मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

माँ मेरी सुनो !!!

माँ तुम मेरी सुनो 
मत सुनो अब उनकी
जो कहते हैं कि ,
बेटी को आने दो
खिल कर मुस्काने दो ।
बेटे-बेटी का भेद मिटा कर
समानता की सरिता लहराने दो
वे लोग तो कहते हैं बस यों ही
नाम कमाने
कन्या-प्रोत्साहन के नाम पर
इनाम पाने ।
माँ , उनकी कोई बात मत सुनना
मुझे जन्मने के सपने
मत बुनना ।
सब धोखा है
प्रपंच भरा लेखा-जोखा है । 
एक तरफ कन्या प्रोत्साहन
दूसरी तरफ घोर असुरक्षा
अतिचार और शोषण ।

माँ, पहले तुम सुनती थीं ताने
बेटी को जन्म देने के और फिर 
उसे कोख में ही मारने के ।
लेकिन माँ इसे तुम्ही जानती हो कि
कितनी मजबूरियाँ और कितने बहाने
रहे होंगे तुम्हारे सामने
कोई नही आता होगा
बेटी की माँ को थामने
समझ सकती हूँ माँ ..
तुम गलत नहीं थी  ।
जानतीं थीं कि जन्म लेकर भी
मुझे मरना होगा
आँधियों में,
बेटी को पाँखुरी की तरह
झरना होगा ।
हाँ..हाँ..मरना ही होगा मुझे
एक ही जीवन में कितनी मौतें
जैसे तुम मरतीं रहीं हर रूप में
कितनी बार कितनी मौतें
शायद जिन्दगी ने तुम्हें समझा दिया था कि,
लडकी औरत  ही होती है
हर उम्र में सिर्फ एक औरत
औरत,  जिसे दायरों में कैद रखने
बनानी पडतीं हैं कितनी दीवारें
कितनी तलवार और कटारें
क्योंकि उसे निगलने को
बेताब रहता है अँधेरा जहाँ-तहाँ
कुचलने को बैचैन रहते हैं
दाँतेदार पहिये...
यहाँ-वहाँ
कोलतार की सडक बनाते रोलर की तरह
और...मसलकर फेंकने बैठे रहते हैं
लोहे के कितने ही हाथ
फेंक देते हैं तार-तार करके
उसका अस्तित्त्व
बिना अपनत्त्व और सम्मान के
कभी तन के लिये ,कभी मन के लिये
तो कभी धन के लिये 
झोंक देते हैं तन्दूर में।
खुली सडक पर ,भरे बाजार में
बस में या कार में..
कैसे सुरक्षित रहे  तुम्हारी बेटी, माँ
इस भयानक जंगल में 

पहले तुमसे नाराज थी व्यर्थ ही
कोख में ही अपनी असमय मौत से ।
पर अब मैं नाराज नही हूँ 
जानती हूँ कि
मेरी सुरक्षा के लिये
नही है तुम्हारे पास कोई अस्त्र या शस्त्र
तभी तो तुम्हारी बेटी करदी जाती है 
'निर्वस्त्र' ।
सच कहती हूँ माँ
मैं सचमुच डरने लगी हूँ 
दुनिया में आने से ।
अपनी ही दुनिया के सपने सजाने से
इसलिये अब तुम सिर्फ मेरी सुनो माँ,
हो सके तो अब मार देना मुझे कोख में ही
कम से कम वह मौत इतनी वीभत्स तो न होगी
पंख नुची चिडिया की तरह
खून में लथपथ....घायल पडी सडक पर
जीवन से हारी हुई..बुरी तरह..।
दो दिन सागर उबलेंगे 
पर्वत  हिलेंगे 
मुद्दे मिलेंगे 
बहसों और हंगामों के 
और फिर दुनिया चलेगी पहले की तरह 
नही चल पाऊँगी तो सिर्फ मैं
हाँ माँ, सिर्फ मैं ।
तुम्हारी असहाय अकिंचन बेटी 
सिर उठा कर 
सम्मान पाकर ।
कब तक शर्मसार होती रहोगी??
बेटी की माँ होने का बोझ 
ढोती रहोगी !! 
इसलिये मुझे जन्म न दो माँ !
मैं तो कहती हूँ कि
तुम जन्म देना ही बन्द करदो
नही सम्हाल सकती हो अगर
अपनी सन्तान को
सुरक्षा व सुसंस्कारों के साथ
माँ तुम सुन--समझ रही हो न ?
----------------------------


17 टिप्‍पणियां:

  1. बिलखती असहाय लड़कियां और हम नराधम ..

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  2. कौन है जो सुरक्षा का भाव भरेगा आम जन में।

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  3. jis ped mein keede lag jaaye usse kaatna hi sahi hota hai. gunahgaro ko jaan se maarna hoga..... waise bhi Hindustan ki abaadi 121 crore hai...

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  4. नहीं...क्यों रोका जाये बेटी को आने से? ...बेटे को क्यों नहीं ??अगर नहीं दे सकते हम उसे संस्कार इंसानों वाले.

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    उत्तर
    1. मैं शिखा जी की बात से सहमत हूँ।
      वैसे आपने जो लिखा है वह भी स्वाभाविक है।

      सादर

      हटाएं
  5. बहुत ही उत्क्रष्ट उम्दा लेखन कके लिए बधाई,,,,

    recent post: वजूद,

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  6. दीदी,
    कमाल की रचना है.. बिना भाषणबाज़ी के नारी विषय के हर पहलू को आपने छुआ है.. और वो भी इतनी संवेदनशीलता के साथ कि यह निर्णय करना असंभव प्रतीत हो रहा है कि शब्द दर शब्द इस कविता की पंक्तियों में तेज़ाब भरा है कि आंसू.. बिना कुछ कहे, सिर्फ सिर झुकाए इस माँ (बेटियों को बंगाल में माँ कहकर बुलाते हैं) की सारी बातें सुन स्वीकार रहा हूँ!
    इस रचना पर आपके चरण स्पर्श की अनुमति चाहता हूँ!!

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  7. अब तो यही करना होगा :(

    अपने इस दर्द के साथ यहाँ आकर उसे न्याय दिलाने मे सहायता कीजिये या कहिये हम खुद की सहायता करेंगे यदि ऐसा करेंगे इस लिंक पर जाकर

    इस अभियान मे शामिल होने के लिये सबको प्रेरित कीजिए
    http://www.change.org/petitions/union-home-ministry-delhi-government-set-up-fast-track-courts-to-hear-rape-gangrape-cases#

    कम से कम हम इतना तो कर ही सकते हैं

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  8. बेटियों को आने से नहीं रोकना... बल्कि बेटों को ऐसे कुकर्म करने से रोकना होगा....

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  9. बेटियों के दर्द को बखूबी लिखा है .... सच ही बेटियाँ भी इस दुनिया में आने से दराने लगी हैं ...

    जवाब देंहटाएं
  10. वर्तमान समय की रचना ...मन की गहरे से निकली .....इस दर्द को समझाना कठिन नहीं है

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  11. बेटियों का स्वागत करना बहुत जरूरी है... बेटियों का दर्द बखूबी खींचा है अपने इस कविता में... बहुत ही मार्मिक और भावुक कर देने वाली रचना है...

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  12. ♥(¯`'•.¸(¯`•*♥♥*•¯)¸.•'´¯)♥
    ♥नव वर्ष मंगबलमय हो !♥
    ♥(_¸.•'´(_•*♥♥*•_)`'• .¸_)♥




    पहले तुमसे नाराज थी व्यर्थ ही
    कोख में ही अपनी असमय मौत से ।
    पर अब मैं नाराज नही हूँ
    जानती हूँ कि
    मेरी सुरक्षा के लिये
    नही है तुम्हारे पास कोई अस्त्र या शस्त्र
    तभी तो तुम्हारी बेटी करदी जाती है
    'निर्वस्त्र' ।
    सच कहती हूँ माँ
    मैं सचमुच डरने लगी हूँ
    दुनिया में आने से ।
    अपनी ही दुनिया के सपने सजाने से
    इसलिये अब तुम सिर्फ मेरी सुनो माँ,
    हो सके तो अब मार देना मुझे कोख में ही
    कम से कम वह मौत इतनी वीभत्स तो न होगी
    पंख नुची चिडिया की तरह
    खून में लथपथ....घायल पडी सडक पर
    जीवन से हारी हुई..बुरी तरह..।
    दो दिन सागर उबलेंगे
    पर्वत हिलेंगे
    मुद्दे मिलेंगे
    बहसों और हंगामों के
    और फिर दुनिया चलेगी पहले की तरह
    नही चल पाऊँगी तो सिर्फ मैं
    हाँ माँ, सिर्फ मैं ।
    तुम्हारी असहाय अकिंचन बेटी
    सिर उठा कर
    सम्मान पाकर ।
    कब तक शर्मसार होती रहोगी??
    बेटी की माँ होने का बोझ
    ढोती रहोगी !!
    इसलिये मुझे जन्म न दो माँ !


    आपकी कविता पढ़ कर मन हाहाकार करने लगा है ...
    आदरणीया गिरिजा कुलश्रेष्ठ जी !

    क्या हम इतने विवश और कमजोर हैं कि सृष्टि की निर्मात्री अपनी बेटी की हिफ़ाजत हमारे लिए संभव ही नहीं ?!
    बहुत कुछ सोचने को विवश करती कविता !

    आपकी लेखनी से सदैव सुंदर , सार्थक , श्रेष्ठ सृजन होता रहे …
    नव वर्ष की शुभकामनाओं सहित…
    राजेन्द्र स्वर्णकार
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  13. मैं कहती हूँ तुम जन्म देना ही बंद कर दो..
    मार्मिक चीत्कार।

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  14. अफ़सोस ! बच्चियों के साथ ये सलूक !

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