26 नवम्बर 2010---ग्वालियर ---------------------------------------- |
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अगर कोई तीस-बत्तीस साल का सुन्दर युवक चिडियों--गिलहरियों ,पिल्लों या छोटे बच्चों की हरकतों पर मुग्ध होता हो, खुद से ज्यादा दूसरों की परेशानी से परेशान होता हो ,दूसरों की भावनाओं का खास ख्याल रखता हो , आक्रोश व आरोपों को शान्त रह कर सुनता हो ,झूठ ,छल, बेईमानी व भ्रष्टाचार के प्रसंग पर बेहद संजीदा हो जाता हो , जो परिवार से आगे समाज राष्ट्र विश्व और फिर ब्रह्माण्ड तक सोचता हो पर माँ से वांछित स्नेह न मिलने की शिकायत छोटे बच्चे की तरह करता हो तो वह निस्सन्देह गुल्लू ही होगा । गुल्लू यानी प्रशान्त, बडा बेटा ,भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान केन्द्र( इसरो) बैंगलुरु में एक वैज्ञानिक । मेरे लिये वह केवल एक बेटा ही नही है । मेरे खाने-पीने , दवा लेने ,समय से सोने जागने के लिये एक पिता की तरह निर्देश देता है ,मेरी अनियमितताओं पर नाराज होता है । और मेरे सिरदर्द तक की बात सुन कर एक माँ की तरह ही चिन्तित भी होता है । और अपनी बहुत सारी बातें मैं उसे मित्र की तरह ही सुना सकती हूँ ।सन् 1978 के नवम्बर की 26 तारीख को सुबह 5.45 पर गुल्लू का जन्म सचमुच सूरज उगने जैसा ही हुआ था । गर्भ में उम्मीदों के सूरज को सहेजे दो-रातों की पीडा के पश्चात् हुई सुबह कई अर्थों में जीवन की एक अपूर्व-अनौखी सुबह थी ।
गुल्लू के बारे में लिखने को बहुत कुछ है ।पहली सन्तान होने के नाते स्नेह के साथ--साथ उससे कुछ ज्यादा ही अपेक्षाएं और आकाँक्षाएं, और इसीलिये पाबन्दियाँ भी खूब रहीं हैं ।पर इन सबसे जकडे उसके बचपन के लिये वेदना भी अपेक्षाकृत अधिक रही है। कई बातों के लिये उसके प्रति मन में एक अपराध-बोध सा आज भी है । पलाश ( शैक्षिक पत्रिका राज्य शिक्षा केन्द्र भोपाल) के फरवरी 2002 अंक तथा जनवरी 2007 के अंक में प्रकाशित दो कहानियाँ--छोटी सी बात तथा पहली रचना --विशुद्ध रूप से गुल्लू पर ही केन्द्रित हैं ।
आज गुल्लू ने बत्तीस वर्ष पूरे कर लिये हैं । वह --सुन्दर समझदार और सी.डॅाट में इंजीनियर--सुलक्षणा का पति ही नही ,चार साल की मान्या का पिता भी है ,पर मेरे लिये वह अभी तक गुल्लू बना हुआ है । बच्चों सा ही निश्छल , सच्चा , संवेदनशील । मैं कभी उसे प्रशान्त कहती हूँ तो टोक देता है----क्या मम्मी ... । रोज फोन पर भी सबसे पहले यही सुनाई देता है --मम्मी मैं गुल्लू बोल रहा हूँ ।
और तब मुझे लगता है , ...लगता है .....पर कैसे लिखूँ कि क्या लगता है क्यों कि इस अहसास के लिये तो मेरे पास कोई उपमा ही नही है ।बस है तो उसके दीर्घायु , प्रसन्न ,ऊर्जावान्, स्वस्थ व सक्रिय बने रहने की कामना व प्रार्थना । यहाँ उसके लिये बहुत पहले लिखी गईं दो कविताएं हैं ।
क्या लिखूँ --1
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क्या लिखूँ आज तेरे लिये
मेरे प्रथम कोमल गीत
मेरे वत्स
मेरे मीत ।
अवाक् है ह्रदय
फिसल रहे हैं शब्द
पारे की बूँदों की तरह
मेरी उँगलियों से ।
व्यक्त करना चाहती हूं
वह अहसास
जो होता है
तेरी सस्मित आँखों को देख कर
लौटाऊँ तुझे वे सारी खुशियाँ
जो मुझे दी हैं तूने
अनवरत,अविकल
हर दिन, हर पल
पर, कितनी अकिंचन मैं,
दे न सकी आज तक तुझे
एक शब्द भी .
शब्द ,जो बन जाता
तेरे पाँव तले एक ठोस धरातल ।
शब्द , जो बन जाता
एक स्नेहमय हाथ
तेरे सिर पर
करता तुझे आश्वस्त ..निश्चिन्त
तू ही तो देता रहा मुझे
कितना कुछ
अकथ्य, असीम ...
छलक कर जो
ह्रदय की गहराइयों से
सींचता रहा है
एक रेगिस्तान को
मेरे वत्स , मेरे मीत
मैं भला क्या दूँ तुझे
मेरे प्रथम कोमल गीत ।
( 26 नवम्बर 1996 को रचित)
नीम अमरूद की टहनियों पर
छत की मुँडेर पर
आँगन में ..हर कहीं
चहकती--फुदकती रहती थी
गौरैया--तेरी मुस्कान
नही दिखाई देती अब
कही भी अभिराम
सुबह,दोपहर, शाम ।
और ताव खाकर
कच्चे अमरूद कुतरता
नोंच-नोंच कर पत्ते गिराता
मिट्ठू--तेरा गुस्सा
ठहर कर नही रहता था कभी
एक जगह देर तक
अब हैं सूनी शाखें
खाली आँखें
रहीं हैं बस
आसमान को घूर
तुझसे दूर ।
झाडू लगे आँगन में
बार--बार सूखे पत्ते बिखरात
हवा का शरारती झौंका--तेरा तरीका
नहीं आता किसी खिडकी--दरवाजे से
हर चीज ठहरी है अपनी जगह
अब क्या सँवारूँ..
क्या समेटूँ ।
कुछ भी तो नहीं है करने को
फिर भी हाथ--पाँव
थक कर हैं चूर
तुझसे दूर ।
रातों--रात गुलाब की टहनियों पर
जब खिलते जाते थे
कितने फूल---मेरे गीत
दिखाती थी तुझे सुबह--सुबह
अब तो जाने कबसे
खिला नही एक भी फूल
नही निकली एक कली तक
सूना पौधा खामोश खडा है
करके जैसे कोई कसूर ।
तुझसे दूर ।
26 नवम्बर 2002
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