मंगलवार, 25 अक्टूबर 2011

चकमक और मैं


आप सबको दीपावली की हार्दिक शुभ-कामनाएं ।
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22 अक्टूबर को चकमक के तीन सौ वें अंक का विमोचन भारत-भवन( भोपाल) में श्री गुलजा़र जी द्वारा किया गया । इस अवसर पर उनके अलावा और भी अनेक प्रख्यात साहित्यकार थे । प्रयाग शुक्ल जी  और वरुण ग्रोवर से  काफी बातें हुई . वरुण ग्रोवर  और सुशील शुक्ल  कभी चकमक के बाल पाठक हुआ करते थे . आज आसमान छू रहे हैं . वरुण फिल्म लाइन  में  चले गए हैं और सुशील  चकमक  को नया रूप देने की कोशिश कर रहे हैं . सुशील बहुत अच्छे  रचना कार भी हैं . उत्साही जी  और उनकी श्रीमती  निर्मला से भी भेंट हुई .  चकमक से जुडे सभी लोगों के लिये यह काफी महत्त्वपूर्ण अवसर था । मेरे लिये भी ।
गुलज़ार जी व सुशील शुक्ल के साथ 


सन् 1986 में चकमक से मेरा परिचय अँधेरे कमरे में टार्च हाथ लग जाने जैसा हुआ था । उन दिनों में उसी गाँव के उसी स्कूल में पढाया करती थी जहाँ कुछ साल पहले मैं खुद पढी थी । मुख्य सड़क से काफी दूर हमारा गाँव तब हर सुविधा से वंचित था .आठवीं व ग्यारहवीं कक्षा तो सात-आठ कि. मी.पैदल जा जाकर पास करलीं थी और बी. ए. एम.ए. के प्रमाण-पत्र बच्चों को पालते-सम्हालते हुए स्वाध्याय द्वारा हासिल कर लिये थे ।मतलब कि बाहर की दुनिया से कोई खास परिचय नही था । खास तौर पर पत्र-पत्रिकाओं व साहित्य से ।(आज भी मैं कूप-मण्डूक ही हूँ) जो कुछ भी पाठ्यक्रम में आया ,ज्ञान वहीं तक सीमित रहा । यों लिखने का शौक तो ग्यरहवीं कक्षा से ही शुरु होगया था । और सात-आठ कहानियाँ व कविताएं व गीत तभी लिख डाले थे । यही नही एक बाल उपन्यास भी लिख डाला जिसका एकमात्र पाठक मेरा छोटा भाई ही रहा । खैर वह उपन्यास व कहानियाँ तो नष्ट हो गईँ पर कविताएं अभी भी हैं लगभग दो सौ गीत ---जाने कौन जिन्दगी में यह नव-परिवर्तन लाया ..या मैं तुमको पहचान न पाई ..आदि । पर वे सब अप्रकाशित रचनाएं आत्म-केन्द्रित सी हैं और उन्हें साहित्य की श्रेणी में रखने का दुस्साहस नही करूँगी ।

चकमक का आना एक नयी राह  , नयी  दिशा मिलने जैसा था । हालाँकि उसके बाद मैंने कोई सृजन के कीर्तिमान नही बनाए फिर भी पहली बार हुई हर घटना अविस्मरणीय होती ही है । यह चकमक ही है जिसमें पहली बार मेरी कोई रचना प्रकाशित हुई । वह रचना एक कविता थी--मेरी शाला चिडिया घर है ..। इस कविता के प्रकाशन विषयक एक रोचक प्रसंग है जिसे फिर कभी लिखूँगी । हाँ इसके बाद चकमक का हर अंक मेरे लिये कुछ न कुछ लाता रहा और मुझसे खींच कर रचनाएं भी लेजाता रहा । एक शिक्षिका होने के नाते चकमक से मैंने बहुत कुछ सीखा । बहुत अधिक तो नही पर अब तक चकमक में मेरी लगभग पचास रचनाएं आ चुकीं हैं । मैं मानती हूँ कि अगर चकमक से न जुडी होती तो शायद ये रचनाएं भी न बन पातीं । इस अर्थ में अच्छी पत्रिकाओं से वंचित रहना एक बडी हानि है पाठक व लेखक दोनों की ।
कलेवर की दृष्टि से चकमक अब सचमुच चकमक होगई है । शानदार रंगीन पृष्ठ ,चित्र आकर्षक आवरण और प्रख्यात देशी-विदेशी रचनाकारों की रचनाएं । सम्पादक भाई सुशील शुक्ल अपनी प्रतिभा का भरपूर उपयोग करते प्रतीत होते हैं । मैं जब चकमक से जुडी थी तब चकमक के सम्पादक श्री राजेश उत्साही थे । उस समय क्योंकि पत्रिका का आरम्भकाल था सो भले ही इतना बाह्याकर्षण नही था लेकिन सामग्री का स्तर किसी भी स्तर पर कम नहीं था ।,बल्कि कहीं अधिक ऊँचा था .  श्री राजेश उत्साही  बहुत ही कुशल व अनुभवी सम्पादक रहे . रचनाओं का चयन सम्पादन गज़ब था ... खैर ,यहाँ उस पहली रचना को पुनः दे रही हूँ ---

"मेरी शाला है चिडिया-घर ।

हँसते खिलते प्यारे बच्चे ,
लगते हैं कितने सुन्दर ...।
(1)फुदक-फुदक गौरैया से ,
कुर्सी तक बार-बार आते ।
कुछ ना कुछ बतियाते रहते,
हरदम शोर मचाते ।
धमकाती ,---डर जाते ,
हँसती,------ तो हँसते हैं,
मुँह बिचका कर .। मेरी शाला .....
(2)तोतों सा मुँह चलता रहता,
गिलहरियों से चंचल हैं ।
कुछ भालू से रूखे मैले ,
कुछ खरहा से कोमल हैं ।
दिन भर खाते उछल-कूदते ,
मानो वे हैं नटखट बन्दर ।
मेरी शाला ........
(3)हिरण बने चौकडियाँ भरते ,
ऊधम करते जरा न थकते ।
सबक याद करते मुश्किल से ,
बात-बात पर लडते --मनते ।
पंख लगा उडते से लगते ,
आसमान में सोन -कबूतर ।
मेरी शाला.....।
(4)पल्लू पकड खींच ले जाते ,
मुझको उल्टा पाठ पढाते ।
बत्ती खोई...धक्का मारा ...,
शिकायतों में ही उलझाते ।
और नचाते रहते मुझको ,
रखना काबू कठिन सभी पर ।
मेरी शाला ....।
(5)पथ में कहीं दीख जाती हूँ ,
पहले तो गायब हो जाते ,
कहीं ओट से दीदी--दीदी----
चिल्लाते हैं ,फिर छुप जाते ।
कान पकड लाती हूँ तो ,
अपराधी से होजाते नतसिर ।
मेरी शाला .....
(6)जरा प्यार से समझाती हूँ ,
तो बुजुर्ग से हामी भरते ।
पर वे ऐसे मनमौजी ,
अगले पल अपने पथ पर चलते ।
बातें मेरी भी सुनते हैं ,
पर लगवाते कितने चक्कर ।
मेरी शाला ....
(7)गोरे ,काले ,मोटे पतले ,
लम्बे ,नाटे ,मैले ,उजले ।
कोमल ,रूखे ,सीधे ,चंचल,
अनगढ पत्थर से भी कितने ।
पर जितने ,जैसे भी हैं ,
मुझको लगते प्राणों से बढकर ।
मेरी शाला है चिडियाघर ।
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13 टिप्‍पणियां:

  1. मेरे लिए तो आप आदरणीय थीं आज से पूजनीय हो गयीं.. मेरे गुरुदेव गुलज़ार साहब का स्पर्श और साक्षात्कार के बाद मेरे लिए पूजनीय हैं आप!! राजेश उत्साही जी से बहुत सुना है इस पत्रिका के विषय में और आज ३०० वें अंक तक पहुँचना एक महत्वपूर्ण उपलब्धि है!!
    बधाई और दीवाली की शुभकामनाएं!!

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  2. आपको सपरिवार दीपावली की हार्दिक शुभ कामनाएँ!

    सादर

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  3. चकमक सबके लिये चमक लेकर आये, सबके मन का अन्धतम मिटे, सबका जीवन सफल हो।

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  4. अरे वाह!
    पढने का अवसर कभी नहीं मिला पर तारीफ़ बहुत सुनी है।

    आपको, परिजनों तथा मित्रों सहित दीपावली पर मंगलकामनायें! ईश्वर की कृपा आप पर बनी रहे।

    ********************
    साल की सबसे अंधेरी रात में*
    दीप इक जलता हुआ बस हाथ में
    लेकर चलें करने धरा ज्योतिर्मयी

    बन्द कर खाते बुरी बातों के हम
    भूल कर के घाव उन घातों के हम
    समझें सभी तकरार को बीती हुई

    कड़वाहटों को छोड़ कर पीछे कहीं
    अपना-पराया भूल कर झगडे सभी
    प्रेम की गढ लें इमारत इक नई
    ********************

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  5. मेरी शाला है चिडियाघर ।... बहुत सुन्दर है , दिवाली की शुभकामनायें

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  6. बच्चों की गतिविधियों का अति सूक्ष्म अवलोकन करती बहुत प्यारी कविता ।

    दीपोत्सव की हार्दिक मंगलकामनाएं ।

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  7. वाह !बहुत खूब गिरिजा जी कल ही आप से मिली और आज आपका सारा जहन देख लिया पढ़ लिया बहुत ही ल्खुब्सुरत मन हिया और सुन्दर अभिव्यक्ति भी -----बधाई आपकी तकनिकी महारत ने भी प्रभावित किया ----प्रेरणा मिली --धन्यवाद

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  8. गिरिजा जी !आप कितना महँ कम करती है न अन गढ़ हीरे तराशती है ---बड़े ही पुण्य से मिलता है भगवन कि सी सच्चाई वाले बच्चों का साथ ---

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  9. इतने संघर्ब कर खुद पढ़ना शादी व बच्चों के साथ भी गाँव में रहकर पढ़ना पढ़ाना और कविता कहानी भी लिखना , गायन भी इतना मीठा , कितनी व्यलहार कुशल हैं ..,कमाल की प्रतिभा सम्पन्न विदुषी महिला हैं आप...ज्ञान व शक्ति का आगार हैं और तब भी इतनी विनम्रता अनुकरणीय है। मुझे आपकी मित्रता पर अभिमान है...ईश्वर आपको स्वस्थ व दीर्घायु रखें...खूब ख़ुशियाँ मिलें आपको🥰🙏

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    1. अरे वाह , आप यहां आई हैं अभी देखा . आप तो हैं ही ऐसी कि सबके सिर्फ गुण देखती हैं वह भी नज़र खूब बड़ी करके फिर भी आपके बोल अनमोल हैं मेरे लिये .

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