शनिवार, 27 जून 2020

बचपन के शिलालेख

(सन् 2001 में लिखा गया एक संस्मरण)
समय की लहरों से मानस तट पर लिखे नाम धीरे धीरे मिट ही जाते हैं . फिर मेरा नाम कौनसा कोई संग्रहणीय शिलालेख है . रेत पर लिखे नाम कौन याद रखता है ...
मैं पहले तो यही सोच रही थी जब लगभग पैंतीस साल बाद उस गाँव में पहुँची थी .ऐसा सोचना निराधार नहीं था .कल्पना के विपरीत मैं वहाँ एक अजनबी की तरह लोगों से जानकारी लेने खड़ी थी .
लगभग पैंतीस साल पहले मैं जब शायद छह-सात वर्ष की थी ,वहाँ खुशी से नहीं गई बल्कि पढ़ाई के लिये ले जाई गई थी . काकाजी (पिताजी) वहाँ के स्कूल में दो साल पहले नियुक्त हुए थे . वह ठेठ पथरीला पहाड़ी गाँव था .शुरु में मुझे वहाँ जाना बहुत अखरा था .
पर धीरे धीरे मैंने सब स्वीकार कर लिया था . गाँव में जल्दी ही मेरे बहुत सारे दोस्त भी बन गए . केसन , गन्धू , आसा ,रामरती केसकली ,पुरन्दर , भूरी आदि कुछ नाम अब भी याद हैं .
बचपन के दिन कितने ही मुश्किलों और अभाव भरे हों पर बचपन की यादें हमेशा बड़ी खुशनुमा होतीं हैं उस जगह को हम कभी भूल नहीं पाते जहाँ बचपन बीता हो . उस गाँव में बीते तीन साल मेरे लिये खूबसूरत छोटी सन्दूक जैसे हैं जिसमें कई अनमोल चीजें सहेज रखी हैं . मैं रास्ते भर उन दिनों को याद करती रही कि कैसे हम लोग गोला का मन्दिर’ (रेलवे स्टेशन) से छोटी लाइन में बैठकर रिठौरा उतरते थे फिर बड़बारी के लिये पगडण्डियों पर मैं लगभग दौड़ दौड़कर चलते हुए काकाजी का पीछा किया करती थी क्योंकि उन्हें तेज चलने की आदत थी . .
उस दिन यही सब याद करके बस से उतरते हुए मन उल्लास और पुलक से भरा था . मेरी वर्षों की लालसा पूरी होने जा रही थी . मैं एक बार फिर वह स्कूल देखना चाहती थी जिसका एक छोटा सा कमरा हमारी पूरी दुनिया हुआ करती थी . जहाँ काकाजी ने मेहनत करके सूखी पथरीली जमीन में फूल खिलाए थे . जहाँ सिरस (शिरीष) का एक बड़ा पेड़ था जिसके सुनहरे रेशे वाले फूल पूरी हवा को महक से भर देते थे .पता नहीं कासिम दादा और उनकी वह झोपड़ी अब भी होगी या नहीं जिसमें मैं अक्सर सफेद रेशम से मुलायम रोओं वाले चूजे देखने जाया करती थी . मैं उस तालाब की लहरें गिनना चाहती थी जिसकी ऊँची ऊँची नीली लहरें सुन्दर कम डरावनी अधिक लगतीं थीं . बारिश में जिसकी पार की चिकनी मिट्टी बहुत फिसलन भरी हो जाती थी .काकाजी कहते थे --गीली मिट्टी में पैरों के अँगूँठे गड़ाते हुए चलना चाहिये .ताकि फिसलन से बचा जा सके .
मैं खजूर की झाड़ियों से घिरे उस कुँआ को भी देखना चाहती थी जो गाँव भर के लिये पानी का एकमात्र साधन था और जहाँ से पानी लाना दैनिक कार्यों में सबसे कठिन और शाम के बाद बड़े साहस ...नहीं ,दुस्साहस का काम माना जाता था क्योंकि अँधेरा होते ही वहाँ डाकू आते हैं , ऐसा सब लोग कहते थे . अब डाकू समस्या तो नहीं ही होगी .....आहा, क्या वह नीम का पेड़ भी अभी होगा जिसकी नीची शाखों पर बैठकर हम गा गाकर गिनती पहाड़े और हिन्दी के मायने याद करते थे ? और हाँ वह अलाव भी मेरी स्मृतियों का खूबसूरत हिस्सा है जहाँ शाम को लोगों के बीच बैठकर काकाजी देर रात तक 'नील-सरोवर' और 'रूप-वसन्त' ,राजा हरिश्चन्द्र और सिंहासन बत्तीसी जैसे तमाम किस्से कहानियाँ सुना करते थे . सरपंच काका की बतखों और कमला पति के आतंक को कैसे भूल सकती हूँ .
क्वार-कार्त्तिक में धान के हरेभरे खेतों से उठती खुशबू , बगुलों की पाँतें और उन्ही की रंगत के तलैयों में खिले फगुले ( सफेद कमल) , साफ पानी से लहलहाता तालाब .. टेसू के फूलों से लदा हुआ शनीचरा का जंगल जिससे गुजरते हुए हर शनिवार हम साइकिल से बानमोर के पास उस गाँव आते थे जहाँ माँ की सर्विस थी . यह सब मेरे मानस पटल पर एक खूबसूरत चित्र की तरह अंकित है . डाकुओं के भयावह किस्से उस समय भय और आज मनोरंजक कहानी जैसे लगते हैं . ....खूबसूरत यादें हमारी अनमोल पूँजी होतीं हैं . मैंने वे सहेजकर रखी हैं . उन्हें एक बार फिर ताजी करने जा रही थी .
बस से उतरकर चारों ओर देखा तो लगा कि मैं कहीं गलत जगह पर तो नहीं उतर गई . आस पास कितने खेत हुआ करते थे . यहाँ तो तमाम फैक्टरियाँ बसी हुई थीं . टेसू के हल्के सिन्दूरी फूलों की जगह गुलमोहर ने सुर्ख लाल गुच्छों ने ले ली है . अच्छा यही मालनपुर है . तब छोटा सा गाँव हुआ करता था . मुझे याद है कि बस के लिये हम मालनपुर जाते थे और रेल के लिये रिठौरा . बड़बारी इन दोनों के बीच में है .पर अब दिशाएं ही गड़बड़ लग रही थी . कंकरीली पगडण्डी की जगह पक्की सड़क थी . बड़बारी किधर है ? क्या वह ऊँचाई पर बसा छोटा सा गाँव ?
हाँ हाँ वही बड़बारी है .”--एक आदमी सरसरी निगाहों से देखता हुआ बता गया . सड़क से गाँव तक का रास्ता अभी तक कंकड़ पत्थरों वाला था . आसपास झरबेरियाँ खड़ी थीं और खदानों के गड्ढे भी वैसे ही गहरे थे जो बारिश में पानी भरने पर खतरनाक हो जाते थे . यह सब उस गाँव के बड़बारी होने की पुष्टि कर रहे थे .
गाँव की गलियाँ शान्त थीं . दूर कहीं लाउडस्पीकर पर कोई लोकगीत सुनाई दे रहा था . कुछ पलों के लिये लगा कि मैं सचमुच अजनबी जगह पर आ गई हूँ . इतने सालों कौन किसको याद रखता है . वैसे भी मैं यहाँ परिचय के लिये नहीं बल्कि शिक्षाकर्मियों की नियुक्ति विषयक जानकारी लेने आई हूँ .परिचय तो कहीं धूल में दबकर मिट ही गया होगा . फिर भी मन में कौतूहल और मोह था . इधर ही कहीं केसन (कृष्ण) का घर था . केसन जाटव जो मेरा सहपाठी था जो अपने पीले दाँतों के लिये गुरूजी से खूब डाँट खाया करता था . आसपास ही मुरली कोरी भी रहता था जो काकाजी का परम मित्र और भक्त था . उदयसिंह कक्का , करन सिंह दद्दा क्या अब होंगे ?..रामबरन ,आसाराम ..कहाँ कैसे होंगे ...कोई तो दिखता ...बचपन की छोटी उथली सी गलियाँ अब कहाँ थीं . एक दो महिलाएं घूँघट की झिरी से झाँकती हुई चली जा रही थीं . बच्चे मुझे सुई लगाने वाली बाईसमझकर छुप रहे थे . चबूतरों पर झोपड़ियाँ डालकर बैठे अधेड़ और बूढ़े लोग मुझे सवालिया नजरों से देख रहे थे .परिचय का भाव तो कहीं नहीं था . कोई तो मुझे पहचान लेता ..तब मुझे लगा कि समय के साथ सब धूमिल होजाता है . खैर मुझे अपने काम के लिये सरपंच से तो मिलना ही था .
अरे भैया जरा सुनो .” –मैंने एक अधेड़ से आदमी को पुकारा जो भूसे का गट्ठर सिर पर लादे जा रहा था ये रामबरन जी कहाँ मिलेंगे ?”
क्या काम है रामबरन से ?” ---–उसने मुड़कर कुछ जिज्ञासा के साथ देखा .
मैं ही रामबरन हूँ .
रामबरन .....!”---हवा एक तेज झोंका आया और आसपास की सारी धूल जैसे मेरी आँखों में भर गई .कहाँ मेरी स्मृतियों में रामबरन एक किशोर , हमेशा साफ -सुथरा चुस्त-दुरुस्त रहने वाला काकाजी का सबसे प्रिय शिष्य और कहाँ यह काम के बोझ से थका हारा सा अधेड़ !..अजनबी !! ..समय की धूप में मुरझाया ..बत्तीस साल का अन्तराल ..
तो क्या उस धूप ने मुझे नहीं बदल दिया होगा ?” मुझे भी तो भला कोई कैसे पहचानेगा .
मुझे पहचाना ?....नहीं ?
".........."
"याद करो .उन दिनों जब तुम कक्षा पाँच में थे और मैं .... अपने .गुरुजी याद हैं....?”
अरे ! तुम गिरिजा हो ?”–-उसकी आवाज में अविश्वास और जिज्ञासा के साथ कुछ पुलक भरी मिठास भी थी . तेज रोशनी से जैसे सारा अँधेरा तिरोहित होगया . पैरों में झुकते हुए बोला –--“इतने सालों बाद इधर कैसे भूल पड़ी बहिन ?”
" यहाँ सरपंच जी से मिलना था "
" मिलवा देंगे , पहले घर चलो "
फिर तो न सवालों का अन्त था न जबाबों का .अब मेरे सामने वही किशोर सहपाठी था , काकाजी का भक्त .शादी के समय जिद पर अड़ गया था कि गुरुजी बारात में नहीं जाएंगे तो वह ब्याह ही नहीं करेगा . माँ ने उसकी शादी में खूब गीत गाए थे ... क्या दिन थे वे . समय का अन्तराल मिट गया था . आनन फानन में मूँज की खाट पर नई दरी चादर डालदी गई .. हाथ का बुना बीजना लेकर भाभी आगई ..बेटी गाढ़े दही की लस्सी बनाकर ले आई . वह उल्लास के साथ बता रहा था –--“ ये बहिन जी है ..पहचानो ..अरे वही अपने गुरूजी की बेटी . मास्टरनी हैं ...अच्छा ! अरे ! ये हैं ? ...ओ हो गिरिजा बहिन जी ...?”
इसके बाद एक भीड़ ने मुझे घेर लिया . सब काकाजी को याद कर रहे थे . अतीत सामने था .मैं हैरान हुई देख रही थी कि क्या बदला है ! बस महाराणा प्रताप जैसे दिखने वाले उदयसिंह कक्का की बड़ी बड़ी आँखों पर मोटा चश्मा लग गया है . पर मूँछे एकदम सफेद होगई हैं पर आवाज अब भी वैसी ही रौबीली है . मानसिंह काका तो दुबले ही थे पर बाल पूरी तरह सफेद होगए हैं ..काकी का चेहरा कुछ झुर्रा गया है . रसाल भैया वाली भाभी अब भी उतनी ही गोरी और सुन्दर हैं . कमाल है .तो क्या तब बचपन में ही ब्याह कर आगईं थीं !
शायद बचपन में हमें जो काफी उम्रदराज लगते हैं ,वे होते नहीं . मुझे अपनी माँ जैसी बचपन में दिखती थीं वैसी ही अपनी युवावस्था में लगतीं थीं और बाद में भी ..या कि शायद मुझे ऐसा लगा हो ...आसाराम की हँसती हुई मुखाकृति पर मूँछे बनावटी लग रही थीं ,भूरी के बाबा झुक कर चलने लगे थे .रामरती केसकली सब ससुराल में थीं .मैं चकित थी .मुझे लग रहा था कि यह सब पिछले जन्म की बात है .कल्पना भी नही थी कि इतने साल बाद ये सब लोग मिलेंगे . करनसिंह दद्दा चले गए . करतारा की अम्मा अपनी खुरदरी हथेलियों से बार बार मेरे बाल सहला रही थीं . रूखी हथेलियों में उभर आए काँटे मुझे चुभने की बजाय स्नेहमय कोमलता का अहसास करा रहे थे . मानोमौसी पीठ की पसलियों पर हाथ फिराती कहे जा रही थीं---लली कितनी दूबरीहैं . कुछ खाती पीती नहीं . चिन्ता तो नही करती पर चिन्ता काहे की ? सरकारी नौकरी है . लल्लू भी ( मेरे पति) भी स्यातमास्टर हैं .घर का मकान है .बच्चे पढ़ रहे हैं ..
अरे तो का मास्टर साब को नहीं देखा, डेढ़ पसुरिया के थे .” –काकी ने हँसकर कहा . वे बड़े स्नेह से काकाजी को जबरन भोजन कराया करती थीं .
मन में कई सवाल थे जिनके उत्तर मिले कि तालाब सूख गया है उसमें खेती होती है .पानी भरने अब कुँआ पर जाने की जरूरत नहीं घर घर नल लग गए हैं .कासिम दादा अब नहीं है . नए लड़के ज्यादातर ग्वालियर जाकर बस गए हैं . अधिकतर खेत फैक्ट्रियों में बदल गए हैं . लोग भी खेती करने की बजाय फैक्ट्रियों में काम करना ज्यादा पसन्द करते हैं .
बाई साब तुम तो जहीं आ जाओ . बच्चनि कौ उद्धार हुइ जावैगौ .”—कई आवाजें एक साथ उभरीं . पता चला कि स्कूल फिर से उसी दशा में था जिसमें काकाजी के आने से पहले था . शिक्षक हफ्ते में दो-तीन दिन आते हैं . आकर भी कौनसा पढ़ाते हैं ..बच्चों को दो तीन घंटे घेरकर ,हाजिरी भरकर छुट्टी कर जाते हैं और टिकते भी मुश्किल से साल डेढ़ साल ..तबादला करा ले जाते हैं . जम कर रहें तो पढ़ाने में मन लगे ..
मैंने देखा उन्नति के नाम पर चलाए गए अभियानों में फोन और टीवी तो घर घर में होगए हैं पर शिक्षा के नाम पर केवल दिखावा रह गया है .मध्याह्न भोजन योजना और शत-प्रतिशत परीक्षा परिणाम की अनिवार्यता ने पढ़ाई को बहुत पीछे छोड़ दिया है .
सबके बीच दो-तीन घंटे कब बीत गए पता ही न चला . मैंने सरपंच को अपने आने का उद्देश्य बताया जो एक शिक्षाकर्मी की नियुक्ति से सम्बन्धित था .और सबसे विदा ली . सब लोग नंगे पाँव ही मुझे गाँव के बाहर तक छोड़ने आए . सबकी आँखें स्नेह से छलकी जा रही थीं . पीछे देखते हुए मेरी दृष्टि भी धुँधला रही थी .
तब मुझे महसूस हुआ कि मन के गीले आँगन में उकेरे गए हस्ताक्षर समय की धूल में छुप भले ही जाएं पर मिटते नहीं हैं . कभी नहीं .
सन् 2001 में लिखित
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4 टिप्‍पणियां:

  1. अति सुन्दर .. दिल को छूने वाला संस्मरण

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  2. आभार अनीता जी . आपके आने से सार्थक हुआ लिखना

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  3. अलादीन के आश्चर्य दीपक की तरह एक एक करके यादों का ख़ज़ाना खुलता चला गया... बचपन के बिछड़े लोगों का अतीत के अलबम में पुरानी तस्वीरों को देखने जैसा लगता है... बोलती तस्वीरों सा... यह संस्मरण पढ़ते हुये ऐसा लगा मानो रेशम की थान खुल गयी है और सम्भालने पर आपका कोई नियंत्रण नहीं!!

    पढ़ते हुये इतनी खुशी हुई, तो आपको उस घटना का साक्षी बनकर कैसा लगा होगा, यह कल्पना से परे है!!

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  4. आप रचना पढ़ते हैं अपनी प्रतिक्रिया लिखते हैं तो रचना परिपूर्ण होजाती है

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