अनन्त जलराशि
ह्रदय में समेटे
अविराम बहती है .
धरती को अमृत से
अनवरत सींचती है
माँ जैसा भाव लिये ,
साँस लेते हैं
कितने ही जीवन
लेकिन तब भी नहीं होती है
क्षीण , मन्थर..
उसकी सींचने की प्रवृत्ति
धरती को अमृत से
अनवरत सींचती है
माँ जैसा भाव लिये ,
चुपचाप बहती है ।
चट्टानों, रोडों को
अनजाने मोडों को
निर्विकार सहती है ।
अनजाने मोडों को
निर्विकार सहती है ।
माँ एक नदी ,
साँस लेते हैं
कितने ही जीवन
उसकी गोद में
आराम से .
धरती का सौन्दर्य
धरती का सौन्दर्य
हराभरा रहता है .
धारा में पानी के साथ साथ
धारा में पानी के साथ साथ
विश्वास बहता है .
हालाँकि
नदी के शान्त विस्तार में
उभर आते हैं जब कई टापू
यहाँ--वहाँ
तोअविभाजित बहने का
उसका संकल्प
बिखर जाता है , जाने कहाँ
नदी बँट जाती है ,
कई धाराओं में
धाराएं होतीं जातीं हैं
क्रमशः क्षीण ,मन्थर...
तोअविभाजित बहने का
उसका संकल्प
बिखर जाता है , जाने कहाँ
नदी बँट जाती है ,
कई धाराओं में
धाराएं होतीं जातीं हैं
क्रमशः क्षीण ,मन्थर...
सूखने लगता है
किनारों का विश्वास
किनारों का विश्वास
लेकिन तब भी नहीं होती है
क्षीण , मन्थर..
उसकी सींचने की प्रवृत्ति
नहीं भूलती नदी भी
धरती को नम और हरी भरी
धरती को नम और हरी भरी
बनाए रखने का संकल्प
पानी की आखिरी बूँद तक .
माँ की ही तरह..।
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पानी की आखिरी बूँद तक .
माँ की ही तरह..।
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जी, अद्भुत! अद्भुत! अद्भुत।
जवाब देंहटाएंबहुत ही मार्मिक एवं प्यारी रचना। बिल्कुल एक नदी की तरह कलकल बह रही है। हमारे दृष्टि से वो हमारे जीवन में वो बहुत खूबसूरत दुनिया हैं....पर वाकई उनका जीवन बहुत ही कठिन होता है...एक निरंतर बहती नदी की तरह..बिल्कुल सही लिखा है आपने।
धन्यवाद प्रकाश जी ,कि आप यहाँ आए .
हटाएंउसकी धारा में यहाँ--वहाँ
जवाब देंहटाएंतब अविभाजित बहने का
उसका संकल्प
बिखर जाता है , जाने कहाँ
नदी बँट जाती है ,
कई धाराओं में
धाराएं होतीं जातीं हैं
क्रमशः क्षीण ,मन्थर...
सूखने लगता है
किनारों का विश्वास----अच्छी और गहरी रचना...।
नदी से माँ की तुलना वो भी इतनी गहन व्याख्या के साथ हर पंक्ति अपने में पुरा भावार्थ समेटे ,नदी का बटना धराओं का क्षीण होना पत्थर की रुकावटें अद्भुत! फिर भी नदी कहां छोड़ती अपना गुण बस धरा को नम रखती है एक माँ जैसे अन्तित क्षण तक अपनी स्नेह आशीष और बच्चों के लिए शुभ की कामना के साथ।
जवाब देंहटाएंअप्रतिम सृजन।
धन्यवाद कुसुम जी .
हटाएंबंटकर भी नहीं बंटती वह और अक्षुण्ण रहता है उसका संकल्प ! मातृ दिवस पर सुंदर सृजन !
जवाब देंहटाएंआभार अनीता जी .
हटाएं
जवाब देंहटाएंअति सुन्दर एवं मनभावन कृति ।
बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंनदियाँ बंट जाती हैं पर फिर भी पूर्ण रहती हैं ...
जवाब देंहटाएंमाँ भी नदी ही है ... माँ के प्रवाह को बाखूबी जीवन में उतारा है आपने ... जो बहता है सतत खून जैसे धमनियों में ... बहुत सुन्दर रचना ...
आपका यहाँ आना और रचना विषयक कुछ लिखना रचना को एक स्तर देता है .
हटाएंइतिहास गवाह है कि विश्व की उन्नत सभ्यताएँ नदियों के तट पर विकसित हुई हैं... चाहे वो नील नदी की सभ्यता हो या सिंधु घाटी की सभ्यता... और जब से हमने नदियों का निरादर आरम्भ किया है तब से हमारी सभ्यता का अधोगमन प्रारम्भ हो गया है। नदियों को माँ कहना भी हमारी परम्परा का अंग रहा है... आपने मातृ दिवस पर इस कविता में नदियों के दोनों स्वरूप को पिरोया है... हर बार की तरह आपकी किसी भी रचना पर टिप्पणी करने के लिये बहुत साहस की आवश्यकता होती है मुझे!!
जवाब देंहटाएंपर आपकी टिप्पणी रचना को पूर्ण और सार्थक बना देती हैं .इससे अधिक क्या कहूँ .
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