16 जनवरी को मुझे एक सन्देश मिला ---"एक आसमान । अन्तिम पंक्ति न लिखती तो हमारा भी एक आसमान होता ।" किसी अनजान नम्बर से मिला यह सन्देश कुछ पलों के लिये तो एक पहेली ही रहा फिर मुझे याद आया कि यह तो मेरी एक लघुकथा का शीर्षक है जो मैंने शायद पिछले साल 'कथादेश' को भेजी थी ।
तो क्या छप गई । मैंने तुरन्त सन्देशकर्ता से सारा विवरण पूछा । वे दिल्ली के श्री विजय गोयल थे । जनवरी 2013 के कथादेश में उन्होंने यह रचना पढी । इसमें कोई आश्चर्य नही कि इस छोटी सी रचना के लिये मुझे पत्रिका वालों ने कोई सूचना या प्रति नही भेजी । दरअसल मैं ऐसी बडी पत्रिकाओं की रचनाकार हूँ भी नही । पर श्री विजय जी ने सूचना देकर निश्चित ही उपकार किया । निराशा तो तब हुई जब कही भी मुझे यह अंक नही मिला । ग्वालियर से लेकर भोपाल तक के रेलवे बुक स्टाल तक । कथादेश के दफ्तर फोन किया पर वहाँ से भी कोई उम्मीद नही । खैर लघुकथा की प्रति मेरे पास है । यहाँ आप सबके साथ एक बार फिर पढ कर ही सन्तोष कर रही हूँ ।
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"ए विमलाsssss!!"
मैंने देखा ,देहरी पर बैठी पुजारिन अम्मा अपनी आँखों पर हथेली की छतरी सी ताने आतुरता से मुझे ही पुकार रही थी । मैं लौट पडी ।
"इधर क्या चाची के घर गई थी ?"
इस सवाल के पीछे अम्मा की जो उत्सुकता थी उसे मैं समझ गई । मेरी चाची के बगल वाले मकान में ही विनोद भैया ( अम्मा का बडा बेटा ) रहते हैं । महीना भर पहले वे अपने खुद के मकान में रहने चले गए । अम्मा और सबसे छोटा व कुँवारा बेटा, दोनों किराए के मकान में ही रह गए । विनोद भैया ने अम्मा से भी साथ चलने को कहा तो जरूर होगा पर शायद उस तरह नही कहा होगा कि अम्मा उठ कर चल देती या कि कई दशकों से रह रहे इस घर इतनी सारी यादों को लेकर जाना संभव नही हुआ होगा । जो भी हो ...।
अब जैसा कि होता है, विनोद भैया को अम्मा के पास आने की जरा भी फुरसत नही है । भाभी के अपने दुखडे व शिकायतें हैं और अम्मा के पास है ढेर सारा मलाल , अकेलापन । साथ ही बेटे का इन्तज़ार । और कुछ नही तो उसके बारे में कोई समाचार ही पा लेने की लालसा ।
"विनोद के घर भी गई होगी ?"
"हाँss...गई तो थी ।" मैंने हिचकिचाते हुए कहा ।
"विनोद मिला होगा ।"---अम्मा ने और भी उत्सुक होकर पूछा फिर कुछ बुझे स्वर में बोलीं---"कुसमा तो खुश होगी कि चलो पीछा छूटा 'डुकरिया' से ..। आदमी उसकी मुट्ठी में है । सास गिरे 'ढाह' से....।" अम्मा की आवाज पीडा से भारी होगई । लगा जैसे शून्य में अकेली ही छटपटा रही हैं ।
"नही अम्मा-"--मैंने कहा-- "मैं जब भी जाती हूँ ,भाभी तुम्हारे बारे में पूछतीं जरूर हैं । आज ही तुम्हारे हाथ के बने मिर्च के अचार की बडी तारीफ कर रहीं थीं ।"
"सच्ची !! तुझे मेरी सौंह ।" --- अम्मा की आँखों में सितारे से झिलमिलाए ।
"हाँ सच्ची अम्मा ! विनोद भैया भी कहते रहते हैं कि हमारी अम्मा ने जैसे बच्चों को पाला है कौन औरत पाल सकती है !"
"विनोद तो मेरा विनोद ही है "---अम्मा गद्गद् होगईं ----"और कुसमा भी ...जुबान की भले ही जैसी हो पर दिल में खोट नही है उसके ।" अम्मा का मुरझाया चेहरा खिल उठा था ।
मुझे यह तसल्ली हुई कि झूठ बोल कर ही सही अम्मा को उम्मीद का एक आसमान तो दे ही दिया था ।
तो क्या छप गई । मैंने तुरन्त सन्देशकर्ता से सारा विवरण पूछा । वे दिल्ली के श्री विजय गोयल थे । जनवरी 2013 के कथादेश में उन्होंने यह रचना पढी । इसमें कोई आश्चर्य नही कि इस छोटी सी रचना के लिये मुझे पत्रिका वालों ने कोई सूचना या प्रति नही भेजी । दरअसल मैं ऐसी बडी पत्रिकाओं की रचनाकार हूँ भी नही । पर श्री विजय जी ने सूचना देकर निश्चित ही उपकार किया । निराशा तो तब हुई जब कही भी मुझे यह अंक नही मिला । ग्वालियर से लेकर भोपाल तक के रेलवे बुक स्टाल तक । कथादेश के दफ्तर फोन किया पर वहाँ से भी कोई उम्मीद नही । खैर लघुकथा की प्रति मेरे पास है । यहाँ आप सबके साथ एक बार फिर पढ कर ही सन्तोष कर रही हूँ ।
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"ए विमलाsssss!!"
मैंने देखा ,देहरी पर बैठी पुजारिन अम्मा अपनी आँखों पर हथेली की छतरी सी ताने आतुरता से मुझे ही पुकार रही थी । मैं लौट पडी ।
"इधर क्या चाची के घर गई थी ?"
इस सवाल के पीछे अम्मा की जो उत्सुकता थी उसे मैं समझ गई । मेरी चाची के बगल वाले मकान में ही विनोद भैया ( अम्मा का बडा बेटा ) रहते हैं । महीना भर पहले वे अपने खुद के मकान में रहने चले गए । अम्मा और सबसे छोटा व कुँवारा बेटा, दोनों किराए के मकान में ही रह गए । विनोद भैया ने अम्मा से भी साथ चलने को कहा तो जरूर होगा पर शायद उस तरह नही कहा होगा कि अम्मा उठ कर चल देती या कि कई दशकों से रह रहे इस घर इतनी सारी यादों को लेकर जाना संभव नही हुआ होगा । जो भी हो ...।
अब जैसा कि होता है, विनोद भैया को अम्मा के पास आने की जरा भी फुरसत नही है । भाभी के अपने दुखडे व शिकायतें हैं और अम्मा के पास है ढेर सारा मलाल , अकेलापन । साथ ही बेटे का इन्तज़ार । और कुछ नही तो उसके बारे में कोई समाचार ही पा लेने की लालसा ।
"विनोद के घर भी गई होगी ?"
"हाँss...गई तो थी ।" मैंने हिचकिचाते हुए कहा ।
"विनोद मिला होगा ।"---अम्मा ने और भी उत्सुक होकर पूछा फिर कुछ बुझे स्वर में बोलीं---"कुसमा तो खुश होगी कि चलो पीछा छूटा 'डुकरिया' से ..। आदमी उसकी मुट्ठी में है । सास गिरे 'ढाह' से....।" अम्मा की आवाज पीडा से भारी होगई । लगा जैसे शून्य में अकेली ही छटपटा रही हैं ।
"नही अम्मा-"--मैंने कहा-- "मैं जब भी जाती हूँ ,भाभी तुम्हारे बारे में पूछतीं जरूर हैं । आज ही तुम्हारे हाथ के बने मिर्च के अचार की बडी तारीफ कर रहीं थीं ।"
"सच्ची !! तुझे मेरी सौंह ।" --- अम्मा की आँखों में सितारे से झिलमिलाए ।
"हाँ सच्ची अम्मा ! विनोद भैया भी कहते रहते हैं कि हमारी अम्मा ने जैसे बच्चों को पाला है कौन औरत पाल सकती है !"
"विनोद तो मेरा विनोद ही है "---अम्मा गद्गद् होगईं ----"और कुसमा भी ...जुबान की भले ही जैसी हो पर दिल में खोट नही है उसके ।" अम्मा का मुरझाया चेहरा खिल उठा था ।
मुझे यह तसल्ली हुई कि झूठ बोल कर ही सही अम्मा को उम्मीद का एक आसमान तो दे ही दिया था ।