गुरुवार, 28 अक्टूबर 2010

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लघुकथा --बचत

लंच-टाइम था ।स्टाफ की सभी महिलाएं चाय-नाश्ते के साथ अपने परिजनों ,रिश्तेदारों, तथा घर की बातों द्वारा अपनी ,प्रोग्रेस और ,स्टेटस ,जताने में बढ-चढ कर हिस्सा ले रही थीं ।यह समय आपस की महत्त्वपूर्ण सूचनाओं के आदान-प्रदान का होता है ।---पूनम की

बेटी हनीमून के लिये बैंकाक गई है ।अरुणा के बेटे ने इनोवा खरीद ली है ।नीतू के मिस्टर ने मैरिज-ऐनिवर्सरी पर डायमण्ड का सेट दिया है ।तो निर्मला साडी के नाम पर शिफॅान, काँजीवरम् ,या मैसूर-सिल्क से नीचे बात ही नही करती । सरोज जी सफर के लिये सेकण्ड ए.सी. या फ्लाइट से नीचे बात नही करती तो नीलम की शॅापिंग मॅाल या सुपर-मार्केट में ही हो सकती है । अगर उमा जैसी निम्न-मध्यम वर्ग की महिला कह बैठे कि ,मॅाल में चीजें मँहगी भी मिलतीं हैं और उतनी वैरायटीज भी नही मिलतीं , तो फिर नीलम शुरु होजाती है---फिर शायद तुम कभी गई ही नही हो वहाँ । सब बडे और पढे-लिखे लोग मॅाल से ही खरीददारी करते हैं ।...हर चीज ए-वन जो होती है । हाँ पैसा तो लगता है पर हम क्वालिटी के नाम पर कम्प्रोमाइज नही करते ..आज कल हजार-पाँच सौ की कीमत ही क्या है ।

उस दिन भी बहस व तनाव के साथ इसी तरह की बातें चल रहीं थीं । तभी वहाँ एक महिला आई ।कई थैलों से लदी-फदी ,पसीने से नहाई, और हाँफती हुई सी ।चेहरे से कुलीन, सुशिक्षित और सौम्य दिखती थी ।स्टाफ की महिलाएं उसे ऐसे देख ही रहीं थी जैसे वातानुकूलित डिब्बे में बैठे यात्री गीत गाकर पैसा माँगने वाले बच्चे को देखते हैं, वह बोल पडी---

नमस्ते मेम, मेरे पास आपके लायक सेवइयों, नूडल्स, पास्ता, मैक्रोनी, और पापडों की अच्छी वैराइटीज हैं।

अच्छा , दिखाओ --अरुणा जी ने उत्सुकता दिखाई तो अन्य शिक्षिकाएँ भी पैकेटों को उलट-पलट कर देखने लगीं ।

बेम्बिनो की हैं मेम, आपको पसन्द आएंगीं ---अच्छी बिक्री की सम्भावना देख कर वह महिला उत्साहित होकर बोली ।और थैले में से और सामान दिखाने लगी ।

एक-दो पैकेट सेवइयों के लेने तो थे----चल, पास्ता के भी दो पैकेट ले लूँगी --अरुणा जी ने ऐसे कहा मानो सामान लेकर वे उस महिला पर अहसान कर रहीं हों । फिर तो एक साथ कई माँगें उठी---मेरे लिये एक नूडल्स का पैकेट...मेरे लिये पापड का , और मेर लिये मैक्रोनी....।

पहले कीमत तो तय करवा लो---नीलिमा ने कहा तो महिला चतुराई से मुस्कराई---

आपसे ज्यादा थोडी लूँगी मे,म ।

फिर भी तय करना ठीक रहता है --पूनम ने समर्थन किया तो उसने सेवइयों के पैकेट उठा कर कहा---मेम रोस्टेड पैकेट तास का है और सादा पच्चीसका ..।

और, फिर भी कह रही है कि आपसे ज्यादा न लूँगी -नीलम व्यंग्य से मुस्कराई ।पूनम अनुभवी चातुर्य के बोली---मार्केट में रोस्टेड सत्ताइस का और सादा बाईस का मिल रहा है । कितने लादूँ ।

अर् रे यार ये तो बेचने वालों के हथकण्डे हैं । तुझे लेना है तो ले नही तो....।

मेम, ये सारी चीजें कम्पनी की हैं ।--महिला कुछ परास्त स्वर में बोली पर उसके आगे बोलने से पहले ही अरुणा जी ने उसे आडे हाथों लिया ---तो तुझे पता नही , कि हम हमेशा ब्राण्डेड चीजें ही खरीदते हैं हमारे घर आकर देख....।हमारे यहाँ लोकल नही चलता ।

लो यह तो शुरु होगई----सरोज नीलम के कानों में फुसफुसाई फिर जोर से बोली ---अरे जाने दे... हाँ ,बहन तू बता सही-सही दाम क्या लेगी ।या कि सारा मुनाफा हमी से कमाएगी ।

इस बात पर एक ठहाका बुलन्द हुआ ।वह महिला कुछ आहत हुई । आँखों में नमी सी आगई ।

मेम, ऐसे तो कोई भी ज्यादा नही देता । मैं ऐसे ही सामन बेचने नही निकली । मैं भी अच्छे घर की हूँ ।पर मजबूरी है । मिल बन्द होगया । एकदम से कोई काम-धन्धा नही है सो...अब एक-दो रुपया भी न मिले तो कोई काहे दर-दर भटके...।

अब काम तो सभी कर रहे हैं बहन ।-पूनम निस्संगता से बोली ।पर इतना फालतू पैसा किसके पास है कि, कही भी डालदे ।सारी दुनिया सयानी है ।

चलिये ,आपके लिये रोस्टेड अट्ठाइस का और सादा तेईस का लगा देती हूँ । ले लो मेम । बोनी हो जाएगी ।--महिला ने जैसे पूरी सामर्थ्य लगा कर आग्रह किया । हालाँकि कीमत कम करने की खींचतान उसके चेहरे पर दिख रही थी ।

हाँ...बडे कम लगा रही है ---रमा व्यंग्य भरी हँसी के साथ बोली---अरी ,सयानी बहन दूसरे लोग भी तो कुछ अक्कल रखते होंगे ...।

तुझे देना ही है तो बाजार के भाव में दे जा नही तो .....। हाल यह कि लाखों-करोडों की बातें बहसें करने वाली वे सभ्रान्त, कुलीन महिलाएं दो-तीन रुपए कम करवाने उसी तरह एकमत थीं जैसे संसद में वेतन-भत्तों के मुद्दे पर पक्ष-विपक्ष एकमत हो जाता है ।

कोई बात नही मेम--पूरी तरह नाउम्मीद होने पर वह महिला अपना सामान समेट कर चली गई ।कुछ पल को वहाँ सन्नाटा सा रहा जिसे नीलम ने तोडा---

वो समझती है कि हम तो बुद्धू हैं ।जो माँगेगी दे देंगी ।

और क्या रोज का वास्ता पडता है इन चीजों से ।मार्केट में देखो एक से बढ कर एक चीज है ।

और नही तो क्या....।

सबके चेहरों पर कुछ पैसे बचा लेने का सन्तोष चिपका था ।

मंगलवार, 19 अक्टूबर 2010

एक गीत

बरसों हुए मिटे, अब
जागी कराह क्यूँ है ।
जर्जर हुए वसन में ,
पैबन्द आह क्यूँ है ।

अब भूलना ही बेहतर
अपना कि क्या पराया ।
जो भी करीब आया,
प्रतिरूप साथ लाया ।
विश्वास और छल में ,
ऐसी सलाह क्यूँ है ।
बरसों हुए......
कुछ और जो ठहरता ,
मौसम हरा-भरा सा ।
हर पेड यूँ न लगता ,
सहमा डरा-डरा सा ।
बेवक्त ही हवा की
बदली निगाह क्यूँ है ।
बरसों हुए.....
गिर गिर सम्हाला खुद को
कैसे भी जब डगर में ।
टुकडे सम्हाल मन के ,
अनजान इस शहर में ।
गुजरे भी हम जिधर से ,
यह वाह--वाह क्यूँ है ।
बरसों हुए......

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2010





शिवम् है कि मानता नही ।


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शिवsss म्.....।

माँ पुकारती है ।

दिनभर बैठे--बैठे ,बीडी बनाते

झाडू-पौंछा या चौका--बर्तन करते,

थकी हुई माँ ..।

हाथ से बहुत पीछे छूट गए सपनों की याद में ,

कहीं रुकी ह्ई माँ

और बैठे-ठाले, शराबी , दस साल बडे ,

खाँसते--खखारते पति की मर्दाना माँगों से

ऊबी--छकी माँ,

सारा गुस्सा उतारती है अक्सर,

आठ साल के शिवम् पर ।

जो उग आया है शायद

जिन्दगी की जमीन पर ।

अपने आप उग आई घास की तरह

जमीन को हरियाली से मढ रहा है ।

बिना पानी--खाद के बढ रहा है ।

माँ कोसती रहती है उसकी हँसी को ।

खेलने की खुशी को ।

अरे , शिवsssम् ---मर जा तू,

ठठरी बँधे , आग जले ,

मेरी जान न खा तू ।

खेलता रहता है दिन भर ।

खेलना बन्द कर , आ...

चल मेरे साथ बीडी बनवा ।

पत्ते काट , तम्बाकू भर ।

हजार बीडियों का कोटा पूरा करवा ।

चुलबुला शिवम् बैठ जाता है,

बीडी बनबाता है ।

झूठे गुस्से से तनी हुई ।

सायास गम्भीर बनी हुई

माँ को देख खिलखिलाता है ।

माँ दाँत पीसती है ---अरे , मरे, होंठ बन्द कर ।

थोडा तो डर ,कि निकाल कर दे दूँगी ,

पूरी बत्तीसी तेरे हाथ में ।

ही..ही..ही..---शिवम् फिर खिलखिलाता है ।

माँ की इन धमकियों को मानता नही ।

बुत बन कर रहना वह जानता नही ।

और कुछ ही देर बाद ,

खो जाता है

अपने साथियों में ।

माँ चिल्लाती है ,गालियाँ देती है ।

शिवम् खिलखिलाता रहता है ,

अक्सर यूँ ही