यह जादुई किस्सा उस समय का है जब मैं शायद सातवीं कक्षा में थी और किशोर भैया (मेरे मौसेरे भाई ) आठवीं या नौवीं में । भैया बचपन से ही बड़े सफाई पसन्द और कलात्मक रुचि वाले थे । कम बोलते थे लेकिन सटीक बोलते थे । उनका हर काम बड़ा व्यवस्थित और कलात्मक होता था । यहाँ तक कि अपने नाम को भी वे बड़े तरीके से सजा कर लिखते थे । किसी के बीड़ी पीने पर और तम्बाखू खाकर पिच्च-पिच्च करने पर उन्हें बड़ी चिढ़ होती थी । वे बड़े कोमल विचारों वाले थे । छोटी-मोटी तुकबन्दियाँ करने और कल्पना से कहानियाँ गढ़ने में खूब कमाल करते थे । और हाँ ..सबसे ज्यादा नैतिक आदर्शों के घोर हिमायती ।
उन दिनों हम एक ही स्कूल में पढ़ते थे इसलिये दूसरे भाई-बहिनों ( चचेरे-मौसेरे) की तुलना में हमें एक दूसरे के साथ ज्यादा समय बिताने का अवसर मिला था । हमारी रुचियाँ भी लगभग समान थीं । जाहिर है कि इससे हमारे बीच निकटता भी अपेक्षाकृत अधिक थी । इसी निकटता के कारण वे मुझे ही अपने विचारों व सिद्धान्तों से अवगत कराते रहते थे । अवगत ही नही कराते बल्कि व्यवहार में लाने का दबाब भी बनाए रखते थे । जैसे कि उन्होंने मुझे स्पष्ट समझा दिया था कि 'मैं कक्षा में लड़कों से कुछ दूर बैठा करूँ । किसी लड़के से कापी माँगनी हो तो खुद न माँग कर उनसे कहा करूँ । और हाँ---'बतादूँ क्या लाना...' , या आजा पिया ..जैसे गीत हरगिज न गाया करूँ । ये 'पिया' 'सैंया' जैसे शब्दों वाले गाने लड़कियों को नही गाने चाहिये ।"
"लेकिन भैया इनमें कोई गाली तो नहीं है फिर क्या बुराई है ?"--मुझे बड़ी हैरानी होती थी ।
"तू नही समझेगी । पर मैंने कह दिया न !"--भैया मास्टर जी की तरह कहते---"तुझे गाना ही है तो 'सबेरे वाली गाड़ी से...' या 'बडी देर भई नन्दलाला...', जैसे गीत गाया कर । समझी !"
भैया के ऐसे सिद्धान्त मेरे पल्ले नही पड़ते थे पर उनकी बात न मानने का तो सवाल ही नही था ।
उन्ही दिनों की बात है । मैंने भैया में एक अजीब सा बदलाव देखा । जो किशोर भैया एक चित्र बना लेने या सब्जी में मिर्च ज्यादा लगने के कारण भूखे रह जाने तक की बात सबसे पहले मुझे बताते थे , वे अक्सर अकेले और खोए-खोए नजर आने लगे थे । पहले से ज्यादा खामोश होगए थे और कुछ पूछने या टोकने पर खीज उठते थे । घर में किसी सामान की ज़रूरत होती तो वे बंसल स्टोर से खरीदने खुद ही चले जाते थे . जरूरत न होने पर भी कुछ न कुछ लेने उसी स्टोर पर जाते थे । जैसे एक दिन उन्होंने स्याही खत्म होजाने की बात कही और स्याही लेने चले गए । मैंने देखा था कि स्याही की शीशी आधी से ज्यादा भरी थी । यही नही भाभी ने बताया कि उनकी 'दरवेश-स्नो' और 'ब्राह्मी आँवले' के तेल की शीशी जादुई तरीके से खाली हो रही है । यह तो सिर्फ मैं जानती थी कि आजकल किशोर भैया क्यों महकते रहते हैं । बाल हमेशा क्यों सँवरे होते हैं . कपड़ों का खास ध्यान किसलिये रखते हैं . पर इससे आगे सोचने और पूछने की अक्ल कहाँ थी मुझे । पर भैया तो जैसे लबालब भरे बर्तन की तरह छलकने बैठे थे । सो एक दिन छलक ही पड़े । वैसे भी घर भर में मुझसे बेहतर उनका कोई हमराज़ नही था !
"तू किसी से कहेगी तो नही ?" एक दिन स्कूल जाते समय उन्होंने बड़ी संजीदगी से कहा । मैंने वचन दिया तो बोले --" देख वो सामने पीला वाला मकान है न ,बंसल-स्टोर के ऊपर , उसमें एक लड़की आई है ।"
"लडकी आई है ?"---मुझे अचम्भा हुआ । लड़की आई है तो इसमें छुपाने वाली क्या बात है । छुपाई तो चोरी जाती है । मुझे याद है एक दिन हमने डाक-बँगला से गुलाब का फूल चुराया था और यह बात कभी किसी को नही बताई । रमा और सुमन अम्मा से छुपाकर इमलियाँ खातीं थीं क्योंकि हमें इसकी सख्त मनाही थी । लड़की का आना और इसे मुझे बताना कोई चोरी तो नही है न ?
" वह सब छोड़ ।--भैया तत्परता से बोले--"तूने कहानियों में परी का जिक्र सुना है न ?" --वो आगे बोले---"वह वैसी ही है । बेहद खूबसूरत । देख तू गलत मत समझना । वह है ही ऐसी । मुस्कराकर देखती है तो गुलाब खिल जाते हैं । हँसती है तो झरने फूट पड़ते हैं और बोलती है तो बिल्कुल जलतरंग सी....।"
अब मैं सचमुच हैरान थी । नवमीं में पढ़ने वाले किशोर भैया बिल्कुल उपन्यासों वाली भाषा बोल रहे थे । यह गुलशन नन्दा के उपन्यासों का असर था जिन्हें वे ताऊजी के बक्से में से निकालकर चोरी से पढ़ाकरते थे । और हम लोगों को उनके कथानक बताया करते थे ।
"भैया यह सब 'कटी पतंग' से याद किया या 'झील के उसपार ' से ?"--मैंने हँसकर कहा तो वे बुरा मान गए ।
"मैं जानता था कि तू भी नही समझेगी मेरी बात..।" इसके बाद मैंने उनकी बात को गंभीरता से लिया और आगे बताने का आग्रह किया ।
"उसका नाम विभा है ।"--वे उल्लसित हो कहने लगे---"वनस्थली में पढ़ती है । यहाँ अपने मामा के यहाँ आई है । क्या सलीका है बोलने का ! तू देखेगी ना ,तो देखती रह जाएगी । मैंने जब स्टोर पर उसका गिरा हुआ पैकेट उठाकर दिया तो वह थैंक्यू कहकर मेरी तरफ ऐसे मुस्कराई जैसे वह मेरे अन्दर झाँक रही हो । यही नही मेरा नाम भी पूछा --"क्या नाम है तुम्हारा ?.. किशोर ..वाह ! बडा प्यारा नाम है..."---आखिरी शब्द बोलते समय तो मुझे लगा कि भैया के होठों से शहद टपकने वाला है ।
अब भैया के लिये मैं और भी खास होगई । वो मौका पाते ही मुझे बताते कि आज विभा ने नीला सूट पहना था कि वह छत पर बाल सुखा रही थी ..कि वह आज भी मुझे देखकर मुस्कराई ..।
कुछ दिन यों ही बीत गए । अब मैं भी उसे देखने उत्सुक थी । यह कोई मुश्किल काम भी नहीं था ।
हालांकि भैया तो उसे रहस्य-रोमांच की तरह खास तौर से मेरे सामने प्रस्तुत करना चाहते थे लेकिन वह एक दिन अचानक रास्ते में मिल गई ।
स्कूल से लौट रहे थे तब वह भी 'पत्र-पेटी' में चिट्ठी डालकर आ रही थी । भैया ने मेरे पीछे होकर छुई-मुई की तरह सिकुड़ते हुए बताया कि यही है विभा ।
"अरे किशोर ! तुम लोग क्या स्कूल से आ रहे हो ?"---एक खरखरी सी आवाज हम तक पहुँची जैसे चक्की में कंकड़ आजाने पर आती है तो मैं हैरान रह गई ।
एक गेहुँआ-साँवले रंग की, मोटी कद-काठी और छोटी-छोटी सी आँखों वाली एक लड़की हमारे सामने खड़ी थी । भैया से पाँच -छह साल बड़ी ही होगी । छोटे सुनहरे और रूखे बालों की पोनीटेल उसे और भी विरूप बना रही थी । भैया के वर्णन को ध्यान में रखने के बाद कम से कम मुझे तो ऐसा ही लगा । पर यह सब कह कर भैया के उस भाव को चोट नही पहुँचाना चाहती थी ।
कुछ दिन बाद विभा अपने घर चली गई और जैसा कि उस उम्र की भावनाओं का होता है ,एक ही धुलाई में उतरे कच्चे रंग की तरह भैया का स्वप्न-लोक भी विलुप्त होगया । अब जब कभी हम मिलते हैं उस प्रसंग को एक परिहास के रूप में याद करते हैं ।
लेकिन उस इन्द्रधनुषी इन्द्रजाल को एकदम नज़रअन्दाज भी तो नही किया जासकता जो कभी भी और कहीं भी एक 'विभा' को 'परी' बना दिया करता है ।