4 अप्रैल 2018
" नेह निर्झर बह गया है .
रेत ज्यों तन रह गया है ..."
(निराला)
चार अप्रैल को जिया को गए
दो साल होगए . ये दो वर्ष जैसे किसी वीरान खण्डहरों से आँखें मींचे जैसे तैसे बस
गुजर गए हैं . उनके बाद मन का आँगन स्नेह और अपनेपन की छाँव से इस तरह खाली हो जाएगा
, अनुमान नही था . मन जब खाली होता है तब कुछ किया नही जासकता . वक्त बेवजह सा गुजरता
जाता है राह के काँटे कंकड़ों को गिनते हुए .
कहते हैं समय हर घाव को भर
देता पर माँ के जाने के बाद जो शून्यता आई है , वह गहराती जा रही है , एक जड़ता सी
जमकर बैठ गई है अनुभूतियों पर इसलिये अभिव्यक्ति पर भी , प्रेम का चरम सृजन को
जन्म देता है .अपनत्त्व का चरम मन को मजबूत आधार देता है . जब दोनों नही तो कुछ भी
लिखने से मन घबराता है . अरसे से अन्दर एक उजाड़ सा महसूस कर रही हूँ . यह माँ के
लिये प्रेम है या हाथ से एक डोर छूट जाने की तिलमिलाहट . मुझे नही मालूम कि यह उनके
बिछोह की अँधेरी सुरंग में घुसने का डर है , या मेरी निष्क्रियता है कि बचती रही
हूँ यादों की पीड़ा से . पीड़ा की अभिव्यक्ति से . अभिव्यक्ति बिना चैन कहाँ ..तभी
तो इधर उधर से उनके खालीपन को भरने की कोशिश में मैं ज्यादा खाली होगई हूँ . मैंने
एक गीत और सावन के संस्मरण के अलावा उनके लिये कुछ नहीं लिखा .हालाँकि उनकी यादों
को पूरी तरह जीकर लिखने के लिये खुद को अवकाश देना जरूरी था . चलते फिरते यादों
में रोया जा सकता है पर उसे शब्दों में पिरोना कठिन है .कम से कम मेरे लिये .
लेकिन उससे बड़ा सच यह है
कि माँ को शब्दों में बाँधना ही एक दुष्कर कार्य है . दिल से भी और दिमाग से भी .
समझ नहीं आता कि उनके लिये क्या लिखूँ ..कहाँ से और कैसे शुरु करूँ . शुरु से ही
उनके चारों ओर घिरे रहे विसंगतियों के काले बादलों को याद करूँ या बादलों के बीच
मुस्कराती किरणों जैसे उनके आशापूर्ण विचारों के उजाले को लिखूँ . अनुचित के प्रति
उनके विरोधभाव को लिखूँ या लिखूँ उनकी परिस्थिति को सहज ही स्वीकार कर लेने वाली
सरल प्रवृत्ति और उससे मिली ठोकरों की पीड़ा को . उनके
स्वातन्त्र्य-प्रिय स्वभाव को याद करूँ या स्नेह और सद्भाव जनित बन्धनों में सहर्ष
बँध जाने की मनोवृत्ति को याद करूँ .तेज प्रवाह में हाथ से छूट गई डोर जैसी
अनुभूतियों का न ‘ओर’ समझ में आता है न ‘छोर’.
प्रारम्भ पल पल दिशाएं बदलती हवाओं की तरह इधर उधर उड़ते पत्तों में बिखरा प्रतीत
होता है और अधूरी रह गई कहानियों का कोई अन्त नही होता .पर शुरु तो करना ही होगा .
आज यही कोशिश है .. (जारी )
जब तक याद करनेवाला होता है, तब तक जानेवाला जीवित होता है। आप हैं तो वो हैं। हां, लेकिन आपकी विवशताओं को समझना प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति के लिए आसान है। आजकल के वातावरण में ऐसी विवशताएं हैं ही।
जवाब देंहटाएंबहुत दिनों बाद भी प्रस्तुत पोस्ट देख आप ब्लॉग पर आए यह आपका विश्वास है मेरे प्रति जो एक हौसला है मेरे लिये विकेश जी. कोशिश रहेगी कि फिर से जारी रखूँ लिखना .
हटाएंमाँ को शब्दों में बाँधना वाकई एक कठिन कार्य है, माँ जो जन्मदात्री है, पालनहार है, और जो सन्तान के जीवन को सुंदर बनाने के लिए कितने उपाय करती है. आपने उनकी स्मृतियों को सँजोने का सुंदर आरंभ किया है.
जवाब देंहटाएंआभार अनीता जी . आपका साथ मेरे लिये उजाले जैसा है .
हटाएंमाँ का जाना किसी भी उम्र में ... एक खालीपन और बच्चे होने के एकसास को पल भर में ख़त्म कर देता है ... इस शब्द को किसी भी सीमा में बांधना किसी भाषा, समय और इंटेलिजेंस से संभव नहीं है ...
जवाब देंहटाएंमैं भी और सच कहूं तो सभी इस पल से गुज़रते हैं कभी न कभी जो आसान नहीं होता ... हाँ यादें होती हैं बस जो कभी नहीं जाती ...