमें प्रेम, आत्मीयता और विश्वास के झरोखे अवश्य रहे होंगे, जिनसे छनकर अक्षर गिरते होंगे और काग़ज़ पर पड़ते ही कविता बन जाते होंगे। यूँ तो हम सभी जानते हैं कि कवि कर्म आसान नहीं है। यह क्षमता सहज ही उपलब्ध नहीं होती। यह भी सच है कि हर संवेदनशील व्यक्ति के भीतर एक कवि-ह्रदय विराजमान होता है। लेकिन संवेदनशीलता और सूक्ष्म अनुभूतियों को काव्य में ढालने के लिये गहन-सघन अनवरत साधना करनी पड़ती है, तपना पड़ता है। गिरिजा जी काव्य स्रजन की पथरीली राह पर कोमल अनुभूतियों की बाँह पसारे बड़ी सहजता और गरिमा से चलती हुई नज़र आती हैं।यह यात्रा ऐसी है जिसमें एक पुस्तक का पूरा हो जाना, सिर्फ एक मील का पत्थर ही है, जो, अगले पड़ाव की तैयारी के लिये ऊर्जा देता है।
गिरिजाजी की साधना के पल सूर्य गीत की इन पंक्तियों में अपनी छटा बिखेर रहे हैं……
कालिमा के गरल से थी
चेतना म्रियमाण
तुम भले दिनमान
जो कण - कण हुअा गतिमान।।
रूद्ध पथ उद् गार का था
बेड़ियों में द्रष्टि थी
खग विवश निश्चेष्ट
कारागार में ज्यों स्रष्टि थी
तुम उगे तो
जग उठा लयमान
तुम भले दिनमान…….
हर कवि का प्रक्रति, परिस्थिति और परिवेश के साथ एक बहुत ही आत्मीय संबंध होता है। इस संबंध की गहराई की छाप उसके काव्य पर साफ़ नज़र आती है। इस संबंध की सूक्ष्मता , कोमलता और तरलता से उसके गीतों को लय मिलती है। मुझे गिरिजा कुलश्रेष्ठ के गीतों में संघर्ष और समर्पण की लय नज़र आती है। उनके गीतों में अनायास ही मन को छू जाने वाली आत्मीयता है जो उनके अपने व्यक्तित्व में भी साफ़ परिलक्षित होती है।
“ज़रा ठहरो…” इस गीत में अनुभूति की उत्कर्षता को दर्शाती चंद पंक्तियाँ……
मिटाओ मत, ज़रा ठहरो
अभी तो चाह बाक़ी है
अभी मंज़िल कहाँ तय की
अभी तो राह बाक़ी है
अभी मैंने कहाँ मधुमास का
श्रंगार देखा है
कहाँ मधुयामिनी को चंद्र का उपहार देखा है
उमड़ते मेघ का उत्साह
बरसती रिमझिम बूँदें
कहाँ तपती धरा की पीर का
उपचार देखा है
लुटी सी डालियों पर पल्लवों का
प्यार बाक़ी है
ज़रा ठहरो….अभी तो चाह बाक़ी है।।
जीवन का संघर्ष अपूर्व गौरव और गरिमा के साथ इस गीत में उतरता है, “जब कविता बनती है…”
कुछ क्षण विशेष होते हैं अाली
जब कविता बन जाती है
अन्तर वीणा पर पीड़ा
जब कोइ राग बजाती है
विद्रूपों की ज्वाला जब भी
मन विदग्ध कर जाती है
जब साँस-साँस से आहों की
बारात निकलती जाती है
जब ह्रदय प्रतीक्षाकुल व्याकुल
नैराश्य जलधि में बुझता है
देहरी पर जलते दीपक का
स्नेह भी जब चुकता है
स्म्रतियाँ तीखे दंश चुभा
उर को उन्मत्त बनाती हैं
अलि तब कविता बन जाती है…….
गिरिजा कुलश्रेष्ठ के गीतों में नारीसुलभ कलात्मक मनोरमता बड़ी शालीनता के साथ नज़र आती है।
‘विश्वास’ इस गीत की चंद पंक्तियाँ….
जब दर्द कोई गहराया
अन्तर मेरा घबराया
था कौन, निकट जो अाया
मुझको आश्वस्त बनाया
जब जाना मैंने पाया
वो तेरे दो अक्षर थे।
वो तेरे दो अक्षर थे।
निराशा के अंधकार में किसी के नेह का संबल, आसमान को किरणों से भर रहा है…..ये गीत,
“अनुभूति तुम्हारी……”
गहन अंधेरों से घबराकर
कर ली मरने की तैयारी
किन्तु क्षितिज से किरणें फूटीं
पाई जो अनुभुति तुम्हारी
चट्टानों को भी अपना लूँ
अंबर तक सोपान बना लूँ
ठहरो अभी ज़रा सा गा लूँ
अमराई सा मन महका लूँ
हल्का हो , वह मौसम भारी
पाई जो अनुभूति तुम्हारी।।
गिरिजा जी के गीतों में भावों की तीव्रता, गेयता और संक्षिप्तता का अनोखा संगम मिलता है।
“वह बात…”
कह दो वह बात
मुझसे तुम अाज
कह दी जो सुब्ह - सुब्ह
सूरज ने नेह भरकर।।
मैदानों, गलियों से
लहरों से कलियों से
बिखराये कितने रंग
ख़ुशबू के संग।।
कह दी हवाओं ने
जो बात मेघों से
हुए पानी - पानी
फुहारें सुहानी।।
कह दी दिशाओं ने
पर्वत के कानों में
पिघली शिलाएं
फूटी जलधाराएं।।
पीड़ा ने ह्रदय से
जो बात कहकर
संवारा है गीतों को
मान दिया मीतों को।।
गहरा गई है
क्षितिज तक ख़ामोशी
घिरे ना अंधेरा
कि यूँ न रहो चुप
कहो ना वही बात
मुझसे तुम आज।।
कुल मिलाकर “कुछ ठहर ले और मेरी ज़िंदगी” गिरिजा कुलश्रेष्ठ के गीतों का ये संग्रह एक संघर्षशील, संवेदनशील और जागरूक नारी के ह्रदय की कई परतों का गुनगुनाहट भरा राग है, जिसमें सांसारिक रिश्ते-नातों बेटा, भाई, प्रीतम और माँ के लिये गीत हैं तो ‘सर्वव्यापक’, ‘सूर्य गीत’, अौर ‘तेरा ध्यान’ जैसी अध्यात्मिकता को स्पर्श करतीं रचनाएं भी हैं।कुछ गीतों में सामाजिक जागरूकता के स्वर हैं, तो कहीं कहीं विद्रोह के बोल भी। दोहों के साथ-साथ, हिन्दी ग़ज़ल के बिल्कुल पास से गुज़रते हुए गीत अपनी पूरी मौलतकता के साथ मौजूद हैं। ‘संदिग्ध सफर’ की चंद पंक्तियाँ …….
कोलाहल में क्यों ख़ामोश शहर लगता है ।
ख़ामोशी में अब तो साफ़ ज़हर लगता है ।।
पाने खोने का हिसाब जो रखकर मिलता।
एसा प्रेमी केवल सौदागर लगता है ।।
रोक ना पाये वर्षा, अोले, आँधी तूफ़ाँ।
बिना छत, दीवारों का ये घर लगता है।।
हिन्दी काव्य जगत में इस पुस्तक का स्वागत होगा, और गिरिजा कुलश्रेष्ठ की अंबर तक सोपान बनाने वाली लेखनी हमेशा उन अनुभूतियों को गीतों में उकेरती रहे, जो हर पाठक के ह्रदय की पीर है, और उसके नयनों की मुस्कान भी। इन हार्दिक शुभकामना के साथ,
मंजू वेंकट, बेंगलौर