मंगलवार, 26 दिसंबर 2017

अपने विरुद्ध

मैं जब जब सोचा है कि,
जबाब दूँ तुम्हें तुम्हारे द्वेष और छल का 
सन्देह और कटुता भरे हर पल का .
प्रतिकार करूँ अपनी अवमाननाओं का .
कड़े शब्दों में .
सोचूँ अब से हर बात
तुम्हें सोच में शामिल किये बिना ,
तुम्हारी तरह , 
खड़ा होजाता है तभी कोई 
मेरे ही विरुद्ध ,मेरे अन्दर .
शुरु हो जाता है एक युद्ध .
कितने ही युद्ध लड़ती रही हूँ .
अनचाहे ही .
सुनिश्चित होता है परिणाम .
हार जाती हूँ अक्सर
मैं हैरान हूँ कि
हारकर भी मुझे बुरा नही लगता
उसका जीत जाना
जो मौजूद है मेरे अन्दर ,
मेरे ही विरुद्ध .

1 टिप्पणी:

  1. हार में ही छुपी है असली जीत... अद्भुत विश्लेष्ण..क्योंकि भीतर वाला हमसे जुदा तो नहीं..यहाँ एक के सिवा दूजा कोई है ही नहीं..न भीतर न बाहर..

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