पैरामेटा से माउंटेन में हमारे गन्तव्य तक का लगभ 80 किमी का मार्ग इस बार और भी मनोरम लगा .ये सर्दियों के जाने और धीरे धीरे वसन्त के आने के दिन हैं . इसका पता पूरे रास्ते छोटे छोटे पीले फूलों के गुच्छों से लदी टहनियों और सफेद गुलाबी फूलों से भरी छोटी झाड़ियों ने दिया .. कहीं कहीं चैरी-ब्लॉसम की कलियाँ पलकें खोल मुस्कराने लगीं हैं . अनेक प्रकार के फूलों के साथ खूबसूरत चैरीब्लॉसम की बेशुमार झाड़ियाँ भी यहां-वहाँ ऋतुरानी की प्रतीक्षा में खड़ी दिखाई दे रही हैं कि वह आए और हमारी टहनियों को ढेर सारे गुलाबी ,सफेद फूलों से भरदे .श्वेता ने बताया कि वसन्त में सड़क के दोनों ओर वीरान से खड़े सारे पेड़ लाल-गुलाबी फूलों से भर जाते हैं .
चैरी ब्लॉसम फूल जो कुछ दिनों बाद पूरी वादी में छा जाएंगे |
“मम्मी देखना नदी आनेवाली है . ”- वहाँ से कुछ दूर बढ़ने पर मयंक ने बताया . उसे मालूम है कि मुझे समुद्र की अपेक्षा .नदियाँ , विशेषकर कल कल बहती नदियाँ देखना बड़ा अच्छा लगता है . नदी किनारों के बन्धनों के बीच भी उन्मुक्त बहती है , लम्बी यात्रा में भी जहाँ चट्टानें मिलीं नहीं कि पिता पर्वत की गोद की अनुभूति पाकर बचपन कल कल ध्वनि में खिलखिला उठता है .उसके हृदय में धरती को सींचते चलने की चाह होती है , उसके सपनों में हरियाली लहलहाती है ..सतत प्रवाहित..उर्वरा , कितने ही प्राणियों ,वनस्पतियों को पालने का हौसला ..नदी की प्रकृति के साथ एक आत्मीयता है .समुद्र जैसी अपार गहन गंभीरता व विशालता मेरी सीमित सोच के लिये एक पहेली ही है .उसकी प्रकृति और गतिविधियाँ कल्पना से परे है .
खैर..जब नदी की बात चल पड़ी तो मैंने उस नदी के बारे में और जानने साथ कुछ जानकारियाँ भी हासिल करने की कोशिश की .जैसे नेपियन नदी का मूल नाम Yandhai (Dhruk) है .इसे नेपियन नाम ब्रिटिश राजनेता और उपनिवेश प्रशासक Evav Nepean के सम्मान में सन् 1789 ई. में दिया गया . यह नदी न्यू साउथ वेल्स की दक्षिणी उच्चभूमि की Mittagong range से निकल कर Grose river के साथ मिलती है तब Hawkesbury river बन जाती है . लगभग 178 किमी का सफर पूरा कर Broken Bay में मिल जाती है अन्ततः ‘तस्मान’ सागर में . यह एक सदानीरा नदी है और पेयजल का सबसे बड़ा साधन .
नेपियन -हॉक्सबरी नदी ( चित्र गूगल से साभार) |
नेपियन नदी के बाद धरातल की ऊँचाई बढ़ती जाती है .रोचक
बात है कि ऊंची नीची सड़क पर झूलते हुए पता नहीं चलता कि हम 1100 मीटर ऊँची पहाड़
कही जाने वाली जगह पर पहुँच गए है
ब्ल्यू माउंटेन नाम की सार्थकता
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आवास जहाँ हम ठहरे |
मैंने पढ़ा था कि सन् 1788 ई. में आर्थर फिलिप द्वारा इस क्षेत्र का नाम कार्मार्थन और लैंसडाउन हिल्स रखा गया था। कार्मार्थन पहाड़ियाँ क्षेत्र के उत्तर में थी और लैंसडाउन पहाड़ियाँ दक्षिण में लेकिन पूरी पर्वत श्रंखला में यूकेलिप्टस के पेड़ अधिकता में हैं . इस पेड़ की पत्तियाँ दूसरे पेड़ों जैसी हरी न होकर हल्की नीलिमायुक्त होती हैं जो दूर से नीले रंग का आभास देती हैं .विज्ञान की भाषा में पेड़ों द्वारा बड़ी मात्रा में उत्सर्जित होने वाले वाष्पशील ‘टेरपेनोइड्स’ के कारण किरणों का बिखराव होता है इस प्रकार नीली धुंध बनती है जिसके लिए पहाड़ों का नाम ब्ल्यूमाउंटेन रखा गया . हमारे यहाँ भी तमिलनाडु में स्थित पर्वत श्रंखला का नाम 'नीलगिरि की पहाड़ियाँ' है ,जो यूकेलिप्टस ( नीलगिरि )के पेड़ों से ढँकी हुई हैं .
थ्री सिस्टर्स में कई जगह ऐसे बोर्ड लगे हैं . |
जिस समय हम कटुम्बा टाउन में पहुँचे , दोपहर के 12--12.30 का समय था . इस बार हमारा विचार नीच उतरकर 'थ्री सिस्टर्स' वाली पहाड़ियों तक पहुँचने का था .पहले जब आए थे, सारा परिदृश्य ऊपर से ही देखकर चले गए थे . 'थ्री सिस्टर्स' तक पहुँचने के लिये यूकेलिप्टस और दूसरे तमाम तरह के पेड़ों से घिरा सुन्दर ट्रैक है . लेकिन उन तीन पहाड़ियों से कुछ ही दूर पहले रास्ता बन्द कर दिया गया है . इसलिये हमें बीच से ही लौटना पड़ा .लौटते हुए रास्ते में ‘वूलवर्थ’ से दूध और कुछ ज़रूरी सामान लिया और पहले अपने गन्तव्य पर पहुँचे जहाँ हमें दो रातें बितानी थीं . यह कटुम्बा से लगभग 12 मिनट की दूरी पर Blackheth village में था . यहीं मैंने जाना कि 'विलेज' का मतलब हर जगह 'गाँव' नहीं होता . जैसे कॉटेज या कुटीर का मतलब छप्पर या झोपड़ी नहीं होता . चारों ओर ऊँचे अनाम वृक्षों के बीच सुन्दर सर्वसुविधायुक्त आवास , जिसमें दो कमरे ,हॉल किचन दो टॉयलेट्स यानी 'टू बी एच' के फ्लैट जैसा ही . साथ वाले पोर्शन में शीशे के पार एक बुजुर्ग दिखे जो किसी विचार में डूबे से बैठे थे . सामने कु्र्सी पर एक हमउम्र महिला . ये मकान मालिक होंगे हमने सोचा . उनकी नीली कार बाहर ही रखी थी .
बाहर पेड़ों पर शाम उतरने लगी थी . चिड़ियों के कलरव से पेड़ ही नहीं पूरा आसमान गूँज रहा था . शायद यह घर बच्चों के पास लौटने की खुशी होती है . उधर पड़ोस के घर से एक डॉगी महाशय यहाँ की परम्परा ( Don't interfere in others) को तोड़ते हुए और अपनी सभ्य स्वामिनी की समझाइश को दरकिनार कर बाउण्ड्री से ऊपर सिर उठाकर जब तब हमसे पता पूछ लेते थे कि कौन हो ? कहाँ से आए हो ? मकान के चारों ओर आकाश को ताकते ऊँचे पेड़ थे . सूरज जैसे ही यूकेलिप्टस के झुरमुट के पीछे अदृश्य हुआ कि सर्दी ने बड़ी सख्ती से हमें अन्दर जाने को कह दिया . अन्दर आकर मैंने देखा वे सज्जन अभी तक उसी मुद्रा में बैठे थे . वहाँ कुछ मकानों के बाद ही चारों ओर जंगल का एहसास होता है . लाइट केवल घरों और बाजार में होती है .इसलिये दिन की अपेक्षा रात कुछ ज्यादा ही सुनसान और सन्नाटे भरी लगती है . वहाँ स्ट्रीट लाइट नही थी . दिन की पलकें मुँदते ही उजाला सड़कों पर केवल गाड़ियों का और घरों में बिजली का होता है . बहुत दिनों बाद हमने आसमान को तारों से भरा देखा . जैसा हम केवल अपने गाँव में देखा करते थे .
रात्रि का भोजन हमने घर से बनाकर लाई मिक्स सब्जी और पराँठों और ओवन में पकाए शाकाहारी ‘बार्बीक्यू के साथ किया . बगल वाले पोर्शन में शीशे के पीछे अब पर्दा लग गया था .रात में सर्दी बहुत थी पर विद्युत-प्रवाह से कुनकुने गरम हुए बिस्तर में काफी अच्छी नींद आई . सुबह बाहर घास और कारों पर जमे हिमकणों से पता चला कि रात में तापमान कितना नीचे चला गया था . हवा में बर्फीली छुअन थी . .सुबह हवा तेज व नुकीली थी पर पेड़ों की फुनगियों से उतरती धूप सुबह को सुहानी बना रही थीं .चिड़ियाँ चहचहाकर धूप का उत्सव मना रही थीं ..घास के मैदान में अब धूप की चिड़िया नीचे उतर आई थी और घास पर बिखरे मोती चुगने लगी थी .....अगले वृत्तान्त में भी जारी .......