रविवार, 28 अप्रैल 2024

बद्रीनाथ धाम यात्रा -2




बद्रीनाथ धाम यात्रा -1


 30 अप्रैल 2023

विशाल बदरीनारायण मन्दिर और अलकनन्दा 

नर और नारायण पर्वत श्रंखलाओं के बीच रंगों और फूलों से सज्जित बदरी विशाल का भव्य मन्दिर , नील-हरिताभ ( फिरोजी रंग ) धारा वाली निर्मल अलकनन्दा, और घाटी में सीपियों के ढेर जैसा बद्रीनाथ कस्बा जैसे देवताओं की नगरी . मैं विश्वास करना चाहती थी कि मेरी ऐसी कल्पनाएं सच हो चुकी है . सुबह नींद जल्दी खुल गई . बल्कि कहना चाहिये कि सुबह जल्दी होगई .सूर्य रश्मियाँ सबसे पहले शिखरों पर उतरती हैं .फिर क्या वे हमें सोने देतीं ! दूर दूर तक हिमाच्छादित धवल शिखर सुनहरी किरणों के साथ रंग मिला रहे थे . पहाड़ों के प्रति मेरा आकर्षण अनायास ही है .उच्चता के प्रतीक इन उत्तुंग शिखरों को देखकर नत सिर होजाती हूँ. चढ़ना कठिन होता है चाहे पहाड़ हो या चरित्र पहाड़ों को दम साधे मजबूत इरादों के साथ चढ़ा जाता है .चारित्रिक दृढ़ता के लिये अपने मन को नियंत्रित रखना पड़ता है . पाँव पाँव चढ़ने और साधन द्वारा ऊपर पहुँचने में वहीं अन्तर है जो नकल करके अच्छे नम्बर लाने और गहन अध्ययन करके परिणाम पाने में होता है .

30 अप्रैल का दिन खाली था . कथा एक मई से शुरु होनी थी . तय हुआ कि आज भगवान के दर्शन किये जाएं . रवि ऐसे कामों में बड़ा सहायक था .उसने बताया कि दर्शनों के लिये सुबह तीन तीन किमी लम्बी लाइन लगती है अभी बहुत छोटी सी है .मैं तो तैयार ही थी ,साथ में सुनीता ,ऊषा भाभी ,रेखा दर्शनों के लिये चल पड़े . काफी नीचे ढलान के बाद अलकनन्दा का पुल है फिर लगभग पचास मीटर ऊँचाई पर शीश ताने भगवान बदरीनारायण का भव्य मन्दिर है जिसे लाल पीले फूलों से सजाया हुआ था .

मुझे यह देख कर आश्चर्य से अधिक हैरानी हुई कि इतना दिव्य भव्य और सनातन का सर्व प्रमुख मन्दिर आसपास की इमारतों में छुप गया है . वह अलकनन्दा के तट पर जाकर दिखाई दिता है . पुराने चित्रों में मन्दिर के आसपास कोई मकान नहीं है पर अब मन्दिर से अधिक बाजार है . दर्शनार्थियों के लिये व्यवस्थित लाइन नहीं थी


.कितनी ही भीड़ हो अगर सही व्यवस्था हो तो दर्शन आसान होजाएं ..रवि जिसे कम कह रहा था उतनी भीड़ भी बहुत ज्यादा थी . अच्छे भले आदमी को कुचल सकने लायक . मैं कुचली तो नहीं गई पर बेहाल ज़रूर हुई . हाँ अन्दर भगवान के समक्ष जो अनुभुति हुई वह अनिर्वचनीय है . सब कुछ पा लेने

जैसा अहसास .केवल एक यही सत्य है और कुछ नहीं . निःशेष होजाना ही शायद मुक्ति है . सारी लालसाएं ,आशाएं शून्य . पर यह क्षणिक था . अगले ही पल धक्कों ने बाहर कर दिया .मुझे लगता है इतनी भीड़ में ऐसे स्थानों पर जाना केवल मन को समझाना है कि हमने दर्शन कर लिये .साथ चलते लोगों को पीछे धकेलकर ,आगे निकलने की प्रवृत्ति ने आस्था को पीछे छोड़ दिया है .एक ही भाव रहता है कि किसी तरह आगे निकलो भगवाने के सामने जाकर कुछ माँगलो और मिल गया दर्शनों का लाभ .पूरी आत्मीयता और कृतज्ञता के साथ ईश्वर के सामने खुद को रखना तो हो ही नहीं पाता . जब तक हृदय द्रवित न हो डोर वहाँ तक नहीं पहुँचती . भीड़ में धक्का खाते कुचलते आस्था कहीं बिखर जाती है . मेरे विचार से हर रजिस्ट्रेशन करने वाले यात्री को दर्शनों की तारीखें और समय दे दिया जाय तो धक्का मुक्की और दूसरी मुश्किल से बचा जा सकता है . यह सोचनीय है कि हमारे तीर्थस्थलों को भी लोगों ने पिकनिक स्पॉट बना लिया है .यातायात की सुविधा ने जहाँ जीवन को आसान बनाया है वहीं प्रदूषण गन्दगी के साथ जीवन को कृत्रिमता की ओर धकेला है.


मन्दिर के नीचे अलकनन्दा को देखना तकलीफदेह था . नदी के आस पास भी निर्माण कार्य जारी हैं. आसपास कंकरीट और मलबे के ढेर कारण धारा सँकरी होगई .पर्याप्त जगह न पाकर सौम्य जीवनदायिनी अलकनन्दा की गर्जना भय उत्पन्न करती है मानो कह रही हो कि तुम मेरी सीमाएं दबा रहे हो ,कल मेरे कारण तुम्हारे प्राणों पर आ बने तो मुझे दोष मत देना .भूल गए उस प्रलय को .

विकास के लिये पहाड़ों का सीना चीरते देखकर क्या कम कष्ट हुआ . अच्छी सड़कों के कारण अधिक से अधिक वाहन आ रहे हैं .नई पार्किंग के लिये जगह चाहिये . लोगों को ठहरने के लिये गेस्टहाउस , धर्मशाला चाहिये .ज्यादा लोगों के लिये बाजार भी विस्तार ले रहा है .बाजार प्रकृति को निगल रहा है .धरती की छाती पर बुडोजर चलाए जा रहे हैं .पहाड़ों के हाथ काटे जा रहे हैं . सच कहूँ तो इस विचार के बाद मेरा मन थोड़ा अशान्त होगया . मानव को सुविधाएं भी चाहिये , एक दिन वह बिगड़े पर्यावरण , अति वृष्टि अनावृष्टि की शिकायत भी करेगा ..कर रहा है . कहावत है कि ,हँसलो या गाल फुलालो . अगर जाने की क्षमता नहीं है तो क्यों जाना तीर्थों में . क्यों चाहिये हैलीकॉप्टर ..


1मई को सुबह अलकनन्दा से विधिवत् पूजन के बाद कलश भरकर लाए गए और श्रीमद्भागवत् कथा प्रारम्भ हुई . कथावाचक श्री आकाश उनियाल थे . साथ ही उनके पिता और अन्य परिजन भी बैठे . मेरी योजना कथा के बीच ही वहीं से रवि या किसी अन्य विश्वासपात्र के साथ केदार नाथ गंगोत्री  यमुनोत्री जाने की थी लेकिन उसी दिन बारिश और उसके बाद हिमपात शुरु होगया था . केदारनाथ धाम की यात्रा स्थगित करदी गई ..हिमपात देखना अनूठा अनुभव था . इसे देखने लोग हफ्तों इन्तज़ार करते हैं . पर हमें वह सहज उपलब्ध हुआ . सर्दी काफी बढ़ गई थी . कहीं आना जाना संभव नहीं था . लेकिन उस कड़कती सर्दी मैं बच्चे बूढ़े एक एक वस्त्र में लिपटे दर्शनार्थ चले आरहे थे . यह उनकी आस्था का ही बल था .खराब मौसम के बावजूद ,सारी सुविधाएं ,गरम पानी ,चाय नाश्ता ,खाना सारी व्यवस्थाएं सुचारु थीं इसके लिये भाई किसन और भाभी ऊषा का विशेष सहयोग रहा .रवि भी बराबर सहयोग करता रहा . उर्मिला घुटनों के दर्द से परेशान थी लेकिन व्यवस्थाओं में कहीं कोई कमी नहीं आने दी .यह बात मुझे निश्चित ही प्रभावित कर रही थी . मैं यह देखकर भी चकित थी . 

आगे भी जारी.... 



शुक्रवार, 26 अप्रैल 2024

मेरी बद्रीनाथ धाम यात्रा .

 


27 अप्रैल 2023 की सुबह जब मैंने उर्मिला के साथ हरिद्वार के लिये प्रस्थान किया तो मन में उल्लास जिज्ञासा और इस संयोग पर कुछ विस्मय भी था .उल्लास व जिज्ञासा नए स्थान के प्रति तथा विस्मय इस बात का कि पूर्व नियोजित कार्यक्रम कई बार असफल होते देखे गए हैं ,जबकि यह अचानक बना कार्यक्रम था जो किस तरह पूरा होगया था .

उर्मिला मेरी स्कूल की मित्र है . सन् 1972-73 में उससे मेरा परिचय तब हुआ जब मैंने हायर सेकेण्डरी स्कूल पहाड़गढ़ में नौवीं कक्षा में प्रवेश लिया था .हमारा केवल दो साल साथ रहा लेकिन बचपन की मित्रता तो जीवनभर की होती है . वर्षों तक हम नहीं मिलीं पर जब मिली तो साथ संवाद का सिलसिला चल पड़ा और उसने अपने श्रीमद्भागवत साप्ताह कथा में शामिल होने का आग्रह किया जो वह बद्रीनाथ धाम में करवाने जा रही थी . उसका अधिकांश समय पूजा भजन और हरिद्वार, वृन्दावन में बीतता है . अब तक वह तीन बार श्री मद्भागवत् कथा पाठ करवा चुकी थी .चौथा आयोजन बद्रीनाथ धाम में था .

इस दृष्टि से हमारे मेल का प्रमुख आधार प्रेम है .वरना कई कारणों से मैं तो घर में अखण्ड-रामायण का सार्वजनिक पाठ तक नहीं करवा सकी हूँ . पूजा भी बस नियम पूर्त्ति जैसी होती है . मित्र मानती हूँ . इसी के आधार पर जिस भाव से उसने मुझे बद्रीनाथ धाम चलने का प्रस्ताव रखा , और मैं 27 अप्रैल 2023 को मैं उर्मिला के साथ उसकी वैगन आर में सवार हो चुकी थी .  

बद्रीनाथ केदारनाथ गंगोत्री यमुनोत्री ये उत्तराखण्ड के चार धाम हैं जिनके प्रति बचपन से ही बड़ा आकर्षण था .चाहा तो था कि चारों ही तीर्थ होजाते पर सोचा कि एक बद्रीनाथ धाम होजाना भी बड़ी उपलब्धि होगा . इस बार मैंने अलकनन्दा के तट पर बसे इस पावन धाम के बारे में कुछ जानकारियाँ भी हासिल कीं  .ऋषिकेश से लगभग 294 किमी दूर बद्रीनाथधाम चमोली जनपद में लगभग 3133 मीटर ऊँचाई पर स्थित है .अक्टूबर नवम्बर में मन्दिर के कपाट बन्द होजाते हैं .अखण्ड ज्योति प्रज्ज्वलित होती रहे इसके लिये छह माह के घी की व्यवस्था की जाती है .उस दिन विशेष पूजा के साथ बदरीनारायण भगवान नीचे चालीस किमी दूर जोशीमठ (ज्योतिर्मठ) के नरसिंहभगवान के मन्दिर में विराजमान होते हैं .जो अक्षय तृतीया तक वहीं निवास करते हैं .यह सब पढ़कर बड़ा आश्चर्य व रोमांच हुआ . एक और बड़ी प्रेरक और सुखद आश्चर्य की बात कि देश की उत्तरी सीमा पर स्थित इस मन्दिर में

 केरल के पुजारी होते हैं जिन्हें रावल कहा जाता है .गंगोत्री के जल से रामेश्वरम् का अभिषेक करने पर ही यात्रा का पुण्य मिलना , केदारनाथ में भी कर्नाटक का पुजारी होना .ऐसे प्रावधान देश की एकता और अखण्डता के लिये कितने आवश्यक हैं , महत्त्वपूर्ण हैं ,कहने की ज़रूरत नहीं . हमारी धार्मिक मान्यताओं को महज अन्धविश्वास कहना गलत है .उनके पीछे कोई न कोई सदुद्देश्य होता है .

विष्णु भगवान के तीर्थ का नाम बद्रीनाथ धाम क्यों पड़ा इसके पीछे कई कथाएं है यहाँ एक देना ठीक रहेगा कि किसी युग में वहाँ बदरिका (बेर) के पेड़ो की बहुतायत थी .

हरिद्वार पहुँचते पहुँचते अँधेरा होगया था . हमारा रात्रि विश्राम वेदान्त आश्रम में था .गंगा जी के परमार्थ घाट के निकट स्थित वेदान्त आश्रम सुन्दर स्वच्छ और सर्वसुविधायुक्त और धार्मिक वातावरण वाला आश्रम है .हरिद्वार में प्रवास के इच्छुक लोगों के लिये तो व्यवस्था है ही ,निराश्रित गरीब बच्चों के पालन व शिक्षा की व्यवस्था भी है उर्मिला यहाँ आती रहती है . वहाँ श्रीमद्भागवत् का साप्ताहिक पाठ तो करवा ही चुकी है ..इसलिये वातावरण परिवार जैसा ही है . शाम को उर्मिला के भाई किसन (कृष्णकुमार) भाभी ऊषा, नोइडा से चचेरी बहिन सुनीता  ,उसके पति प्रशान्त और बेटी भी हरिद्वार पहुँच गए .क्योंकि धाम के लिये 29 अप्रैल का प्रस्थान था इसलिये 28 को ऋषिकेश दर्शन का लाभ लिया . रवि त्यागी कहने को कार चालक की भूमिका में था लेकिन वह परिवार का सदस्य ही माना जाता है उसी तरह हर कार्य में हाथ बँटाता है . मैं , भाभी ऊषा और उर्मिला की छोटी बहिन रेखा तीनों रवि के साथ ऋषिकेश चले गए .वहाँ मैं पहले जा चुकी हूँ लेकिन इस बार हमारे पास काफी समय था . गंगा जी का विशाल अतुलित प्रवाह, सौन्दर्य और वैभव देखकर मन आनन्दमय और कृतकृत्य होगया . लक्ष्मण झूला अब बन्द कर दिया गया है .उसकी जगह सुन्दर अपेक्षाकृत चौड़ा जानकी झूला बन गया है .राम झूला अधिक व्यस्त था .बाइक साइकिल पैदल ..सब मिलकर काफी भीड़ थी . मेरे विचार से रामझूला का उपयोग गाड़ियों के लिये नहीं होना चाहिये .

29 अप्रैल की सुबह हम लोग तीन गाड़ियों में ढेर सारे सामान घी ,आटा तेल मसाले सब्जियाँ आदि के साथ बद्रीधाम की ओर चल पड़े . वहाँ लगभग पन्द्रह लोग आठ दिन रुकने वाले थे .  

बद्रीनाथ धाम का रास्ता बहुत सुन्दर और आसान बना दिया गया है . छोटी सी वैगनआर दुर्गम पहाड़ों के बीच मानो सर्राटे भरती जा रही थी .मुझे याद है जब मेरी नानी चार धाम के लिये गईँ थीं , उन्हें भजन कीर्त्तन के साथ भरी आँखों  विदा किया था .मां तो लिपटकर रोने लगीं थीं . सीधा मतलब था कि उस महीनों की दुर्गम यात्रा के बाद लौटने की उम्मीद बहुत कम रहती थी .

बीच में देवप्रयाग जैसे मनोरम स्थानों पर मेरा मन फोटो लेने के लिये कसमसाता रहा लेकिन उस दिन तो समय से धाम पहुँचने की जल्दी थी . केवल एक जगह चाय नाश्ते के लिये रुके . धाम से कुछ ही दूर पहले बारिश शुरु होगई इसलिये गन्तव्य तक पहुँचने में कुछ देर लगी . रुकावट भी आई . यातायात सुलभ होजाने के कारण हर तीर्थस्थल की तरह बद्रीनाथ धाम में भी कारों और बसों का कफिला कई बार महानगर जैसा ट्रैफिक जाम कर देता है . उस समय भी ऐसा ही था . लेकिन सद्गुरु आश्रम पहुँचकर सबने राहत की साँस ली . अनुभवी और अच्छा साथ हो ,कुशल ड्राइवर हो तो बाधाएं चिन्तित नहीं करतीं सद्गुरु आश्रम में पाँच--छह कमरे और कथा वाचन के लिये हॉल ,रसोई सब पहले ह ही  ही बुक कर लिये गए थे . मुझे सुबह की प्रतीक्षा थी जब मैं उजाले में सब देख सकूँगी .

आगे जारी.....

मंगलवार, 16 अप्रैल 2024

पुरस्कार--महात्म्य (व्यंग्य)

आप अगर मुझसे पुरस्कार की परिभाषा लिखने को कहें तो वह कुछ इस तरह होगी--–"पुरस्कार लोहे को सोना बना देने वाला पारस है .किसी गुमनाम बस्ती में किसी मंत्री या सांसद का आगमन है .अँधेरी गली में लगा दिया गया बल्व है .अनावृष्टि में जूझती उम्मीदों के लिये एक बाल्टी पानी है. लेखन रूपी फसल के लिये खाद पानी है . पुरस्कार-विहीन लेखन बिना विज्ञापन के बेचा जा रहा प्रॉडक्ट है , बिना लाउडस्पीकर के किसी कोने में गुनगुनाया गया गीत है ,बिना बैंडबाजे की बरात है , अरण्य रोदन है . जंगल में नाचता हुआ मोर है .कारों के बीच रेंगता साइकिल सवार है . भरे वसन्त में फूल पत्र विहीन खड़ा पेड़ है .मंच पर बिना हाव ,भाव और सुर ताल के सुनाई गई कविता है ...वगैरा वगैरा

मंच से याद आया कि मंच पर श्रोताओं का ध्यान ,सम्मान मिलना भी किसी पुरस्कार से कम नहीं है . श्रोताओं को बाँधे रखना और उनसे तालियाँ बजवा लेना कोई हंसी खेल नहीं है .उसके लिये बड़ा अभ्यास और लगन चाहिये . कविता (कहीं से चुराई भी चलेगी) किसी मंत्र की तरह सिद्ध हो ,आवाज में सुर और बुलन्दी हो .श्रोताओं की आँखों में झाँककर अपनी बात इस विश्वास के साथ सकने का कौशल हो कि श्रोता वाह वाह कहने , तालियाँ बजाने विवश होजाय ..भाई साहब वह है मंच पर काव्यपाठ . .डायरी या मोबाइल लेकर पढ़ने वाले तो जैसे आते हैं , चले जाते हैं . इसके लिये माइक से गहरा मोह और अभिनय , सुर लय का ध्यान भी बहुत काम आता है . मंच पर कविता पढ़कर लोकप्रियता की चाह रखने वाले बन्धु ,भगिनी इन सूत्रों को अवश्य अपनाएं . यह भी उल्लेखनीय है कि मंच पर जमने वाले कवि अपने मंचासीन साथी कवियों के समय की चिन्ता जूतों /चप्पलों के साथ ही मंच के नीचे ही छोड़ आते हैं . फिर चाहे साथी कवि कुढ़ते हुए उसकी तुलना अपने चिपकू पड़ोसी से करते रहें .
मंच पर सफल काव्य-पाठ करने के बाद श्रोताओं से दो दुलार मिलता है उसे देखकर दावे के साथ कहा जा सकता है कि जो लोग मंचीय कविता को दूसरी श्रेणी की कहकर कमतर नज़रों से देखते हैं वे हीनता के यानी एहसासे कमतरी के शिकार होते हैं .सच्ची .
अब देखें पुरस्कार का प्रभाव .उसका पहला लाभ तो यह है कि जो लोग सोशल मीडिया पर आपके नाम को देख नाक सिकोड़कर निकल जाते थे वे अचानक आपके घनिष्ठ बन जाते हैं . नाकुछ शब्दों में बहुत कुछ खोजकर निकाल लेते हैं .निरर्थक से वाक्य या ,एक सादा सी सेल्फी पर ही बलिहारी जाते हैं .कमेंट्स की बौछार कर देते हैं .रचनाओं पर भली सी समीक्षाएं लिखकर निकटता जताते हैं मन न हो तब भी आपकी मामूली सी बात को लाइक करते हैं .साक्षात्कार के लिये बुलावे भी बड़ी भूमिका अदा करते हैं .
सबसे बड़ी बात यह कि पुरस्कार में दाम के साथ नाम भी मिलता है . नाम की बड़ी महिमा है. कवियों ने ,“राम से बड़ा राम का नाम…” कहा है . दुनिया नाम के लिये ही मरती है . दुनियाभर में सत्ता और धन के अलावा जिस चीज के लिये भागदौड़, आपाधापी ,खींचतान , नोंच-खसोट और मारकाट मची है , वह  नाम ही है . नाम में क्या रखा है ..” ,कहने वाला शख्स आज ज़िन्दा होता तो खुद के लिखे पर ही बहुत पछता रहा होता . सभी नामचीन साहित्यकारों से माफी माँग रहा होता खैर..
अरे हाँ , नाम से याद आया, नामी लोगों का सम्पादक के साथ भी एक आत्मीय रिश्ता बन जाता है . सम्पादक उनकी मामूली रचनाओं को भी सिर माथे लेकर छापते हैं .जानते हैं .पूरी पत्रिका में एक दो रचनाएं ऐसे ही पड़ी रहें पत्रिका की सेहत पर भला क्या असर होने वाला है .वैसे भी छोटी बड़ी हर पत्रिका में कुछ रचनाएं फालतू होती ही हैं ,ज़ाहिर है कि वे उनके कुछ पालतू रचनाकारों की होती हैं .
असल में सम्पादक वर्ग ऐसी प्रजाति है जो विधाता की तरह रचनाकार के पालक और संहारक दोनों का दायित्त्व निभाता है. राई को पर्वत और पर्वत धूल कर देने वाली क्षमता . न छापनी हो तो ठीक ठाक रचना को भी खेद सहित लौटादे .भले ही रचना बूमरेंग की तरह लौटकर रचनाकार को घायल करदे उन्हें क्या ! जानते हैं कि प्रकाशन के बिना लेखन दो कौड़ी का भी नहीं . छपने और लिखने में परस्पर जन्मजन्मान्तर का सम्बन्ध है . इसलिये सभी छपने और छपकर नाम कमाने के लिये ही लिखते हैं ..
अब भैये , इसमें तो कोई शक सुबहा नहीं हैं कि हमारे यहाँ नाम और पद पूजा जाता है ,काम नहीं . सरकारी कार्यालयों में एक गुणी अनुभवी कर्मचारी , पिछवाड़े लगी सीढ़ी से ऊपर चढ़ आए अपने नौसिखिया अधिकारी की लानत मलामत सहकर भी हाथ जोड़े रहता है और उसके सामने खुद को अनुभवहीन स्वीकारता रहता है . इससे अच्छा हो कि हाथ जोड़ने की बजाय वह उससे भी ऊपरवाली सीढ़ी तलाश ले .बुद्धिमान लोग लेखन शुरु करने से पहले सीढ़ी तलाश लेते हैं . उन्ही को देखकर द्विवेदी जी के कंठ से फूट पड़ा होगा , “कोशिश करने वालों की हार नहीं होती …”
तो भाई साहब पुरस्कार की महिमा अनन्त है अशेष है .नित्य है ,सत्य है . जैसे आयोजकों ने उनको पुरस्कार दिये , वैसे ही आपको भी मिलते रहों .