दुर्गा नवमी पर विशेष
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जब हम सिडनी में थे ,श्वेता ने कन्या-पूजन के अवसर पर आसपास की बच्चियों को बुलाया । मैंने एक बच्ची से ऐसे ही पूछा –"कैसी हो बेटा ?"
यह सामान्य औपचारिक वाक्य है जिसका उपयोग हम लोग परिचय संवाद के लिये करते हैं । अधिकांश लोग अब लड़कियों के लिये बेटा शब्द ही काम में लाते हैं । मैं स्वयं अपनी बहुओं को बेटा कहकर पुकारती हूँ । उसी आदत के चलते मैंने उस बच्ची से कहा पर वह बच्ची मानो मेरी गलती को सुधारते हुए बोली-- "मैं बेटा नहीं, बेटी हूँ ।" उसकी कोमल हँसी में आत्मविश्वास और गर्व छलक रहा था । उत्तर मेरे लिये अप्रत्याशित और न केवल दिल-दिमाग के खिड़की-दरवाजों को खोलने वाला था बल्कि उस मानसिकता पर प्रहार भी था जिसके चलते हम अनजाने ही बेटा कहकर बेटी को बेटे से पीछे या नीचे कर देते हैं । अक्सर माता पिता को कहते हुए सुना जाता है –हमने अपनी बेटी को बेटे की तरह पाला है । क्यों ? बेटी को बेटी की तरह क्यों नहीं ? बेटी का सृष्टि में जो स्थान है वह बेटे का कभी नहीं होसकता ,इसे हम क्यों भूल जाते हैं और उसे बेटे की तरह या बेटे की जगह स्थापित कर उसे न्यून बना देते हैं । इसी प्रवृत्ति के कारण बहुत सारे दैहिक और मानसिक विघटन आने वाले हैं , आ भी रहे हैं । एक अनावश्यक सी प्रतिस्पर्धा और खींचतान बढ़ रही है । जब तक स्त्री पुरुष वाले काम नहीं करती उसे कमजोर माना जाता है क्योंकि इस प्रतिस्पर्धा को जन्म ही वहाँ से शुरु होजाता है जब हम बेटी को बेटे की तरह कहकर पालते हैं ।बराबरी करना गलत नहीं है ,गलत है प्रतिस्पर्धा । प्रकृति ने ही उन्हें भिन्न बनाया है तो उस भिन्नता को स्वीकृति परस्पर कमतर दिखाने की मानसिकता क्यों ? जब बेटी को बेटी की तरह गर्व के साथ पाला जाएगा तब बेटा भी उसका सम्मान करना सीखेगा । गहराई और विस्तार से देखें तो बेटी को बेटा कहने की प्रवृत्ति एक तरह से स्त्रीत्त्व को भी चुनौती ही है ।
बेटी तुम आँगन की फुलवारी हो . धरती की हरियाली
हो . जीवन का उत्सव हो . वैभव हो . तन मन की ऊर्जा हो , सृष्टि की निर्मात्री हो ,तुम्हारी
हँसी का स्वर कभी मन्द न हो . तुम्हारी आँखों की चमक कभी फीकी न हो . तुम गौरव हो
, सम्मान हो . प्रकृति का वरदान हो .