परसों गाँव जाना हुआ .चौदह घंटे और लगभग
तीन सौ किमी की थकान भरी यात्रा में कुछ ऐसी बातें सामने आईं जो सामान्य नहीं कही जा
सकतीं .बल्कि काफी गंभीर भी हैं . आप भी देखें .
(1) नोट पर वोट
गत रविवार को ग्राम-पंचायत व जनपद पंचायत
के चुनाव हुए. परिणाम आना शेष है लेकिन इस वार्तालाप से , जो बस में यात्रा कर रहे
दो लोगों के बीच बेझिझक हो रहा था , प्रतीत होता था कि परिणाम की घोषणा मात्र औपचारिकता
ही है.----
“..और ‘ठाकुस्साब’ कराइ आए चुनाब ?”
“हाँ भैया कराइ आए .”
“कौन की दमदारी दीखि रई है ?”
“का बतावें साब ! उम्मीदवार एक ते बढकर एक
हैं दोनों . झूरि कें रुपैया खर्च कर रहे हैं .”
अब तौ ‘चुनाइ’ पईसावारेनि कौ ही रहि गयो है.”
“का बोटरनि की खरीदबे की ‘कोकिस’ भई है ?”
“अरे माराज ! सौ-दो सौ नईं ..हजार-पांसौ नई
..पांच-पांच हजार दए गए हैं एक-एक बोट के .”
“ पाँच हजार ? बस्स ?—एक दूसरा आदमी बोला—“हमाए गाम में दस से लैकें बीस-पच्चीस
हजार तक में बिचे हैंगे बोट.”
“आएsss !!”
“सच्ची ! गऊ माता की सौं .सालनि ते जो बाहर रहि रहे हैं वे भी सब बुलबाइ लए गए .चौधरी जी के
बहू-बेटा एमदाबाद ते का सेंतमेंत में आइ गए ? और तौ और ..गाम की ब्याही-थ्याई लड़कियां जिनकी सादी दस-दस ,पंद्रह-पंद्रह साल पेलें ही हैगई हती बे भी बोट डारिबे आईं . काए से के बिनकौ नाम लिस्ट में से नई
हटाओ हतो .मैंने सुनी है कै ऐसें पूरे पचास हजार खर्च करे हैं रमले ने .”
“ सही है भैया . खर्च करिकै ही तौ कमाई
कौ जरिया निकरेगो . आदमी सोचता है कि जीतिबे के बाद कोऊ पूछिबे बारो नई हैं सो अबई
जो मिल रऔ है झटक लेउ ..”
(२)
बात
की बात
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एक और दो के सिक्कों की तरह निरन्तर छोटे और हल्के होते जारहे आकार
की बसें, कुछ तो इतनी छोटी कि लोग उन्हें 'कट्टा' ( काटकर छोटी करदी गई ) कहते हैं ,ज्यादातर खिडकियों के चटके या गायब
होते शीशे ,समझू साहू के बैल की तरह समय से पहले
ही खटारा होजाने पर भी सेवा देने की मजबूरी ,उस पर थैले में जरूरत से ज्यादा ठूँसे गए कपड़ों की तरह भरी सवारियाँ
फिर भी चलते-चलते और सवारियों को भरने की वासना से भरा दरवाजे पर लटका चिल्लाता कंडक्टर...किराए
के पीछे होते आवश्यक विवाद ..अस्सी-नब्बे की फिल्मों के घिसे-पिटे चलताऊ गीत ,...मुरैना-सबलगढ़ रोड और उससे जुडी देहाती
सड़कों पर अपने ही नियमों-तरीकों से चलने वाली बसों का ही नहीं , ग्वालियर तक आने वाली ज्यादातर कस्बाई
प्राइवेट बसों का भी भौतिक व आध्यात्मिक स्वरूप यही है अगर नहीं है तो चार-छः महीने
में हो जाने की पूरी गारंटी है .
किस्सा सबलगढ़ से आरही ऐसी ही एक बस का है . बस पूरी तरह भर चुकी थी
.’भरने’ का
अर्थ तो आप शायद जानते ही होंगे .यानी एक भी पाँव टिकाने की जगह कहीं रह गई है तो बस हरगिज भरी नहीं मानी जाएगी .खैर ..जब कन्डक्टर
को यकीन होगया कि अब इसमें तिनके के लिए भी जगह नहीं है तो उसने विजेता की तरह ”चलोssss.” कहते हुए ड्राइवर को चलने का संकेत
दिया .इसके बाद शुरू हुआ किराया लेने का ‘महाभियान’.
ईश्वर ही जाने कि इस तरह ठसाठस भरी सवारियों के बीच किराया वसूलने का
कठिन प्रशिक्षण कंडक्टर कहाँ लेता है .और सवारियाँ ,जिनमें बच्चे बूढे या जवान ही नहीं ,बच्चों को हाथ में पकडे ,गोद में लिए महिलाएं भी होतीं हैं , कैसे उसे निकलने का रास्ता देतीं हैं .यही नहीं उसे पूरा ध्यान होता
है कि अमुक सवारी कहा तक की है . कितनी ही भीड़ हो कोई व्यक्ति 'भटपुरा' का किराया देकर 'सिकरौदा' ( बमुश्किल दो किमी) तक नहीं जा सकता
. दूर बस के गेट पर भी खड़ा कन्डक्टर टोक देता है—“ओ बाबा , ए भैया ..कहाँ ? उतरना नहीं है क्या ? जौरा के टिकट में मुरैना जाना है
क्या ? उल्लू समझ रखा है? क्या कहा ?.पचास का नोट दिया था ?अबे किसी और को ...बनाना .तेरे जैसे
पांच सौ पैंसठ आते हैं रोज .."
लेकिन जरुरत होने पर उन्हें भूलना भी बखूबी आता है . एक ग्रामीणा के
मामले में ऐसा ही हुआ . कंडक्टर ने किराए के चालीस रुपए मांगे .औरत ने तीस रुपए दिए
.
“ दस और ला ..”
“काय के दस ?”
“ किराए के और काए के .”
“ हमसे तीस की बात हुई थी .”
“ ए ,स्याणी
! कोई तीस-बीस की बात नहीं हुई .चालीस से उनतालीस भी नहीं चलेंगे ."
“चलाने तो पड़ेंगे .मैं इकतीस भी नहीं दूंगी. ”"
"वाह वा ! कह तो ऐसे रही है जैसे शिवराजसिंग' की भतीजी हो .चल चल,मेरा टैम खराब मत कर ."
"ए ! कहकर मुकरै मत. तूने तीस की बात की थी.
"वाह वा ! कह तो ऐसे रही है जैसे शिवराजसिंग' की भतीजी हो .चल चल,मेरा टैम खराब मत कर ."
"ए ! कहकर मुकरै मत. तूने तीस की बात की थी.
“अपने मन से ?चल उतर जा . किसी दूसरी बस से आजाना जो तीस नहीं मुफ्त में ले जाए .”
“ मुफतखोर होगा तू . मैं इसी बस से जाउंगी . तू उतार के तो देख .”
“ फिर बैठी रह . बस नहीं जा रही ( ड्राइवर से ) ओए बंद करदे .”
बस ड्राइवर कंडक्टर के हुक्म का गुलाम होता है. वह कहे तो चले वह कहे
तो रुके . उसने बस रोकदी .
औरत लापरवाही के भाव से अडिग खड़ी रही . सवारियों में हलचल हुई . एक
दो पढ़े लिखे और कुछ समझदार माने जाने वाले लोगों ने समझाया—
“अरे बाई क्यों जिद्द करती है . किराया
चालीस ही है . कंडक्टर कोई गलत पैसे नहीं मांग रहा .”
“ तुम बड़े सिफरासी (सिफारशी) बनते हो .”.—औरत
ने आँखें तरेर कहा—“किराए का मुझे भी पता है पर मैं तो
दूसरी बस में जा रही थी . यह कंडक्टर उससे पहले चलने की और तीस रुपए देने की कहकर ले
लाया और यहाँ पलट गया.”.
“झूठ बोल रही है .”
“झूठ बोल रही है .”
“झूठ बोलता होगा तू और तेरा खानदान
.मैं तो पूरा ही किराया देती हूँ .फिर दस रुपया कोई बड़ी ‘सामा’( खजाना)
नहीं ,पर बात की बात है .तूने झूठ क्यों
बोला ? ऐसे ही सीट देने की कहकर बिठा लेते
हो पर सीट नहीं देते .दुनिया बावरी है
क्या ? ले ये तीस रख और अपना रास्ता नाप
..”
कंडक्टर अवाक्..
कंडक्टर अवाक्..
“बात तो सही है .”-एक-दो
लोगों ने कहा .
“अरे भाई चलो चलो वैसे ही देर हो रही
है ”—बस
में बैठे लोग कहने लगे .
अब कंडक्टर के पास ड्राइवर को चलने का संकेत देने लम्बी सीटी बजाने
के अलावा कोई चारा नहीं था .
उफ़्फ़!
जवाब देंहटाएंलोकतंत्र की लंका लगी हुई है।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 26-02-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1901 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
लोकतंत्र का विचित्र रूप है ये.
जवाब देंहटाएंनई पोस्ट : परंपराएं आज भी जीवित हैं
दीदी! वार्तालाप का यह अंश एक कुरूप चेहरा है लोकतंत्र का. जहाँ लोकशाही अंक गणित बनकर रह जाये, वहाँ वोटों का अर्थशास्त्र होना कोई आश्चर्य नहीं पैदा करता. अलबत्ता आश्चर्य तब होता है जब दो दलों के प्रतिनिधि एक दूसरे पर "पैसे से वोट" ख़रीदने का आरोप लगाते हुये बहस करते हैं!
जवाब देंहटाएंआज बिहार और उत्तर प्रदेश के मध्य 200 करोड़ की शादी हो रही है. यह भी इसी लोकशाही की एक दुर्गन्धयुक्त तस्वीर है!!
आज आपकी बुन्देलखण्डी बोली पढकर लगा कि यदि आलेख स्तरीय हो तो भाषा कभी बाधा नहीं बनती. भरसक लोगों ने मुझे चार साल से झेला है. :) :)