उस दिन सुबह सुबह चिड़ियों गिलहरियों की चीख पुकार के साथ ही गुलाब की
क्यारी में एक नन्हा सा जीव आ गिरा था .
गुल्लू ने किसी डाक्टर जैसी तत्परता दिखाते हुए आदेश दिया . रुई से
उसका घाव पौंछा . मरहम लगाई रुई के सहारे ही मुँह में एक दो बूँद दूध डाला और रुई
के फाहे में लपेट कर कमरे में रख दिया . इतने में आठ दस गिलहरियों ने प्रशान्त को
घेर लिया जैसे गंभीर रूप से घायल हुए मरीज के परिजन अस्पताल में इकट्ठे होजाते हैं
.
हाँ यह बताना रह गया है कि उन दिनों हमारा घर गिलहरियों का ‘मैस’ बना हुआ था . प्रशान्त बी ई की डिग्री के बाद घर पर ही रहकर ‘गेट’ की तैयारी कर रहा था . उन्ही दिनों उसकी दोस्ती गिलहरियों से होगई .. प्रशान्त ने भीगे व भुने चने दिखा दिखाकर गिलहरियों को लुभाना शुरु कर दिया था ..पहले एक –दो गिलहरियाँ आईँ और दाना खाकर चली गईं . धीरे धीरे उन्होंने गुल्लू की दोस्ती स्वीकार करली . अब वे गुल्लू की आवाज पहचानने लगीं थी . वह जब भी आ आ ..बोलते हुए आवाज लगाता तो वे गिलहरियाँ छत की मुँडेर पर धूप सेक रहीं होतीं या नीम की शाखाओं में आराम फरमा रहीं होतीं या फिर कहीं से लाया कोई फल कुतर रही होतीं , झट से उतरकर आँगन में आ जातीं थी और गुल्लू के कन्धे , बाहों और हथेली पर आ बैठतीं और निर्भय चना कुतरती रहतीं थीं . भीगे चने चाहे बच्चों को न मिलें पर गिलहरियों के लिये जरूर तैयार रहते थे . एक दिन तो उनकी स्वादप्रियता देख हम हैरान रह गए . उस दिन चने नहीं थे पर वे तो तैयार होकर आ गईं नौते हुए मेहमान की तरह . प्रशान्त ने रसोई में डिब्बे खंगाले . ज्यादातर खाली खड़खड़ा रहे थे पर एक में मूँगफली दाने मिल गए जो मैंने पोहे में डालने के लिये सम्हालकर रखे हुए थे .मैंने कहा कि “आज कुछ नहीं भी खिलाओगे तो रूठ नहीं जाएंगी वे ...कल से तैयार रखूँगी ..”
हाँ यह बताना रह गया है कि उन दिनों हमारा घर गिलहरियों का ‘मैस’ बना हुआ था . प्रशान्त बी ई की डिग्री के बाद घर पर ही रहकर ‘गेट’ की तैयारी कर रहा था . उन्ही दिनों उसकी दोस्ती गिलहरियों से होगई .. प्रशान्त ने भीगे व भुने चने दिखा दिखाकर गिलहरियों को लुभाना शुरु कर दिया था ..पहले एक –दो गिलहरियाँ आईँ और दाना खाकर चली गईं . धीरे धीरे उन्होंने गुल्लू की दोस्ती स्वीकार करली . अब वे गुल्लू की आवाज पहचानने लगीं थी . वह जब भी आ आ ..बोलते हुए आवाज लगाता तो वे गिलहरियाँ छत की मुँडेर पर धूप सेक रहीं होतीं या नीम की शाखाओं में आराम फरमा रहीं होतीं या फिर कहीं से लाया कोई फल कुतर रही होतीं , झट से उतरकर आँगन में आ जातीं थी और गुल्लू के कन्धे , बाहों और हथेली पर आ बैठतीं और निर्भय चना कुतरती रहतीं थीं . भीगे चने चाहे बच्चों को न मिलें पर गिलहरियों के लिये जरूर तैयार रहते थे . एक दिन तो उनकी स्वादप्रियता देख हम हैरान रह गए . उस दिन चने नहीं थे पर वे तो तैयार होकर आ गईं नौते हुए मेहमान की तरह . प्रशान्त ने रसोई में डिब्बे खंगाले . ज्यादातर खाली खड़खड़ा रहे थे पर एक में मूँगफली दाने मिल गए जो मैंने पोहे में डालने के लिये सम्हालकर रखे हुए थे .मैंने कहा कि “आज कुछ नहीं भी खिलाओगे तो रूठ नहीं जाएंगी वे ...कल से तैयार रखूँगी ..”
“मम्मी मैं एक दिन खाना नहीं खाऊँगा तो आपको कैसा लगेगा ?”
‘यह तो गिलहरियों की माँ होगया .’ मैं मन ही मन भुभुनाई पर उसने कोई
प्रतिक्रिया नहीं दिखाई . चुपचाप डिब्बे से मूँगफली दाने निकाले और टुकड़ा टुकड़ा कर गिलहरियों
को खिला दिये . पर मजेदार बात तब हुई जब अगले दिन गिलहरियों ने भीगे चनों को सूँघा
तक नहीं . अब उनके लिये मूगफली के दाने लाए जाने लगे . किसी दिन प्रशान्त घर में
नहीं होता तब यह दायित्त्व मयंक ने सम्हाला हुआ था . मँझला विवेक बी-टेक के लिये एन. आई. टी. वरंगल चला
गया था .
उन्हीं दिनों की घटना है . एम.टैक के लिये प्रशान्त को आई.आई. टी.
रुड़की में प्रवेश मिल गया था . वह कुछ दिन बाद रुड़की जाने वाला था .यह खुशी का
अवसर था पर मेरा दिल बार बार भर आता था . पहली बार वह मेरी नज़रों से दूर जा रहा
था पर उसका पूरा ध्यान गिलहरी के घायल बच्चे पर था , जो अब थोड़ा बड़ा लगने लगा था
. उसकी घायल हुई आँख बचाई नहीं जा सकी पर घाव सूख गया था . रुई के सहारे दूध से
उसका पेट भर जाता था . शरीर पर रोंए दिखने लगे थे और शरारत के इरादे झलकने लगे थे
.
“हम इसे गिल्लू कहेंगे ,गिलहरी का बच्चा गिल्लू .”—मैंने कहा पर
प्रशान्त बोला--
“ मम्मी यह नाम तो महादेवी वर्मा जी ने अपने गिलहरी के बच्चे का रखा था
. मैंने उनका संस्मरण ‘गिल्लू’ पढ़ा है . हम तो इसे ‘कानू’ कहेंगे .”
प्रशान्त का दिया यह नाम पुकारने में अच्छा भी था और अर्थपूर्ण भी .फिर
सबने उसका यही नाम मान लिया . प्रशान्त उसे
हथेली पर लिये आँगन में घूमता रहता . गिलहरियाँ कौतूहल से देखतीं रहतीं ..वह अपनी
इस उपलब्धि पर बहुत खुश था . अगर रुड़की जाने के इतने बड़े अवसर को छोड़ने का
विकल्प उसके सामने होता तो वह जरूर दूसरा विकल्प चुन लेता .
“मम्मी ! इसका ध्यान रखना .”—चलते हुए प्रशान्त बोला .
“हाँ बेटा .”--मैंने आँसू छुपाते हुए कहा .
“मम्मी , हाँ तो करदी है आपने पर पता है उसे रखना कैसे है ?..यह बाँस की टोकरी
है इसमें रुई और मुलायम कपड़ा मैंने बिछा रखा है . आपको नियमित इसे दूध पिलाना है
. और ढक्कन बन्द ही रखना कभी कभी खोल देना पर बिल्ली से जरूर बचाना ...मम्मी सुन
रही हो ना ..?”
उसकी ट्रेन ओझल हुई तो मैं आँसू पौंछती हुई जल्दी से घर आई . कानू को
देखा . टोकरी में चिपका सा सोया हुआ था . वह अब मेरी जिम्मेदारी था . जिसे मयंक ने
बखूबी सम्हाल लिया . बीच बीच में गुल्लू
के लम्बे लम्बे पत्र आते उनमें चार-पाँच वाक्य कानू के बारे में जरूर होते . कि अब
कितना बड़ा लगता है . एक आँख से ठीक से देख तो लेता है .दूध टीक से पीता है वगैरा
वगैरा...
जब कानू थोड़ा और बड़ा होगया तो उसकी निगरानी में सख्ती करनी पड़ी
..क्योंकि अब वह टोकरी से निकलकर बाहर जाने का इरादा रखने लगा था और जैसे ही हम
उसे हाथ में लेते वह उछलकर भागने की कोशिश करता . और एक दिन वही हो भी गया . जब मैंने
उसका कपड़ा बदलना चाहा जिससे दूध की बदबू आने लगी थी ,देखा , टोकरी खाली पड़ी
हमारी तमाम सावधानियों को चिढ़ाती हुई सी . बड़ी चिन्ता हुई और उलझन भी कि कानू कब
कैसे निकल गया . मैं स्कूल और मयंक कॉलेज जाता तब हम उसे कमरे में बन्द कर जाते थे
. फिर भी दबे पाँव आकर कहीं बिल्ली ने तो झपट्टा नहीं मार दिया .पत्र में प्रशान्त
को क्या लिखेंगे . यह तो हरगिज़ नहीं कि हम देख नहीं पाए और वह गायब होगया . फिर पत्र
में हमने लिख दिया कि कानू ठीक है पर यह झूठ बोझ सा प्रतीत हो रहा था .
खैर ,धीरे धीरे कुछ माह बीत गए तब हमने बता दिया कि कानू अब आजाद होकर
अपने परिजनों से जा मिला है .
हाँ अब तो उसे जाना ही था . इससे ज्यादा उसे नहीं रखा जा सकता था . अब
तो वह सरपट दौड़ने लगा होगा --प्रशान्त ने कहा . यह सुनकर मेरे दिल पर रखा झूठ का बोझ
भी उतर गया . धीरे धीरे हम ,खास तौर पर मैं कानू को भूल गई .
पर प्रशान्त नहीं भूला कुछ माह बाद वह दो तीन दिन के लिये घर आया तो सारा
घर-आँगन जैसे खिल उठा , दीवारें गा उठीं . मेरी आँखें उसके चेहरे से नहीं हट रहीं
थीं पर उसकी आँखें किसी और को तलाश रही थीं .
“मम्मी , उसके बाद कानू कहीं दिखा ? पता नहीं कैसा होगा ! कहाँ होगा ! अब तो वह शाखों
टहनियों पर खूब उछलकूद करने लगा होगा . आपने एक बार भी नहीं देखा न ?”
मैं उसके इस सवाल पर थोड़ा अचकचाई . कुछ कहती इससे पहले ही एक गिलहरी
आकर प्रशान्त के कन्धे पर चढ़ गई . और ऊपर नीचे ऊपर नीचे चक्कर काटकर मानो खुशी
जाहिर कर रही हो . मैं चकित . इतने दिनों में कई गिलहरियाँ रोज मयंक से आकर दाना
तो ले जातीं थीं पर इतनी खुशी तो किसी ने नहीं दिखाई . प्रशान्त ने उसे हथेली पर
लेकर उसे सिर से पूँछ तक ध्यान से देखा और
खुशी के साथ चिल्लाया “–मम्मी ! कानू .”