मंगलवार, 14 मई 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा --3

भारत का प्रथम गाँव .

तीन दिन धूप के दर्शन नहीं हुए .कप़ड़े सुखाने तक के लाले पड़ गए .लेकिन चौथे दिन धूप आई किसी बहुप्रतीक्षित अपने की तरह . स्वागत के लिये लोग बाहर निकल पड़े .हिमाच्छादित शिखरों पर चाँदी बिखर गई .निष्पन्द मौन पड़ी गलियाँ , बाजार सब जाग गए . चेहरे खिल गए .अलगनी मुँडेरों , दीवारों पर कपड़े फैल गए . सूर्यदेव स्वामी हैं ग्रहों के ,धरती के , सबके जीवन के , प्रकृति के सारे कार्यकलाप सूर्य से चलते हैं . तीन दिन बाद आई धूप हमें यही समझा रही थी . यह भी कि बिना दुख के सुख , बिना खलनायक के नायक , बिना गर्मी के वर्षा या सर्दी के और बिना धूप के छाँव महत्त्व का पता नहीं चलता .

आसमान साफ हुआ तो आसमान में पीले लाल सफेद नीले हैलीकॉप्टर मँडराने लगे . रास्ते खुले तो पाँव चल पड़े . असल में बद्रीनाथ धाम में दर्शनार्थ भगवान बदरीविशाल का मन्दिर तो प्रमुख है ही ,साथ में और भी अनेक दर्शनीय स्थान हैं जिनमें माना गाँव , व्यास गुफा , भीम पुल , सरस्वती नदी ,वसुधारा जलप्रपात आदि स्थान पहले से आते रहे लोगों ने बताए .हमने माना गाँव देखना तय किया .वहीं भीम पुल ,सरस्वती नदी और व्यास गुफा भी हैं यानी एक पन्थ चार काज .

लगभग 17000 फीट की ऊँचाई पर बसे माणा गाँव को कई पौराणिक रहस्यों वाला गाँव माना जाता है . यहाँ से पांडवों ने स्वर्गारोहण किया तथा यहीं व्यास जी ने महाभारत की रचना की . गाँव का माणा नाम मणिभद्र देव के नाम पर पड़ा है . यहाँ रडंपा जाति के मेहनती और खुशमिजाज लोग रहते हैं . उत्तर दिशा के इस कोण में यह भारत का आखिरी गाँव है . इसलिये इसे पहले अन्तिम गाँव ही कहा जाता था .  2022 में मोदी जी ने इसे प्रथम गाँव कहा . तबसे इसे प्रथम गाँव के नाम से जाना जाता है .


हम जैसे ही कार से उतरे कई दुबले पतले बच्चे बूढ़े ( जो उम्र से जवान थे वे भी तन से बूढ़े ही लगते थे) डोली (पिट्ठू)पीठ पर बाँधे आगे बहुत ऊँचे और कठिन रास्ते

का वास्ता देते हुए डोली लेने मनुहार कर रहे थे .मुझे तो पैदल ही जाना था लेकिन जो बैठना चाहते थे ,वे उनसे घिस घिसकर मोलभाव कर रहे थे . ग्राहक छूट न जाए इस बेवशी में वे कम से कम दाम पर भी तैयार होजाते थे .यही उनकी जीविका है . वे यात्रियों की प्रतीक्षा करते हैं . एक भारी भरकम सवारी ,जिसने मोलभाव करके किराया काफी कम करा लिया ,को पीठ पर लादे एक दुबले से युवक को देख हृदय में बड़ी हलचल मच रही थी . 
असहाय बीमार लोगों को तो विवश होकर पिट्ठू लेना ही पड़ता है .स्वस्थ लोगों को भी ले लेना चाहिये लेकिन उस पर मोल भाव करना मुझे बहुत निकृष्ट लगता है . होटलों पार्लरों में बिना हील हुज्ज़त किये हजारों रुपए शान से देने वाले लोगों को ऐसी जगह बचत सूझती है . नही सोचते कि आखिर वे आपका वजन उठा रहे हैं .कीमत से कहीं बढ़कर बात है यह . ये लोग किसी अभाव के लिये ईश्वर से शिकायत नहीं करते . जो मिला है उसे स्वीकार करते हैं इसलिये मुक्त रहते हैं .
अलकनन्दा


भीमपुल

माना गाँव में घूमना एक अद्भुत अनुभव हैं .साफ सुथरे ऊपर चढ़ते हुए चट्टानी रास्ते जिन्हें चढ़ते हुए साँस फूलती है लेकिन दोनों तरफ रंगबिरंगे परिधानों में वृद्धा हों , युवती हों या किशोरी स्वेटर मौजे टोप मफलर बुनते हुए देख हृदय गद्गद होता है .पहाड़ों में विपन्नता (भौतिक रूप मे) के बीच भी उनके चेहरों में धैर्य और सन्तोष देखकर विस्मय भी .हिमालय की गोद में पल बढ़ रहे ये लोग सृजन और परिश्रम से अपने समय को सार्थक बनाते हैं .इनके अलावा दूसरी दुकानें अनेक दुर्लभ जड़ी-बूटियों रस्सी की कलाकृतियों और बुरांश के गहरे गुलाबी शरबत की बोतलों से सजी थी . गाँव के शिखर पर व्यास पोथी , गणेश मन्दिर , माता मन्दिर और व्यास गुफा है . व्यास पोथी देख आश्चर्य होता है .चट्टान की परतें किसी पुस्तक जैसी ही ही लगती है . कहा जाता है कि यहीँ वेदव्यास जी ने महाभारत जैसा महान ग्रन्थ लिखा था .ऐसा सृजन पर्वत की शान्त नीरव गोद में गहन मनन चिन्तन के बाद ही हो सकता है व्यास गुफा में उस समय कृष्ण भजन गाए जा रहे थे .बड़ा ही पवित्र वातावरण था .

वहीं पास एक चाय की दुकान है . बोर्ड पर लिखा है –'भारत की अन्तिम चाय की दुकान. एक बार सेवा का मौका अवश्य दें .’  यह  न भी लिखा होता तब भी मैं ज़रूर वहाँ चाय लेना चाहती . ऐसी दुर्गम जगहों में लोग यात्रियों की प्रतीक्षा करते हैं .बिक्री से ही उनकी रोजी रोटी चलती है . यात्रियों को कुछ न कुछ अवश्य लेना चाहिये . हम सबने वहाँ चाय पी . मैगी बिस्किट व समोसा आदि नाश्ता भी ड्राइवर संजय और रवि ने नाश्ता भी लिया ...फिर नीचे उतरकर भीम पुल देखा .कहा जाता है कि द्रौपदी को नदी पार कराने के लिये भीम ने यह पुल बनाया था .पाण्डव स्वर्ग जाने के लिये इसी पुल से निकलकर गए थे ..वहाँ चट्टानों के बीच से बहती धारा को सरस्वती नदी का उद्गम बताया जाता है . कुछ ही दूर आगे चलकर सरस्वती की धारा अलकनन्दा में समा जाती है . दोनों नदियों का संगम स्थल केशवप्रयाग कहा जाता है .

लौटते हुए मैंने बुराँश के शरबत की दो बोतलें खरीदी . साथियों ने भी कुछ न कुछ सामान खरीदा .सचमुच माना गाँव को देखे बिना बद्रीनाथ धाम यात्रा पूरी नहीं होती . 

आगे भी जारी....    

6 टिप्‍पणियां:

  1. तीनों संस्मरण पोस्ट एक साथ पढ़ी आनन्द आ गया ।अति सुन्दर संस्मरण ।

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  2. अब तो भारत की पहली चाय की दुकान लिखवा लेना चाहिए, अति रोचक व सुंदर तस्वीरों से युक्त यात्रा वृत्तांत !

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