रविवार, 17 फ़रवरी 2013

एक आसमान

16 जनवरी को मुझे एक सन्देश मिला ---"एक आसमान । अन्तिम पंक्ति न लिखती तो हमारा भी एक आसमान होता ।" किसी अनजान नम्बर से मिला यह सन्देश कुछ पलों के लिये तो एक पहेली ही रहा फिर मुझे याद आया कि यह तो मेरी एक लघुकथा का शीर्षक है जो मैंने शायद पिछले साल 'कथादेश' को भेजी थी ।
तो क्या छप गई । मैंने तुरन्त सन्देशकर्ता से सारा विवरण पूछा । वे दिल्ली के श्री विजय गोयल थे । जनवरी 2013 के कथादेश में उन्होंने यह रचना पढी । इसमें कोई आश्चर्य  नही कि इस छोटी सी रचना के लिये मुझे पत्रिका वालों ने कोई सूचना या प्रति नही भेजी । दरअसल मैं ऐसी बडी पत्रिकाओं की रचनाकार हूँ भी नही । पर श्री विजय जी ने सूचना देकर निश्चित ही उपकार किया । निराशा तो तब हुई जब कही भी मुझे यह अंक नही मिला । ग्वालियर से लेकर भोपाल तक के रेलवे बुक स्टाल तक । कथादेश के दफ्तर फोन किया पर वहाँ से भी कोई उम्मीद नही । खैर लघुकथा की प्रति मेरे पास है । यहाँ आप सबके साथ एक बार फिर पढ कर ही सन्तोष कर रही हूँ ।
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"ए विमलाsssss!!" 
मैंने देखा ,देहरी पर बैठी पुजारिन अम्मा अपनी आँखों पर हथेली की छतरी सी ताने आतुरता से मुझे ही पुकार रही थी । मैं लौट पडी ।
"इधर क्या चाची के घर गई थी ?"
इस सवाल के पीछे अम्मा की जो उत्सुकता थी उसे मैं समझ गई । मेरी चाची के बगल वाले मकान में ही विनोद भैया ( अम्मा का बडा बेटा ) रहते हैं । महीना भर पहले वे अपने खुद के मकान में रहने चले गए । अम्मा और सबसे छोटा व कुँवारा बेटा, दोनों किराए के मकान में ही रह गए ।  विनोद भैया ने अम्मा से भी साथ चलने को कहा तो जरूर होगा पर शायद उस तरह नही कहा होगा कि अम्मा उठ कर चल देती या कि कई दशकों से रह रहे इस घर इतनी सारी यादों को लेकर जाना संभव नही हुआ होगा । जो भी हो ...।
अब जैसा कि होता है, विनोद भैया को अम्मा के पास आने की जरा भी फुरसत नही है । भाभी के अपने दुखडे व शिकायतें हैं और अम्मा के पास है ढेर सारा मलाल , अकेलापन । साथ ही बेटे का इन्तज़ार । और कुछ नही तो उसके बारे में कोई समाचार ही पा लेने की लालसा ।
"विनोद के घर भी गई होगी ?"
"हाँss...गई तो थी ।" मैंने हिचकिचाते हुए कहा ।
"विनोद मिला होगा ।"---अम्मा ने और भी उत्सुक होकर पूछा फिर कुछ बुझे स्वर में बोलीं---"कुसमा तो खुश होगी कि चलो पीछा छूटा 'डुकरिया' से ..। आदमी उसकी मुट्ठी में है । सास गिरे 'ढाह' से....।" अम्मा की आवाज पीडा से भारी होगई । लगा जैसे शून्य में अकेली ही छटपटा रही हैं ।
"नही अम्मा-"--मैंने कहा-- "मैं जब भी जाती हूँ ,भाभी तुम्हारे बारे में पूछतीं जरूर हैं । आज ही तुम्हारे हाथ के बने मिर्च के अचार की बडी तारीफ कर रहीं थीं ।"
"सच्ची !! तुझे मेरी सौंह ।" --- अम्मा की आँखों में सितारे से झिलमिलाए ।
"हाँ सच्ची अम्मा ! विनोद भैया भी कहते रहते हैं कि हमारी अम्मा ने जैसे बच्चों को पाला है कौन औरत पाल सकती है !"
"विनोद तो मेरा विनोद ही है "---अम्मा गद्गद् होगईं ----"और कुसमा भी ...जुबान की भले ही जैसी हो पर दिल में खोट नही है उसके ।" अम्मा का मुरझाया चेहरा खिल उठा था ।
मुझे यह तसल्ली हुई कि झूठ बोल कर ही सही अम्मा को उम्मीद का एक आसमान तो दे ही दिया था ।

बुधवार, 13 फ़रवरी 2013

सर्वव्यापक


श्वास में ,प्रश्वास में तुम हो 
आस में विश्वास में तुम हो 
अश्रु में या हास में तुम हो 
दो दृगों की प्यास में तुम हो ।

उत्साह का स्फुरण हो 

सम्पूर्णता का वरण हो 
अन्तर के स्वर्णाभरण हो
आराध्य हित जागरण हो ।
वेदना तुम हो, तरल संवेदना तुम हो
देह संज्ञाहीन मैं हूँ ,चेतना तुम हो ।

चुभ रहे हों शूल 

या फिर खिल रहे हों फूल
तुम बसे हर भाव 
पश्चाताप हो या भूल ।
दृष्टि में तुम हो 
चिरंतन सृष्टि में तुम हो 
तप रही हो जब धरा 
घन वृष्टि में तुम हो ।
जीत में हो तुम 
हदय की हार में भी तुम 
उलाहनों में भी , 
मधुर मनुहार में भी तुम ।

विश्व में तुम हो 

अखिल अस्तित्व में तुम हो ।
कोई भी देखले चाहे
हृदय के स्वत्व में तुम हो । 
दर्द में हो तुम 
कि मीठी राहतों में तुम 
धडकनें जिनसे बढें 
उन आहटों में तुम ।

याद में भी हो 
मधुर संवाद में भी हो 
जटिल नीरस निबन्धों के 
सरस अनुवाद में भी हो ।
सभी हालात में तुम हो 
सभी जज़बात में तुम हो 
नही हूँ मैं कहीं कुछ भी 
मेरी हर बात में तुम हो ।

मंगलवार, 12 फ़रवरी 2013

चौंतीस साल पुरानी कविता का मर्म

जयपुर वाली बुआजी के चले जाने का समाचार क्या मिला है मन में अजीब सी बेचैनी भर गई है । वे मेरी छोटी बुआ सास की देवरानी थीं लेकिन हमें ,खास तौर पर मुझे बहुत प्यार करतीं थीं सगी बुआ की तरह ही । दो साल पहले ही वे ग्वालियर से जयपुर जाकर रहने लगीं थीं । वहाँ उनके दो बेटे पहले ही स्थापित हो चुके हैं । फूफाजी  नायब तहसीलदार की नौकरी से रिटायर हो ही गए थे । दो माह पहले मेरे आग्रह पर वे मयंक की शादी में आई थीं । यह उनकी आखिरी भेंट थी यहाँ के सभी लोगों से । जिस शान-शौक ,अपन्त्वऔर उल्लास के साथ उन्होंने जीवन जिया उतनी ही निस्संगता से दुनिया को अलविदा  भी कह दिया ।
उनके बारे में बहुत कुछ है लिखने को । कभी लिखूँगी..।
बुआजी के अचानक जाने से जो अव्यक्त सी विकलता है वह यह कि मैं कई दिनों से उनसे बात करना चाह रही थी । सोचा था कि हमेशा वे ही फोन करके उलाहना देतीं हैं कि 'फोन नही कर सकती ! बहुत बडी होगई है ! भूल गई है ..अब तो.!'..अब उनकी इस शिकायत को मैं दूर कर दूँगी । पर न कर सकी । सोचते, याद करते  बैंगलोर में एक माह बीत गया । और  ग्वालियर भी लगभग एक माह ... । इन दो माह में मैं सिर्फ उनके लिये सोचती रही और सोचती ही रह गई । बुआजी हमेशा के लिये चली गईँ । अमिट सा पश्चाताप और एक पाठ  देकर कि प्रतीक्षा मत करो । समय आपके लिये कभी रुकता नही । जो सोचा है ,अभी अमल में लाने की कोशिश करो । आज अचानक सन् 1979 में लिखी कविता सामने आई तो लगा कि यह कविता  लिखी भले ही चौंतीस वर्ष पहले गई थी पर उसका सही अर्थ अब समझ में आया है । यह कविता उसी रूप में यहाँ है----
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सुबह होगई 
संसार नहा लिया रोशनी में 
रात कहीं जाकर सोगई ।
धूप ! ओ कोमल ,सुनहली धूप !
आ तुझे भरलूँ आँखों में ।
देख सकूँ सारा विश्व
स्पष्ट ...दूर दूर तक 
हटादूँ सारे भ्रम दृष्टि के 
करलूँ दूर कुहासा मन का ।

खेतों ,किनारों और सुदूर मैदानों में 
फैली हुई हरीतिमा !
शीतल ,मृदुल ,उत्फुल्ल हरीतिमा !
आ ,तुझे भरलूँ  हृदय में 
मिट जाए पथरीला उजाड
कंटीले झाड-झंखाड
लहलहाए कोमल फसलें 
उम्मीदों की स्नेह की ।

ओ नदिया की अतुल निर्मल धारा!
कल-कल बहती अविरल धारा !
आ, तुझे लहरालूँ 
अपने मन मरुस्थल में 
मिट जाए ताप-तृषा
तमाम विषमताओं का 
मलाल वृथा
मिटे जमीन का बंजरपन
अंकुराएं  दबे झुलसे बीज ।

ओ उन्मुक्त विहंगिन!
उडती  चहचहाती
आसमान के छोरों को छूती हुई
निश्चिन्त विहंगिन !
आ सिखादे मन को उडना 
उड कर छूना लेना ऊँचाइयों को 
इतना कि देख सकूँ मैं 
घर आँगन या गाँव ही नही 
देश प्रदेश विदेश...सारा विश्व..
अभिन्न, एकरस एक परिधि में ..।

यह सब करना है मुझे 
आज ..अभी  इसी क्षण 
कौन जाने कि ,
बादलों का सघन व्यापार 
आ जमे मेरे व धूप के बीच
कि हरीतिमा को रौंद डाले कोई 
'जानवर'...।
कि रोकले कोई नदी को बीच में ही 
कि  कोई निर्मम कैद करले
विहंगिन की उडानों को ।
या कि ये सब तो हों पर,
मैं ही न रहूँ
इन सबके लिये ..। 

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

सपने पतझर-पात होगए



ठूँठे से दिन-रात होगए ।
झूठे से जज़बात होगए ।
अरमां पंख--विहीन पडे हैं 
सपने पतझर पात होगए ।

जब सब था स्वीकार तुम्हें,
हर मुश्किल आसां थी ।
अब हर रोडा पर्वत सा,
हर राह बियाबां सी ।
अन्तहीन सी बाट रही 
और कितने-कितने घात होगए ।
सपने पतझर पात होगए ।

जिनको पढकर भोर 
महकने लगती थी आँगन ।
शाम सुनहरे शिलालेख
लिखती कोरे से मन ।
जीवन के वे गीत पत्र 
अब तो सपनों की बात होगए ।
सपने पतझर पात होगए ।

एक नदी उतरी थी 
कहाँ हुई गुम ,नही पता ।
 सजा सुनादी सूरज ने भी 
समझे बिना खता ।
सन्नाटे का शोर मचा है 
कैसे ये हालात होगए ।
सपने पतझर पात होगए