गुरुवार, 4 अक्टूबर 2012

लोकार्पण---एक रपट


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1 अक्टूबर 2012 को 'ध्रुवगाथा' और 'अपनी खिडकी से' का लोकार्पण होना था सो होगया । इसकी सूचना तथा अखबार से लिया गया छायाचित्र मयंक ने और बाद में सुश्री कुन्दा जोगलेकर ने पहले ही फेसबुक पर डालकर मेरा काम पूरा कर दिया ।  वही सूचना यहाँ भी है ।
लोकार्पण में जो विशेष बात थी वह यह कि मुझे कुछ विशेष नही करना पडा । फोन सूचना से ही शहर के अनेक सहृदय साहित्यकार  जो थोडा बहुत मुझे जानते थे ,आगए थे । सारी व्यवस्था आदरणीया श्रीमती अन्नपूर्णा जी  ने की थी । उसमें अंजेश मित्तल जी ,भाई लोकेन्द्र सिंह (ब्लाग 'अपना पंचू' ) और मेरे पुत्रतुल्य मोनू व हनी का विशेष सहयोग रहा । पुस्तकों का लोकार्पण  डा.पूनम चन्द तिवारी( पूर्व हिन्दी विभागाध्यक्ष जी.वि.वि.) ,डा. जगदीश तोमर( वरिष्ठ साहित्यकार एवं निदेशक प्रेमचन्द सृजन-पीठ उज्जैन) डा. दिवाकर विद्यालंकार जी(प्रकाण्ड विद्वान एवं शिक्षाविद्)डा.अन्नपूर्णा भदौरिया(हिन्दी विभागाध्यक्ष जी.वि.वि.) एवं श्री प्रकाश मिश्र जी ( कविता के सशक्त हस्ताक्षर ) ने किया । इन विद्वान साहित्यकारों ने जिस तरह दोनों पुस्तकों की विस्तार से समीक्षा व प्रशंसा की , मुझे विश्वास नही हो रहा था कि यह सब मेरी रचनाओं के विषय में और मेरे लिये कह रहे हैं । डा. विद्यालंकार जी ने ध्रुवगाथा पर एक विस्तृत वक्तव्य देते हुए कहा कि ध्रुवगाथा को उन्होंने एक ही बैठक में पढ डाला । बिना रुके बिना ऊबे । जब किसी लेखक और पाठक की अनुभूतियाँ एकाकार होजातीं है उसे रचना का साधारणीकरण (जनरलाइजेशन) कहते हैं । ध्रुवगाथा पढते समय उन्हें यह तीव्रता से महसूस हुआ और कई बार उनकी आँखें नम हुईं । डा. जगदीश तोमर ने 'अपनी खिडकी से' कहानी संग्रह को एक अद्भुत और अरसे बाद सामने आया एक पठनीय कहानी-संग्रह बताया साथ ही पतंग ,आज्ञा का पालन, बिल्लू का बस्ता आदि कहानियों की विस्तार से चर्चा की । श्री प्रकाश मिश्र जी व डा. अन्नपूर्णा दीदी ने भी मुक्त-कंठ से दोनों पुस्तकों को अत्यन्त रोचक स्तरीय व स्वागत योग्य कृति बताया ।
इस बीच कुछ कमियाँ भी अखरीं । जैसे कि बैंगलोर से तीनों भाई शिकायत कर रहे थे कि कार्यक्रम  इतनी जल्दी में क्यों रखा गया कि हममें से कोई न आ सका । मेरे पास कैमरा था लेकिन पर्स से निकालने का ध्यान ही न रहा । यह फोटो मैंने कहीं से माँग कर लिया है ।  जिन्हें अध्यक्षता करनी थी वे एक हडताल में फँसे रहे और अन्त तक न आ सके । लोकार्पण के लिये रखी गई पुस्तकें रंगीन पेपर में लपेट कर रखी जातीं हैं यह मुझे मालूम ही नही था । अन्नपूर्णा दीदी ने मुझे अचरज से देखते हुए कहा -- "अरे गिरिजा , तुम्हें आज तक यह भी नही मालूम !" 
वह  तो  ऐन मौके पर भाई  लोकेन्द्र सिंह व मोनू के प्रयासों से बात सम्हाल ली गई ।और एक कमी यह भी लगी कि ग्वालियर  में हिन्दी भाषा व साहित्य जगत के  भीष्म पितामह कहे जाने वाले डा. पूनमचन्द तिवारी जी को बोलने का अवसर नही दिया गया । 'खजुराहो' के रचयिता डा. तिवारी जी नब्बे साल से ऊपर के हैं ( दाँए से दूसरे )पर उनमें जितना हिन्दी के प्रति समर्पण भाव है उतनी ही सक्रियता भी है । वे जब बोलने खडे होते हैं सबसे पहले पूछते हैं --"आपकी माँ कौन है ? हिन्दी या अंग्रेजी ?"  और फिर एक लम्बा व्याख्यान शुरु । कार्यक्रम कोई भी हो अगर तिवारी जी बोलेंगे तो देश में हिन्दी की दुर्दशा पर जरूर बोलेंगे । अब हाल यह है कि किसी कार्यक्रम में तिवारी जी आते हैं तो आयोजक पहले ही कहदेते हैं, " क्या !! तिवारी जी का भाषण ??,ना भैया भूल कर भी ऐसा न करना । आधा -पौन घंटा खा जाएंगे ।" पर मेरा विचार है कि इतने वयोवृद्ध विद्वान को हमें जरूर सुनना चाहिये । उनकी सन्तुष्टि  के लिये ही सही । वे तो कगार पर खडे हैं । आँखों में बच्चों की सी लालसा व भोलापन है । पता नही कब वह आवाज कहीं खोजाए । वे हर जगह पहुँच जाते हैं यह क्या कम है । मुझे भी आपाधापी में ख्याल न रहा वरना संचालिका कादम्बरी जी से  जी से कह ही देती । सम्मान ग्रहण करके वे जब बिना बोले चले गए तब मुझे अहसास हुआ कि शायद वे बोलने का अवसर न मिलने के कारण रुष्ट होगए । मुझे कुछ ठीक नही लगा पर कुछ लोगों ने कहा --"अरे ठीक है  सब समय से निपटगया । वरना अभी आधा पौन घंटा जाता ।"
खैर कार्यक्रम के लिये मैं जैसा सोच रही थी उससे कुछ ठीक ही होगया । 

11 टिप्‍पणियां:

  1. श्री जगदीश जी ने बाद में भी अपनी खिड़की की बहुत तारीफ की... आज ही की बात है इस किताब को लेकर काफी देर तक हमारी बातचीत हुई... बाकी शानदार कहानियां हैं इसमें

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  2. बहुत बहुत बधाई, वास्तविक उत्सव तो शब्दों में है।

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  3. मुझे भाई लोकेन्द्र सिंह से ईर्ष्या हो रही है कि मैं वहाँ नहीं था.. साथ ही खुशी भी कि दोनों पुस्तकें मुझे उसी दिन डाक द्वारा प्राप्त हुईं और मैंने दीदी को फोन से बधाई दी. लोकार्पण समारोह की रिपोर्ट बहुत अच्छी लगी.. इस तरह की भूलें और त्रुटियाँ ही तो आयोजन को मौलिकता प्रदान करती हैं, अन्यथा सब कुछ कृत्रिम सा लगता है..
    ध्रुवगाथा तो घर आते ही मैंने सबको पढकर (सस्वर पाठ करना कहना उचित होगा)सुनाई. सब मुग्ध थे और मैं एक अद्भुत आनंद का अनुभव कर रहा था. कितने सालों बाद ऐसी रचना मिली पढ़ने को. बस अब इसकी एक समीक्षा लिखना बाकी है. दीदी, बहुत कुछ सीखने को मिलता है आपके लेखन से.. सबसे बड़ी बात तो यह कि इतना होने पर भी आप स्वयं को 'कुछ नहीं' की दृष्टि से देखती हैं. यह आपका बड़प्पन है.
    बस अगले अंक में मुलाक़ात होगी!

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  4. बधाई गिरिजा जी.. अपनी रचनाओं की तरह उसी सहज सरलता से आपने लोकार्पण का भी वर्णन किया है। आशा है इन पुस्तकों से हिन्दी जगत समृद्ध होगा।

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  5. दीदी,
    स्पैम चेक कर लिया करें.. आपका अनुज वहीं सिसकता रहता है!!

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  6. आप सबका विश्वास मुझे उल्लास से भर देता है । धन्यवाद तो छोटा शब्द है । सलिल जी ,मैं जानती हूँ कि मेरे इस अनुज की टिप्पणियों से तो मेरा ब्लाग समृद्ध है इसलिये मैं जब भी ब्लाग पर आती हूँ पहले स्पैम ही देखती हूँ ।

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  7. सबसे पहले तो मैं माफ़ी मांगूंगा, की आपके मेल का मैंने जवाब नहीं दिया...अभी आपके ब्लॉग पर आया तो एकाएक ख्याल आया की आपको जवाब देना भूल गया मैं....जल्दी जवाब देता हूँ...

    बहुत बहुत बधाई आपको...रिपोर्ट बहुत अच्छी लगी!!

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  8. didi bahut bahut badhayi ho aapko... jab facebook par ye post padi thi to aise khushi anubhav ki jese meri hi koi uplabdhi ho, bas ab me in dono kratiyon ko padna chahti hu jald se jald..
    Me ghar aa rahi hu or is bar aapse lekar hi jaungi :) :)

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  9. कृपया मेरी बधाई भी स्वीकार करने का कष्ट करें। पुस्तक पढ़ने की इच्छा हो रही है।

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