एक ‘ऑडिटोरियम’ का शानदार मंच ,सुन्दर सजावट ,लाइट ,कैमरा ..कथित सभ्य शिक्षित
वर्ग के दर्शक ..कुल मिलाकर किसी राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम जैसी तैयारी जहाँ फिल्मी
गीतों पर छोटे छोटे बच्चों की ‘डांस-परफॉर्मेंस’ थी . वह कोई निर्णायक या प्रतियोगिता जैसा आयोजन नहीं
था . उसका उद्देश्य केवल बच्चों के माता-पिता को दिखाना भर था कि बच्चे कितना और
कैसा सीख रहे हैं .इसी बहाने कोरियोग्राफर को भी अपना हुनर दिखाना था खैर.... बच्चों ने जितना सीखा ,उतना दिखाया . हर
प्रस्तुति के बाद तालियों की गड़गड़ाहट के साथ ,उद्घोषक-द्वय ऑसम
,सुपर ,माइण्डब्लोइंग ऐक्सीलेंट, ग्रेट जॉब , वा..व वेलडन किड्स जैसे भारी भारी
शब्दों द्वारा बच्चों के प्रयासों को गरिमा प्रदान कर रहे थे .
हालाँकि अपने मासूम बच्चों को वयस्कों के रोमांटिक गीतों पर थिरकते -उछलते और वैसा ही अभिनय
करते देखकर ताली पीटते और निहाल होते माता पिता को यह बात अजीब लग सकती है कि बच्चों को अभी इस तरह प्रस्तुत करना उनके हित में नही है , क्योंकि वे अभी सीखने की प्रक्रिया में हैं .
सीखने के बीच परीक्षा या प्रदर्शन का आयोजन सीखने की गति और स्तर ,दोनों
को प्रभावित करता है . समय की दृष्टि से भी और मानसिकता की दृष्टि से भी . क्योंकि
जो समय सीखने का होता है वे प्रदर्शन की तैयारी में जुट जाते हैं . यह बिना पढ़े या बहुत कम पढ़े ही परीक्षा देने जैसा है . अपर्याप्त
ज्ञान का प्रदर्शन हो या परीक्षा दोनों ही अनावश्यक हैं .
अक्सर होता यह है जब कम प्रयास में ही उन्हें तालियों की गड़गड़ाहट ,और प्रशंसा में के
साथ सुन्दर कीमती प्रमाण-पत्र मिल जाते हैं तो उनका ध्यान सीखने की बजाय सहज ही प्रदर्शन और
पुरस्कार पर अटक जाता है .वे जो कुछ करते हैं ,पुरस्कार के लिये करते हैं . दक्षता या ज्ञान
के लिये नहीं . इस तरह अनजाने में ही वे समय से पहले और अपर्याप्त कौशल के साथ ही
चकाचौंध के अँधेरे में धकेल दिये जाते हैं , जहाँ मिलता है उन्हें एक भ्रम . बहुत
कुछ सीख लेने का भ्रम .बहुत कुछ कर पाने का भ्रम .
इस तरह वे प्रशंसा के आदी भी होजाते हैं .कमियों को स्वीकार करने की
प्रवृत्ति पनप ही नहीं पाती जो किसी के भी सुधार और विकास के लिये बेहद जरूरी है .
यह सही है कि बच्चों की प्रतिभा को पहचानना , उसे प्रेरणा ,प्रोत्साहन और एक
सही दिशा मिलना बहुत जरूरी है .लेकिन साथ ही यह समझना भी जरूरी है कि चाहे शिक्षा हो या
कोई भी कला ,उसे हासिल करने के लिये परिश्रम के साथ धैर्य भी बहुत आवश्यक है .
यहाँ मुझे दादी की सीख याद आती है कि जब दाल पक रही हो तब उसमें बार बार चम्मच डालकर देखना नहीं चाहिये कि गली या नही . इससे दाल गलने में देर लगती है . और उतना स्वाद भी नही आ पाता .
सीखने के सन्दर्भ में यह बात काफी प्रासंगिक है .
सीखने के सन्दर्भ में यह बात काफी प्रासंगिक है .
दुर्भाग्य से अब ऐसा धैर्य आमतौर पर नहीं देखा जाता . बीच बीच में ढक्कन
खोलकर दाल या चावल को टटोलने और अधपकी दाल परोसने की प्रवृत्ति बढती जा रही है . यही हाल स्कूली शिक्षा
का है .जिसमें पढ़ाई कम और परीक्षाएं ज्यादा होतीं हैं .
सितम्बर में त्रैमासिक ,दिसम्बर में अर्द्धवार्षिक ,जनवरी के तीसरे या
फरवरी के प्रथम सप्ताह में प्री-बोर्ड और फरवरी के अन्तिम या मार्च के प्रारम्भ से
ही वार्षिक परीक्षाएं ..यानी पढ़ाई ठीक से हो नहीं पाती कि विभाग से
परीक्षा की तिथि आ जाती है . हर परीक्षा में परीक्षा लेने से लेकर कापियों के
मूल्यांकन , रिजल्ट , पालकों के साथ संवाद जैसे औपचारिक कार्यों में लगभग पन्द्रह
दिन तो लगते ही हैं .यानी पूरे सत्र में कम से कम 45-50 दिन परीक्षा की भेंट चढ़
जाते हैं .
ऐसा नहीं है कि परीक्षा व्यर्थ है . परीक्षा आवश्यक भी है और महत्त्वपूर्ण
भी पर पाठ्यक्रम के सही अध्ययन- अध्यापन के बाद . बेहतर हो कि वह समय पढ़ने-पढ़ाने में खर्च हो . परीक्षा की बजाय अध्ययन
अध्यापन की सार्थकता पर बल दिया जाए . शिक्षक की योग्यता व पढ़ाने के तरीकों को
देखा जाए और देखा जाए कि शिक्षक के दिये ज्ञान को छात्र कितना ग्रहण कर पा रहा है
. जब पढ़ाई सुचारु होगी तो परीक्षा में सफलता तो स्वतः ही मिलेगी .
अगली कड़ी में ---परीक्षा केन्द्रित शिक्षा के नुक्सान